कार्ल रोजर्स (Carl Ransom Rogers ; 8 जनवरी 1902 – 4 फ़रवरी 1987) अमेरिका के प्रसिद्ध मनश्चिकित्सक थे। मनश्चिकित्सा में मानवीय संवेदना को स्थान देने के लिये प्रसिद्ध हैं।

कार्ल रोजर्स (Carl Rogers)
जन्म 8 जनवरी 1902
ओक पार्क, इलियन्स, यूएसए
मृत्यु फ़रवरी 4, 1987(1987-02-04) (उम्र 85)
सान दियगो, कैलिफोर्निया, यूएसए
राष्ट्रीयता अमेरिकी
क्षेत्र मनोविज्ञान
संस्थान ओहियो स्टेट युनिव्र्सिटी]]
शिकागो विश्वविद्यालय
University of Wisconsin–Madison
Western Behavioral Sciences Institute
Center for Studies of the Person
शिक्षा University of Wisconsin–Madison
Teachers College, Columbia University
प्रसिद्धि The Person-centered approach (e.g., Client-centered therapy, Student-centered learning, Rogerian argument)
प्रभाव Otto Rank, Kurt Goldstein, Friedrich Nietzsche, Alfred Adler
उल्लेखनीय सम्मान Award for Distinguished Scientific Contributions to Psychology (1956, APA); Award for Distinguished Contributions to Applied Psychology as a Professional Practice (1972, APA); 1964 Humanist of the Year (American Humanist Association)

उपचारार्थी केंद्रित मनश्चिकित्सा नामक मानसिक रोगों के निवारण की एक मनोवैज्ञानिक विधि कार्ल रोजर्स द्वारा प्रतिपादित की गई है। रोजर्स का स्व-वाद (self-concept) प्रसिद्ध है जो अधिकांशतः उपचार प्रक्रिया या परिस्थितियों से उद्भूत प्रदत्तों पर अवलंबित है। रोजर्स की मूल कल्पनाएँ स्वविकास, स्वज्ञान, स्वसंचालन, बाह्य तथा आंतरिक अनुभूतियों के साथ परिचय, सूझ का विकास करना, भावों की वास्तविक रूप में स्वीकृति इत्यादि संबंधी हैं। वस्तुतः व्यक्ति में वृद्धिविकास, अभियोजन एवं स्वास्थ्यलाभ तथा स्वस्फुटन की स्वाभाविक वृत्ति होती है। मानसिक संघर्ष तथा संवेगात्मक क्षोभ इस प्रकार की अनुभूति में बाधक होते हैं। इन अवरोधों का निवारण भावों के प्रकाशन और उनको अंगीकार करने से सूझ के उदय होने से हो जाता है।

इस विधि में ऐसा वातावरण उपस्थित किया जाता है कि रोगी अधिक से अधिक सक्रिय रहे। वह स्वतंत्र होकर उपचारक के सम्मुख अपने भावों, इच्छाओं तथा तनाव संबंधी अनुभूतियों का अभिव्यक्तीकरण करे, उद्देश्य, प्रयोजन को समझे और संरक्षण के लिए दूसरे पर आश्रित न रह जाए। इसमें स्वसंरक्षण अथवा अपनी स्वयं देख देख आवश्यक होती है। उपचारक परोक्ष रूप से, बिना हस्तक्षेप के रोगी को वस्तुस्थिति की चेतना में केवल सहायता देता है जिससे उसके भावात्मक, ज्ञानात्मक क्षेत्र में प्रौढ़ता आए। वह निर्देश नहीं देता, न तो स्थिति की व्याख्या ही करता है।

रोजर्स का अनुभवजन्य अधिगम संपादित करें

रोजर्स के अनुभवजन्य अधिगम (Experiential Learning) के सिद्धान्त के अनुसार अनुभव करके सीखना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। विद्यार्थी पर पुस्तकों का बोझ न लादकर उसे स्वतंत्रतापूर्वक स्वयं सीखने के लिए प्रेरित करना अधिक सार्थक है। शिक्षकों को छात्रों को क्या पढ़ना है, कैसे पढ़ना है, कितना पढ़ना है आदि निर्देश देने के बजाय सेमीनार/वर्कशॉप/परिचर्चा/शैक्षणिक भ्रमण आदि आयोजनों द्वारा सिखाना चाहिए ताकि बालक स्वयं अनुभव करके सीख सके । बालक अधिगम में किसी के आश्रित न रहे तथा स्वयं करके सीखे। इस सिद्धान्त को आनुभविक अधिगम, अनुभवात्मक अधिगम, प्रयोगात्मक अधिगम (Experiential Learning, Empirical Learning, Experiential Learning) आदि नामों से भी जाना जाता है।

रोजर्स की मान्यता है कि संज्ञानात्मक ज्ञानार्जन (Cognitive Learning) अस्थाई स्वरूप का होने से उसका महत्त्व शून्य के बराबर है। अनुभवजन्य अधिगम के बारे में उन्होंने कहा कि जब विद्यार्थी स्वयं करके सीखता है तो वह अर्जित ज्ञान का स्थाई रख पाता है तथा अर्जित ज्ञान को उपयोग में लाने में भी सक्षम होता है । उन्होंने बताया कि परम्परागत अधिगम से बालक कुछ स्थितियों में भूल जाता है जबकि स्वयं किये गये कार्य के प्राप्त अधिगम स्थायी होता है। उदाहरणस्वरूप गाड़ी चलाते व्यक्ति की क्रियाओं को देखकर कोई गाड़ी चलाना नहीं सीख सकता-उसे स्वयं गाड़ी चलाकर देखनी होगी तभी वह स्थायी अधिगम प्राप्त कर सकता है। कार्ल रोजर्स के अनुसार बालक (विद्यार्थी) में कार्य को करने के प्रति आंतरिक जिज्ञासा होती है तथा उसमें करके सीखने की अद्वितीय प्राकृतिक क्षमता होती है।

अनुभवजन्य अधिगम की विशेषताएँ संपादित करें

1. यह स्वअनुभव प्रेरित अधिगम है। इसमें सीखने की प्रक्रिया स्वरुचि व स्व उत्प्रेरित होती है।

2. प्रत्येक बालक में प्राकृतिक तौर पर सीखने की अद्वितीय क्षमता होती है अत: उसे इस क्षमता के विकास हेतु अधिगम अनुभव दिये जाने चाहिए।

3. संज्ञानात्मक अधिगम का महत्त्व शून्य के बराबर है क्योंकि बालक कुछ समय पश्चात सीखी हुई बात भूल जाता है।

4. संज्ञानात्मक अधिगम जब तक उपयोग में न लाया जाए निरर्थक होता है। संज्ञानात्मक अधिगम का उद्देश्य केवल ज्ञान की प्राप्ति मात्र है।

5. अनुभवजन्य अधिगम की प्रक्रिया सोद्देश्य होती है तथा इससे अर्जित ज्ञान स्थाई होता है तथा ज्ञान के स्थानांतर में सहायक होता है।

6. संज्ञानात्मक अधिगम की अपेक्षा अनुभवजन्य अधिगम अधिक महत्त्वपूर्ण है।

सीमाएं

1. अनुभवजन्य अधिगम के अवसर सर्वत्र तथा हमेशा उपलब्ध नहीं होते।

2. बिना दिशानिर्देश या मार्गदर्शन के अनुभव के आधार पर अधिगम समय-साध्य प्रक्रिया है।

3. अनुभवजन्य अधिगम हमेशा विश्वसनीय नहीं होता।

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