बक्षाली पाण्डुलिपि या बख्शाली पाण्डुलिपि (Bakhshali Manuscript) प्राचीन भारत की गणित से सम्बन्धित पाण्डुलिपि है। यह भोजपत्र पर लिखी है। यह सन् १८८१ में बख्शाली गाँव (तत्कालीन पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त; अब पाकिस्तान में, तक्षशिला से लगभग ७० किमी दूर ) में मिली थी।[1] यह शारदा लिपि में है एवं गाथा बोली (संस्कृत एवं प्राकृत का मिलाजुला रूप) में है। यह पाण्डुलिपि अपूर्ण है। इसमें केवल ७० 'पन्ने' (या पत्तियाँ) ही हैं जिनमें से बहुत ही बेकार हो चुकी हैं। बहुत से पन्ने अप्राप्य हैं।

बख्शाली पाण्डुलिपि का एक पत्र (पन्ना)
बख्शाली पाण्डुलिपि में प्रयोग किये गये अंक

परिचय संपादित करें

शायद यह संस्कृत में अंकगणित पर लिखी गई सबसे पुरानी रचना है जिसे सम्भवतः सातवीं शताब्दी में संकलित किया गया होगा। इसे किसने संकलित किया, इसका कोई उल्लेख नहीं है। कोलकाता की एशियाटिक सोसाइटी ने ‘गणितावली’ नामक ग्रन्थ का प्रकाशन करवाया है। इस ग्रन्थ की पुष्पिका से इतना जरूर पता चलता है कि सुखदास नामक एक कायस्थ ने रामपालदेव के शासनकाल में शक संवत 1615 या 1715 में यह पूरी सामग्री कहीं से हासिल की थी। इस सामग्री की एक अद्वितीय प्रति एशियाटिक सोसाइटी के संग्रह में सुरक्षित है। ग्रन्थ के शुरुआती पन्नों में कई खामियां हैं, हालांकि बाद के पन्नों में अधिकांश सामग्री सुवाच्य है।

सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी के सरस्वती भवन के विभूतिभूषण भट्टाचार्य ने इस सामग्री का सम्पादन किया, लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि उनका देहान्त हो गया। अन्ततः मानबेंदु बनर्जी और प्रदीप कुमार मजूमदार ने अंकगणित, प्रारम्भिक रेखागणित और क्षेत्रमिति (मापन) की सामग्री वाले इस ग्रन्थ का सम्पादन किया। यह ज्योतिषियों की हैण्डबुक है जिसमें गणित व खगोल शास्त्र के कुछ विषय शामिल हैं। इस ग्रन्थ के अज्ञात लेखकों ने अपने शुरुआती वाक्यों में साफ कर दिया है कि यह पुस्तक उन कायस्थों या हिसाब-किताब रखने वालों के लिए हैं जो गणित का बेहद प्रारम्भिक ज्ञान हासिल करना चाहते हैं।

इस पाण्डुलिपि में क्या-क्या है? जोसेफ लिखते हैं-

The Bakhshali manuscript is a handbook of rules and illustrative examples together with their solutions. It is devoted mainly to arithmetic and algebra, with just a few problems on geometry and mensuration. Only parts of it have been restored, so we cannot be certain about the balance between different topics.
(अनुवाद) बख्शाली पाण्डुलिपि नियमों और व्याख्यात्मक उदाहरणों के साथ-साथ उनके समाधान की एक हस्तपुस्तिका है। यह मुख्यत: अंकगणित और बीजगणित को समर्पित है, जिसमें कुछ प्रश्न ज्यामिति और क्षेत्रमिति पर हैं। इसके केवल कुछ भाग ही बहाल हो सके हैं, इसलिए हम विभिन्न विषयों के सन्तुलन के बारे में सुनिश्चित नहीं हो सकते।

7777 संपादित करें

  • इसमें भिन्नों को लगभग वैसे ही दर्शाया गया है जैसे आजकल किया जाता है, अर्थात एक संख्या के नीचे दूसरी संख्या (किन्तु कोई रेखा नहीं)
  • घटाने की क्रिया को घटायी जाने वाली संख्या के दांये + लिखकर निरुपित किया गया है,
  • भाजन (भाग) को भा दे दर्शाया गया है,
  • भिन्नों के योग के लिये यु (=युक्त) का प्रयोग किया गया है,
  • '=' के लिये (फल) का प्रयोग किया गया है,
  • समीकरणों को निरुपित करने के लिये एक बड़ा बिन्दु (डॉट) का प्रयोग किया गया है जो 'अज्ञात चर' को निरूपित करता है। (शून्य भी कई जगह इसी तरह के डॉट से निरूपित किया गया है)[2]

संगठन संपादित करें

यह ग्रन्थ कारिका के रूप में लिखा गया है और छह अध्यायों में विभाजित है। सबसे पहले अध्याय में प्रस्तावना दी गई है जो इस ग्रन्थ को लिखे जाने के उद्देश्य पर प्रकाश डालती है।

दूसरा अध्याय ‘संख्याविधान’ है जिसमें विभिन्न संख्याओं में मापन का उल्लेख किया गया है। इसकी शुरुआत ‘यव’ (जौ के बीज) से होती है। फिर ‘अंगुली’, वितस्ति या बालिश्त, हस्त डंडा (लट्ठा) जैसे मापों का वर्णन किया गया है। फिर कोस और योजन का उल्लेख है। इसके बाद वजन के मापों का वर्णन है, खासकर चावल के वजन करने वाले माप। सुनारों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले मापों जैसे गुंजा, माशा, कर्शा और पल का भी उल्लेख किया गया है। समय की माप के बारे में काफी रूखे ढंग से वर्णन किया गया है। इसके अनुसार एक दिन में 30 मुहूर्त होते हैं, जबकि 30 दिनों से एक माह और 12 माह से एक साल बनता है। इसमें कुछ ऐसी मापें भी दी गई हैं जो अब प्रचलन में नहीं हैं जैसे वराटका, गंडक या गंडिक, काकिणी, पण, डल्लक इत्यादि। रोचक बात है कि घटीमान, द्रम्मकेदार और दीनार का भी उल्लेख है।

तीसरे अध्याय का नाम है ‘परिभाषाविधि’ जिसमें खासकर रेखागणित और अंकगणित से जुड़ी तकनीकी शब्दावली दी गई है। जैसे काया (सम्पूर्ण पिंड), अंशक (भाग), चेद, विश्कंभ, परिधि, भाजक, हरक इत्यादि।

चौथा अध्याय ‘परिक्रमाविधि’ विभिन्न अंकगणित समीकरणों व सूत्रों को समर्पित है।

पाँचवें अध्याय का नाम ‘व्यवहारविधि’ है जिसमें कई प्रकार के नियम जैसे तीन का नियम, पांच का नियम, गुणन, चक्रवृद्धि ब्याज की गणना आदि को समझाया गया है। साथ ही चतुर्भुज, त्रिभुज, वृत्त इत्यादि के बारे में भी संक्षेप में बताया गया है।

छठवें अध्याय में उदाहरणों के जरिए विभिन्न नियमों को समझाने का प्रयास किया गया है।

इस ग्रन्थ में कई कमियाँ निकाली जा सकती हैं। इसके बावजूद कहना पड़ेगा कि यह ग्रन्थ हजारों साल पहले उत्तर भारत में प्रचलित गणित के अध्ययन की एक झलक तो दिखलाता ही है।

विशेषताएँ संपादित करें

वर्गमूल की गणना संपादित करें

इस पाण्डुलिपि में वर्गमूल की गणना के लिये निम्नलिखित सूत्र कई बार आया है-

अकृते श्लिष्टकृत्युनात् शेषच्छेदो द्विसंगुणः।
तद्वर्गदल संश्लिष्टहृति शुद्धिकृति क्षयः॥ [3]

माना किसी संख्या   का वर्गमूल निकालना है जहाँ Q पूर्णवर्ग नहीं है। यदि, a1, a2, a3 क्रमशः अधिक शुद्ध वर्गमूल हों तो, इसे तीन चरणों में निम्न प्रकार से किया जा सकता है-[4]

  • प्रथम चरण: Q को निम्नलिखित प्रकार से लिखें।
 
  • दूसरा चरण:
 
  • तीसरा चरण:
 

अर्थात्

 
उदाहरण

माना 889 का वर्गमूल निकालना है। हम पहले a1 = 29, b = 48 लेते हैं तो,

 

889 का वर्गमूल लगभग 29,8160303 है। अतः उपरोक्त परिणाम दशमलव के 4 अंकों तक शुद्ध है। अब हम a1 = 30, b = -11 लेकर देख सकते हैं कि अधिक शुद्ध परिणाम मिलता है-

 

यह परिणाम दशमलव के 6 अंकों तक शुद्ध है।

रचनाकाल संपादित करें

२०१७ में, इस पाण्डुलिपि से ३ नमूने लेकर उनका रेडियोकार्बन विश्लेषण किया गया। इससे मिले परिणाम इस अर्थ में आश्चर्यजनक हैं कि इन तीन नमूनों की रचना तीन अलग-अलग शताब्दियों में हुई थी- पहली की 224 ई॰ – 383 ई॰, दूसरी की 680–779 ई॰, तथा तीसरी की 885–993 ई॰। इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पा रहा है कि विभिन्न शताब्दियों में रचित पन्ने एक साथ जोड़े जा सके।[5]

कुछ प्रमुख तथ्य संपादित करें

 
बख्शाली पाण्डुलिपि में शून्य
  • शून्य को एक बिन्दु (dot) के रूप में निरूपित किया गया है और इसे 'शून्यस्थान' कहा गया है। आगे चलकर इसे 'शून्यबिन्दु' कहा जाने लगा (देखिए, वासवदत्ता)।

बख्शाली पाण्डुलिपि में संख्याओं को लिखने के लिये स्थानीय मान (place value) प्रणाली का उपयोग किया गया है। और कुछ नहीं (शून्य) मान के लिये एक बिन्दु का उपयोग किया गया है। इसे 'शून्य-बिन्दु' कहा जाता था। इस संकल्पना का उल्लेख सुबन्धु के वासवदत्ता में मिलता है। मान सिंह ने वासवदत्ता का रचनाकाल 385 ई से 465 के बीच अनुमानित किया है।

सन २०१७ के पहले (जब तक कार्बन-डेटिंग नहीं हुई थी) तब तक [[मध्य प्रदेश] के ग्वालियर के ९वीं शताब्दी के एक मन्दिर की दीवार पर बने शून्य के चिह्न को ही शून्य के प्रयोग का सबसे प्राचीन उदाहरण माना जाता था।

  • अज्ञात संख्या (जिसे आजकल x लिखा जाता है) को भी बिन्दु द्वारा निरूपित किया गया है।
  • भिन्नों का निरूपण भी उसी तरह किया गया है जैसे आज किया जाता है, अर्थात् अंश के नीचे हर लिखकर (किन्तु बीच की रेखा का का उपयोग नहीं किया गया है।)

सन्दर्भ संपादित करें

  1. "How India's invention of zero helped create modern mathematics". मूल से 7 जनवरी 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 अक्तूबर 2017.
  2. "The Bakhshali manuscript". मूल से 9 अगस्त 2007 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 6 जून 2010.
  3. Square Root Formula in Bakhshali Manuscript Archived 2015-04-20 at the वेबैक मशीन (M. N. Channabasappa)
  4. "Négyzetgyökszámítás". मूल से 22 जुलाई 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 17 जुलाई 2015.
  5. "Carbon dating finds Bakhshali manuscript contains oldest recorded origins of the symbol 'zero'" Archived 2017-09-14 at the वेबैक मशीन. Bodleian Library. 2017-09-14. Retrieved 2017-09-14.

इन्हें भी देखें संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें