नामग्याल तिब्बत अध्ययन संस्थान

नामग्याल तिब्बत अध्ययन संस्थान (Namgyal Institute of Tibetology / एनआईटी) भारत में गैंगटॉक की पहाड़ियों में स्थित तिब्बती साहित्य और शिल्प का यह अनूठा भंडार है। भारत में इस प्रकार का एकमात्र संस्थान है। यह समुद्र तल से लगभग 5500 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। सिकिक्म के शासक 11वें चोगयाल, सर ताशी नामग्याल ने 1958 में इसकी स्थापना की थी। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पहली अक्टूबर, 1958 को इस संस्थान का विधिवत उद्धाटन किया था।

नामग्याल तिब्बत अध्ययन संस्थान

इस संस्थान को तिब्बत अध्ययन शोध संस्थान, सिकिक्म के नाम से भी जाना जाता है। पूरे विश्व में मात्र तीन संस्थान ही इस प्रकार के हें। मास्को में पीपल्स ऑफ एशिया संस्थान और टोक्यो में तोयो बुंको ऐसे दो अन्य संस्थान हैं।

यह संस्थान बौध्द दर्शन और बौद्ध धर्म का विश्व विख्यात केन्द्र है। यहां विभिन्न रूपों और आकारों की लगभग 200 प्रतिमाओं, पेंटिंगों, विज्ञान, धर्म, चिकित्सा, ज्योतिष आदि विषयों की पुस्तकों सहित बहुत सी अमूल्य वस्तुएं मौजूद हैं। लेपचा और संस्कृत की पांडुलिपियों सहित प्राचीनकाल की अनोखी वस्तुओं की नामावलियों का यहां बहुत अच्छा संग्रह है।

परिचय संपादित करें

नामग्याल तिब्बत अध्ययन संस्थान एक स्वायत्त संस्था है। एक निदेशक और एक प्रबंध परिषद इसका संचालन करते हैं। सिकिक्म के राज्यपाल इस परिषद के पदेन अध्यक्ष होते हैं। बौध्द धर्म के अनुयायियों के साथ-साथ तिब्बती संस्कृति के विभिन्न पहलुओं के प्रति रूचि रखने वाले लोगों के बीच इसकी काफी ख्याति और प्रतिष्ठा है।

इस संस्थान के पास तिब्बती पांडुलिपियों और लकड़ी पर बनी नक्काशियों का ऐसा संग्रह है जो पूरे विश्व में शायद ही और कहीं हो। इसके फलस्वरूप यह बौध्दों, शोधकर्ताओं और इससे जुड़े अन्य लोगों के लिए एक प्रमुख आकर्षण केन्द्र बन गया है।

इस संस्थान के संग्रहालय में कई दुर्लभ वस्तुएं मौजूद हैं। सांप की खाल और लकड़ी से बने ड्रमों, ग्यालिंग अथवा क्लारिनेट, भगवान बुध्द के विभिन्न अवतारों को चित्रित करते हस्तशिल्प और भगवान तथा अन्य कहानियों और आख्यानों को बयान करती कपड़े पर बनी पेंटिंग इनमें प्रमुख हैं।

संस्थान के अन्य आकर्षक संग्रहों में यात्रा के दौरान शराब रखने के लिए इस्तेमाल में आने वाली चमड़े की थैली, हाथी दांत की चूड़ियां, तिब्बती चूडियां, शाही और धार्मिक मोहरें, सिक्के, पुरानी कागजी मुद्रा, सिर पर पहने जाने वाले पारंपरिक परिधान, कर्मकांड अथवा अन्य प्रकार के अनुष्ठानों के दौरान ड्रम बजाने के काम आने वाली मनुष्य की जांघों की हड्डियों से बनी छड़ी आदि शामिल हैं। इसके अलावा ताड़ के पत्तों वाली संस्कृत और बंगला की 11वीं सदी की कुछ पांडुलिपियां, तांत्रिक विषयों की पांडुलिपियां, चीनी बौध्द लिपियां और लेपचा की पुरानी पांडुलिपियां संस्थान में मौजूद हैं। धार्मिक नेता दलाई लामा ने 10 फ़रवरी 1957 को इस संस्थान का दौरा किया था और उस मौके पर उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए करनी और हथौड़े को भी यहां रखा गया है।

यह एक संयोग ही है कि तिब्बती विद्वान एक पीढी से दूसरी पीढी तक बिना किसी लिपि के ही काव्यों को मौखिक रूप से पहुंचाते थे। पर, सातवीं सदी में इसे काव्यशास्त्र के रूप में लिपिबध्द किया गया था। इस क्षेत्र में धर्म का प्रादुर्भाव दक्षिण से हुआ था और यही कारण है कि दक्षिणी धर्म पुस्तकों के तिब्बती में शीघ्र अनुवाद की आवश्यकता महसूस हुई। इसी प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए ब्राह्मी के अनुसारर अक्षर और संस्कृत के अनुसार वर्णमाला तिब्बती लिपि और वर्णों के लिए आदर्श बन गए।

संस्थान के एक प्रकाशन में बताया गया है कि ऐसी परंपरा है कि तिब्बती भाषा पर किसी भी चर्चा की शुरुआत धर्म से होती है, जिसका दूसरा अर्थ बौध्द है। बाद में शाही न्यायालय के संरक्षण में भारतीय और तिब्बती विद्वानों ने संस्कृत की मूल पुस्तकों का अनुवाद किया। उन शुरूआती दिनों का इस प्रकार का संयुक्त प्रयास दोनों देशों के विद्वानों के बीच संबंधों की गहराई को दर्शाता है। इसके फलस्वरूप अत्यंत दुर्लभ और बहुमूल्य कलात्मक वस्तुएं उपलब्ध हो पाई जिनमें से कुछ इस संस्थान में रखी गई हैं।

किसी व्यक्ति के लिए भी यह जानना रोचक होगा कि बुध्द के उपदेशों से संबंधित लेखनों को कंजूर कहा गया जबकि भारतीय संतों और विद्वानों के उपदेशों से संबंधित लेखनों को तंजूर कहा गया। तंजूर के 225 खंड हैं जबकि कंजूर के 103 खंड ळें। इनमें से कई महत्वपूर्ण खंड इस संस्थान में रखे गए हैं।

अगर बौध्द धर्म और इसके दर्शन पर नजर डाली जाए और विवरणों पर गौर किया जाए तो तिब्बती साहित्य का एक बड़ा हिस्सा धर्म से संबंधित होगा। वहीं दूसरी ओर धर्मनिरपेक्ष विषयों पर कम पुस्तकें होने के बावजूद भी आज के आधुनिक युग के विद्वानों और बौध्दों के लिए ये कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।

पिछली सदी के मध्य तक बाहर के लोगों का करीब-करीब यही मानना था कि तिब्बती साहित्य का अर्थ धर्म, रहस्यवाद और जादू-टोने के अलावा और कुछ नहीं है। पर, अब विश्व समुदाय यह जानता है कि तिब्बती साहित्य केवल धर्म, तंत्र और योग के अलावा और भी कुछ है। वास्तव में तिब्बती साहित्य के अंतर्गत इतिहास, भूगोल, वनस्पति विज्ञान, रसायन विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, शल्य चिकित्सा, कला और शिल्पकला जैसे क्षेत्रों के साथ ही धर्म निरपेक्षता के विषयों को विभिन्न रूपों में शामिल किया गया है।

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