बरनवाल

बरनवाल एक भारतीय सूर्यवंशी समुदाय है। बरन नगर जो आज का बुलंदशहर है। यह बरनवाल समुदाय का प्राचीन श

बरनवाल (वर्णवाल, बर्नवाल, बर्णवाल के रूप में भी प्रतिष्ठित) एक हिन्दू वैश्य समुदाय है जो राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, छत्तीसगढ़, गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड सहित पूरे उत्तरी, मध्य और पश्चिमी भारत में पाया जाता है।[1] बरनवाल जाति अग्रवाल, पोद्दार, माहेश्वरी , जाति की तरह उच्च वैश्य समुदाय के होते है।[2]

बरनवाल
विशेष निवासक्षेत्र
भारत, नेपाल
भाषाएँ
हिन्दी, मारवाड़ी, पंजाबी , अंग्रेजी, इत्यादि
धर्म
हिन्दू, जैन

बरनवाल समुदाय के सदस्य अपने व्यावसायिक कौशल के लिए जाने जाते हैं और कई वर्षों से भारत में प्रभावशाली और समृद्ध रहे हैं।[3] बरनवाल जाति अपने इतिहास को भूल व्यवसाय करने लगी है[3] बरनवाल जाती के लोग व्यावसाय मे बहुत समय से अलग-अलग उपनाम पर सामिल है, बहुत बरनवालों ने अपने गोत्र को अपना नाम बना लिया है।[4]

किंवदंती संपादित करें

बरनवाल पौराणिक सूर्यवंश के राजपूत राजा अहिबरन से वंशज हैं।[4] वस्तुतः, बरनवाल का अर्थ है "अहिबरन के बालक" या "बरन के रहने वाले", उत्तर प्रदेश का बरन जिला जो वर्तमान समय मे बुलंदशहर के नाम से जाना जाता है,[5] जिसे महाराजा अहिबरन ने स्थापित किया था। बरनवाल समाज में बिधायक, राज नेता, प्रशासनिक पदाधिकारी,चिकित्सक ,अभियंता, समाजसेवी,पत्रकार, ब्यापारी है जैसे :- त्रिवेणी बरनवाल ,भुवनेश्वर बरनवाल,बिंधयाचल बरनवाल,डा0 सुनील बरनवाल डा0 श्री प्रकाश बरनवाल,बरूण बरनवाल, बिश्वनाथ मोदी,बद्री नारायण बरनवाल,मुन्ना बरनवाल,बिरंची लाल बरनवाल आदि.[6]

इतिहास[7] संपादित करें

बरन वालों का इतिहास प्रमाणिक रूप से महाराजा अहिबरन और शहर बरन से संबंधित है। ऐतिहासिक ग्रंथों के आधार पर यह तो तय है की समस्त बरन वाल शहर बरन से निकले हैं। यह भी स्थापित तथ्य है कि शहर बरन की स्थापना महाराजा अहिबरन ने की थी। लेकिन इसके आगे बढ़ना इतना आसान नहीं होता है। कारण ये है कि महासभा के गठन के बाद शुरू के कुछ दशकों को छोड़ दें तो कोई भी शोध कार्य इस विषय पर नहीं किया गया है। जाति रत्न त्रिवेणी प्रसाद बरनवाल, श्री जगदीश बरनवाल "कुंद",स्व० श्री कृष्णचन्द्र बरनवाल, स्व0 भोलानाथ गुप्ता बरनवाल इत्यादि ने इस विषय पर काफी कुछ लिखा है लेकिन उन्होंने भी इस विषय में और अधिक शोध की आवश्यकता बतलाई है।

2. इतिहास की संक्षिप्त जानकारी की दृष्टि से मैं बरन वालों के इतिहास को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है।

·        बरन वालों का प्राचीन इतिहास(997 ईस्वी तक): जिसके बारे में फिलहाल बहुत ज्यादा तथ्य मौजूद नहीं हैं।

·        मध्यकालीन इतिहास(997 ईस्वी से लेकर 1881 ईस्वी तक): यह एक अंधकार युग है, जिसमें बरन वालों की सबसे ज्यादा क्षति भी हुई और बरन वालों की अलग पहचान भी स्थापित हुई। लेकिन इसके विषय में भी दो चार घटनाओं को छोड़ कर ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है।

·        1881 ईस्वी से लेकर अभी तक का आधुनिक इतिहास: इसे भी समझने के दृष्टि से दो तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है।

3. प्राचीन इतिहास: शहर बरन (बुलंद शहर) के जिलाधीश रहे श्री F S ग्राउज ने महाराजा अहिबरन के होने पर भी संशय किया है। लेकिन महाराजा अहिबरन का अस्तित्व इतिहास के उद्धरणों में भरा हुआ है। बुलंद शहर जिला कार्यालय द्वारा नुमाइश हॉल में लगाई गई शिला पट में इस बात का जिक्र है कि शहर बरन की स्थापना (महा)राजा अहिबरन ने की थी। महाराजा अहिबरन के विषय में भी कई मान्यताएं और परंपराएं प्रचलित हैं।

3.1 पं0 ज्वाला प्रसाद शास्त्री कृत "जाति भास्कर" के अनुसार समाधि के दो पुत्रों गुणाधीश और मोहन में से गुणाधीश के दो पुत्र हुए धर्मदत्त और शुभंकर। शुभंकर ने अपनी जाति से अलग होकर पेरी नगरी में अपना निवास किया। पीछे ये कांचनपुर में आकर शंखनिधि वैश्य का मंत्री हुआ। शंखनिधी की पुत्री चंद्रावती से इसका विवाह हुआ जिसे लेकर ये कावेरी नदी को पार कर के अपने स्थान पर आया जहां शिव के आशीर्वाद से इसे तेंदूमल नामक पुत्र हुआ जिसका पुत्र वाराक्ष और जिसके वंश में बरनवाल नामका बड़ा बुद्धिमान पुत्र हुआ। इस वंश में पुरुषों द्वारा 36 कुल प्रतिष्ठित हुए। शास्त्री जी की ही दूसरी परम्परा के अनुसार द्वाराक्ष नामक राजा की राजधानी बरन थी। यहां जो उसकी संतानें हुईं सो बरनवाल कहलाईं।

3.2 राजा लक्ष्मण सिंह अपने लेख में लिखते हैं कि महाभारत युद्ध के दो, तीन पीढ़ियों के बाद अहार के सरदार का सादर मुकाम अहार से उठ कर बनछती जिसे जंगल काट कर बनाया गया था में स्थापित हुआ। फिर कुछ समय पश्चात परमाल तंवर(तोमर) ने उसी स्थान पर एक नया कस्बा बसाया। बाद में राजा अहिबरन ने इसे बढ़ा कर शहर के समान किया जो बरन के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

3.3 सूचना विभा उ प्र से प्रकाशित पुस्तिका "प्रगति के बढ़ते चरण:बुलंदशहर" में भी इस बात का उल्लेख है कि इस शहर का इतिहास ग्राम आहार से प्रारंभ होता है जो हस्तिनापुर के उजड़ने के पश्चात पांडवों की राजधानी रहा था। आहार का अर्थ शायद सांपों के मारे जाने से था। संभवतः यहीं जन्मेजय ने नागवंश को खत्म करने के लिए नाग यज्ञ किया था। जन्मेजय ने वन छटी को साफ कर के नगरी बसाई। रखा परमाल ने यहां एक किला बनवाया और फिर राजा अहिबरन ने यहां बरन नामका नगर बसाया।

3.4 1871 ईस्वी में प्रकाशित भारतेंदु हरिश्चंद्र की पुस्तक अग्रवालों की उत्पत्ति में अग्रवालों की वंश परंपरा के लिए मुख्य आधार श्री महालक्ष्मी व्रत कथा को बनाया गया था। इसकी एक परंपरा में समाधी के दो पुत्रों में प्रथम पुत्र गुणाधीश से बरन और द्वितीय पुत्र मोहन से अग्रसेन की उत्पत्ति दिखाई गई है। श्री महालक्ष्मी व्रत कथा के बारे में श्री सत्यकेतु विद्यालंकार का कहना था कि इसे हस्तलिखित रूप में भारतेंदु जी के पुस्तकालय में पाकर उन्होंने ही प्रकाशित करवाया था। डॉ0 परमेश्वरीलाल गुप्त का कहना है कि भविष्य पुराण के किसी भी अंक में इस कथा का उल्लेख नहीं है। महालक्ष्मी व्रत कथा को प्रमाणिकता को भी श्री गुप्त अस्वीकार करते हैं।।श्री कृष्णचंद्र बरनवाल और श्री मक्खनलाल बरनवाल ने महाराजा अग्रसेन से बरनवाल परंपरा का प्रदुर्भव दिखाया है लेकिन वंशावली के संबंध में कोई भी स्त्रोत के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है। दूसरी बात की इन सज्जनों द्वारा प्रस्तुत वंशावली और श्री महालक्ष्मी व्रत कथा में दी गई वंशावली में कोई मेल नहीं है।

3.5 बुलंदशहर गजेटियर में यह संभावना व्यक्त की गई है कि संभवतः आहार और बरन दोनो नगरों में शासन करने के कारण संबंधित शासक ने अहिबरन की उपाधि धारण की थी।

3.6. कुल मिलाकर यह तो तय है कि महाराजा अहिबरन शहर बरन के संस्थापक और बरन वालों के आदिपुरुष थे, लेकिन उनके पूर्व के बारे में मतांतर है। राहुल सांकृत्यायन ने बरनवालों को यौधेय गण की संतान बताया है। यौधेय गण आज के पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली इत्यादि इलाकों में फैला एक शक्तिशाली गण था जिसकी चर्चा इतिहास की किताबों में मिलती है। इतिहास यह प्रमाणिक रूप से बताता है कि इस इलाके में तकरीबन 4थी शताब्दी तक यौधेयों का शासन था। इसलिए राहुल संकृत्ययायन का यह कहना कि बरनवाल यौधेयों की संतान हैं, गलत नहीं है। डॉ० रामवृक्ष सिंह के अनुसार यौधेय युद्ध प्रिय गण जाति थी. पाणिनि ने यौधेयों के लिए आयुधजीवी संघ का प्रयोग किया है, जिनके लिए वीरता परम धर्म था.  यौधेयों का साम्राज्य एक समय में आधुनिक भरतपुर तक फैला हुआ था. इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि बरन वाल जो यौधेयों के संतान कही जाती हैं, का इतिहास वीरता पूर्ण रहा है. इसे जब हम बरन वालों की कुलदेवी माता चामुंडा के परिपेक्ष्य में देखते हैं तो बात ज्यादा साफ़ होती है. एक आयुधजीवी जाति की कुलदेवी माता चामुंडा ही हो सकती हैं.

4. मध्यकालीन इतिहास: महाराजा अहिबरन  के वंशज बरन में एक के बाद एक राज करते रहे और 997 ईस्वी में बरन के राजा रुद्रपाल के समय तक यह शासन अनवरत चलता रहा, जब अलीगढ़ के राजा हरदत्त डोर ने दिल्ली के राजा की सह से बरन पर आक्रमण कर दिया और रुद्रपाल की हत्या कर के खुद गद्दी पर बैठ गया। अलीगढ़ छोड़ कर बरन को अपना प्रधान स्थल बना लेने की घटना से भी यह अंदाज लगाया जा सकता है कि बरन एक समृद्ध राज्य हुआ करता था। लेकिन फिर महमूद गजनवी के आक्रमण शुरू हुए। अल बरूनी के लेखन से हमें पता चलता है कि महमूद गजनवी के 12वें हमले में बरन पर हमला किया गया था। राजा हरदत्त डोर ने अपने दस हजार लोगों के साथ किले से बाहर निकल कर इस्लाम अपना कर अपनी और बरन की भी रक्षा की थी। कुछ सन्दर्भों के अनुसार महमुद गजनवी ने हरदत्त डोर की हत्या कर दी थी और बरन में भारी लूट पाट की थी. 1191 ईस्वी में पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गोरी से बरन की रक्षा की थी. लेकिन 1192 ईस्वी में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद मुहम्मद गोरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने बरन पर हमला किया और बरन के राजा चन्द्रसेन डोर की ह्त्या कर दी तथा शहर की बागडोर गोरी के मित्र काजी नरुद्द्दीन ग़जनीवाल को सौंप दी. लेकिन बरन वालों पर असली परीक्षा की घड़ी आई जब मुहम्मद तुगलक ने 14वीं शताब्दी में इसपर हमला किया। इस समय बरन वालों पर इस्लाम अपनाने, वरना मरने या फिर शहर छोड़ देने के अलावा कोई चारा नहीं बच गया था। संघर्ष में बरन वालों के 100 प्रधान पुरुषों के सर काट कर किले से लटका दिए गए थे। इससे आतंकित होकर बरनवालों ने अपनी जन्मभूमि का त्याग करने का निर्णय कर लिया। कई बरन वाले मुस्लिम भी बन गए जिन्हें आजकल बरनी मुस्लिम के नाम से जाना जाता है और बरन में उन्हें आप बहुतायत में पाएंगे। विद्वानों का मत है कि शहर में हुए अत्याचार से ये लोग इतने आतंकित थे कि उन्होंने गांवों को ज्यादा सुरक्षित समझा और इसलिए गांवों का अपना ठिकाना बनाया। शायद काली(कालिंदी) नदी जिसे पहले वरणावती नदी के नाम से जानते थे, के रास्ते ये लोग शहर छोड़ कर निकले थे और इस कारण काली नदी और फिर गंगा के किनारे बसते गए। इसके बाद सन 1881 ईस्वी तक के बारे में हमें कोई विशेष जानकारी नहीं है। 16वीं शताब्दी के अंतिम समय में बादशाह अकबर ने परगना बरन की कानूनगोई बरनवालों को दी थी और लाला संतोषराय इस वंश के प्रथम कानूनगोय हुए थे. 250 सालों तक यह पद इसी वंश के पास रहा. औरंगजेब के समय में इसी वंश के काले राय मुसलमान होकर अजमत उल्ला हुए जिन्हें इनाम के तौर पर नवाब की पदवी और 84 गांव की जागीर दी गयी. इनकी हिन्दू संतानें फतहचन्द और गोपीनाथ और पोते हकीकत राय हिन्दू ही रहे और लज्जित होकर कहीं चले गए. काले राय की मुसलमान संतान मुहम्मद हयात और मुहम्मद रोशन के वंश की भारी वृद्धि हुई. 1876 में बरनवाल मुसलमान मु ० शहाबुद्दीन, नवाब, माशूक अली खान और बाद में नवाब आशिक हुसैन खान आनरेरी मजिस्ट्रेट , शेख अंसारी इत्यादि का जिक्र मिलता है. 1798 में शहर बरन से मालागढ़ तक एक मरहटा सरदार माधवराव फालकिया का अधिकार हुआ. किन्तु 1804 में कर्नल जेम्स स्किनर ने उसे हरा कर उसके 28 गांव जब्त करके उससे किला बरन और मालागढ़ खाली करवा लिए और कुछ वजीफा देकर उसके लड़के रामाराव फलाकिया को उसके 600 सवार साथियों के साथ कंपनी की सेना में शामिल कर लिया था.  कहा जाता है कि कहा जाता है कि अनूप शहर की स्थापना करने वाले राजा अनूप राय जिन्होंने जहांगीर को शेर से बचाया था महाराजा अहिबरन के वंशज ही थे.  बरनवाल शीतल दास ने 1830 ईस्वी में शहर बरन का एक मोहल्ला शीतलगंज बसाया था. बरनवाल वकील बाबू रामनारायण ने सन 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में 1000 सैनिकों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। बिसौली के किले में स्वयं पेशवा नाना साहेब ने इन्हें खान बहादुर/कर्नल की उपाधि दी थी। इन्होनें पहली दो लड़ाईयों में अंग्रेज़ों को कड़ी शिकस्त दी परन्तु इस्लामनगर की तीसरी लड़ाई में सात जून सन 1858 को अंग्रेजों से लोहा लेते समय ये वीरगति को प्राप्त हुए।

5. आधुनिक इतिहास: 14वीं शताब्दी में जब मुहम्मद तुगलक के आतंक और जबरन धर्म परिवर्तन के कारण बरन वालों को अपना नगर त्यागना पड़ा तो वो पूर्व की तरफ कूच कर गए। चूंकि मुसलमान आक्रमणकारियों का मुख्य आक्रमण शहरों पर होता था इसलिए उन्होंने गांवों को आसरा बनाना ज्यादा मुफीद समझा। धीरे धीरे एक जगह से दूसरे जगह बरनवाल फैलते गए। उस समय यातायात और डाक के साधन आज की भांति नहीं थे। इसलिए उनमें आपस में संबंध भी धीरे धीरे टूटते गए। कालांतर में नाम में भी फर्क पड़ने लगा। बरनवाल, बनवार, बंदरवाल, बंदरवार, बरैया, बरवार, वर्णवाल, बर्नवाल, मोदी, गर्ग, गोयल, बंसल, पांडे, सिंह, सिन्हा इत्यादि नाम प्रचलन में आ गए। कहने का मतलब है की विभिन्न स्थानों के बरन वालों में नाम और संपर्क दोनो में अंतर आ गया। फिर ब्रिटिश शासन का आविर्भाव हुआ और सड़क, रेल इत्यादि के साधन सामने आए, डाक की व्यवस्था बनी। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को असभ्य करार दिए जाने के कारण भारतीय राष्ट्रीयता के प्रति नया आकर्षण पैदा हुआ और भारतीय विभूतियों ने देश के स्वर्णिम इतिहास की तरफ सबका ध्यानाकर्षण किया। साथ ही अंग्रेजों की जाति आधारित व्यवस्था जिसमें हरेक भारतीय को उसके जाति के साथ पहचान दी गई, जाति के तरफ नया आकर्षण पैदा हुआ। यहां यह बताना जरूरी है कि जातिव्यवस्था भारतीय समाज में पहले से ही थी, लेकिन जैसा समाजशास्त्रियों का विचार है, ये कोई सॉलिड स्ट्रक्चर नहीं था और अक्सर छोटी जातियों को ऊंची जातियों में शामिल किया जाना संभव था। लेकिन जब अंग्रेज भारतीयों पर राज करने के लिए यहां के स्ट्रक्चर को समझना चाहते थे तो उन्होंने प्राकृतिक रूप से ब्राह्मणों और ब्राह्मण टेक्स्ट को आधार बनाया। इस तरह से भारतीय समुदाय को बिल्कुल सॉलिड , कंक्रीट जातियों में विभक्त कर दिया गया। हरेक जाति को जब पता चला कि उन्हें कागजों में ऊंचा और नीचा लिखा जाना है, सभी जातियां अपने आप को ऊंचे से ऊंचा दिखाना चाहती थीं (मैला आंचल में इसकी बानगी आप पाएंगे)। इन कारणों से जातियों ने अपने आपको ज्यादा संगठित करना शुरू किया। यह आश्चर्य नहीं कि ज्यादातर जातीय महासभाएं इसी दौरान बनी थीं।

5.2 इस स्थिति में पश्चिम उत्तर प्रदेश के बरन वालों ने सबसे पहले 1881 में मुरादाबाद के जरगांव में एक बैठक की और एक समिति गठित की। मुंशी तोताराम जी, मुरादाबाद ने बरनवाल उपकारक नाम की एक उर्दू पत्र का भी प्रकाशन किया। 1895 में सहारनपुर में चतुर्थ बरनवाल वैश्य सम्मेलन हुआ। लाला लक्ष्मण प्रसाद, जरगांव, लाला विष्णु दयाल और लाला भगवती प्रसाद, बरन, मुंशी दुर्गा प्रसाद, मुरादाबाद ने पूर्व और पश्चिम के बरन वालों से पत्र व्यवहार करना शुरू किया और 1905 में वाराणसी में 26 और 27 दिसंबर को बाबू बासुदेव प्रसाद और बाबू गंगा प्रसाद रईस, रसड़ा, बलिया की कोठी में गौरीशंकर लालजी रईस, रसड़ा की अध्यक्षता में 120 बरन वालों की बैठक हुई। इस बैठक में बदायूं, दलसिंह सराय, हाजीपुर, मुंगेर, रसड़ा, जफराबाद, सहसराव, आजमगढ़, मऊ, बनारस, बरन, संभल, सरायतरीन, मुरादाबाद से बरन वाल शामिल हुए थे। प्रथम बैठक में ही एक नाम बरनवाल नाम प्रयोग में लाने की बात की गई थी। श्री भारतवर्षीय बरनवाल वैश्य सभा का जन्म भी इसी बैठक में हुआ था।

5.3 महासभा के गठन के बाद बरन वालों को एक करने पर, समाज सुधार इत्यादि पर काफी कार्य हुए. इन सब की जानकारी दूसरे लेखों "बरनवाल समुदाय में समाज सुधर" और "बरनवालों के राष्ट्रिय एकता" में मिलेगी.

6. अभी तक उपलब्ध जानकारियों से यह तो तय है कि बरनवालों का अतीत और वर्तमान दोनो गौरवशाली हैं। एक बात जो बरनवालों को दूसरे वैश्य समुदायों से ऊंचे पायदान पर बिठाती है वो है उनके पास एक सशक्त डॉक्यूमेंटेड इतिहास का होना।  अन्य किसी भी वैश्य समुदाय के पास अपने पूर्वजों के किले के अवशेष नहीं हैं। किवदंतियों से आगे बढ़ कर बरनवालों के पास एक प्रमाणिक इतिहास मौजूद है जिस पर हर बरन वाल गर्व कर सकता है। लेकिन फिर भी इतिहास के बहुत सारे पहलू हैं जिन पर अभी भी अंधकार की छाया पड़ी हुई है। जैसे, महाराजा अहिबरन के काल का निर्धारण, उनके बाद और उनके पहले की कड़ियां। बरन से पलायन के बाद बरनवालों की कथाएं। कहने का तात्पर्य ये है कि इतना सबकुछ होने के बाद भी अभी ऐसा बहुत कुछ है जिस पर शोध किया जाना बाकी है। इसी कारण से बरनवाल इतिहास प्रोजेक्ट की शुरुआत की गई है, जिसमें बरन वालों के इतिहास का प्रमाणिक संदर्भों के साथ संकलन किया जाना है। आशा है यह प्रोजेक्ट बरनवालों के गौरवशाली इतिहास के और बहुत सारे पहलुओं को उजागर करने में सफल होगा। (अतुल कुमार बरनवाल की पुस्तिका "बरनवालों के इतिहास की एक झलक" से उद्धृत)

बरनवालों की कुलदेवी[8]: संपादित करें

स्व0 भोलानाथ गुप्ता की 1937 की पुस्तक में बरनवालों के कोई 54 कुल/लकब/अल्ले की चर्चा है। हर कुल के बारे में लिखते समय स्व0 गुप्ता उनके कुलदेवता और कुलदेवी की भी चर्चा करते हैं। इन सभी कुलों की कुलदेवी माता चामुंडा लिखी गई हैं।  इससे यह कहना उचित होगा कि बरनवालों की कुल देवी माता चामुंडा हैं। बरन के बगल में है कर्णवास, जिसके बारे में किवदंती है कि यहां राजा कर्ण हर दिन उबलते कड़ाहे में कूद कर अपनी आहुति माता चामुंडा को देता था। माता चामुंडा हर दिन उसे जीवित कर के उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसे सवा मन सोना देती थी जिसे वो जनता में बांटा करता था। इस कहानी से यह पता चलता है कि माता चामुंडा का कर्णवास का मंदिर महाभारत काल का है। यह कोई आश्चर्य नहीं कि इस इलाके में रहने वाले बरन वालों की कुलदेवी भी माता चामुंडा ही हों। बरन के देवीपुरा में भी माता चामुंडा का प्राचीन मंदिर है। बरन के आस पास अनूपशहर(जिसकी स्थापना भी महाराजा अहिबरन के वंशज राजा अनूप राय ने की थी) और दूसरे जगहों में भी माता चामुंडा के मंदिर विद्यमान हैं। कुलदेवी के बारे में यह कहा जाता है कि उनका मूल मंदिर उस जगह जरुर होना चाहिए जहां से कुल की उत्पत्ति हुई है। इस हिसाब से भी माता चामुंडा  हमारी कुलदेवी होती हैं। कुलदेवी कुल की प्रथम पूज्या मानी जाती हैं। पलायन, इतिहास लेखन के अभाव में, आक्रांताओं के डर से पहचान छुपाने के कारण और आजकल के समय में मूल से कट जाने के कारण अक्सर लोग कुल देवी के बारे में भूल जाते हैं। कुछ ऐसा ही बरन वालों के साथ भी हुआ है।

3.वैसे गूगल करेंगे तो चोटिला, गुजरात में और हिमाचल के कांगड़ा में भी माता चामुंडा के मंदिर अवस्थित है।

4.माता चामुंडा दरअसल माता पार्वती का एक काली अवतार ही हैं जिन्होंने चंड और मुंड नाम के असुरों का वध किया था इसलिए उनका नाम चामुंडा पड़ा था। अध्यात्म में चंड प्रवृत्ति और मुंड निवृति का नाम कहा जाता है और माता चामुंडा अर्थात जगदम्बा प्रवृत्ति और निवृति दोनो से छुटकारा दिलाती हैं और मोक्ष प्रदान करती हैं, इसलिए उन्हें माता चामुण्डा कहा जाता है।

5.वैसे कहा जाता है कि बरन के बलाई कोट के लिए में भी एक काली मंदिर अवस्थित था जिसे मध्य काल में काली मस्जिद बना दिया गया था। आज भी बलाई कोट के किले के भगनवशेषों के सामने आप इस काली मस्जिद को देख सकते हैं।

6.इसलिए यह तय है कि माता चामुंडा ही बरनवालों की कुलदेवी हैं।

7.माता चामुंडा का कल्याणकारी मंत्र है

"।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ।।"

बरनवालों में लक़ब[9] संपादित करें

लक़ब एक उर्दू शब्द है जिसका अर्थ है उपाधि या पदवी. बरनवालों में 36 लक़ब कहे जाते हैं जो सब के सब प्रांतीय शब्द हैं. दरअसल बरन से पलायन के बाद विस्थापित बंधू जहां जहां बेस स्थान, व्यापार इत्यादि के हिसाब से उनके लक़ब प्रसिद्द हो गए. कुछ लोगों का मत है की लक़ब गोत्र से सम्बंधित हैं. स्व0  भोलानाथ गुप्ता अपनी पुस्तक में 54 लक़ब बताते हैं.

ये लक़ब हैं: लाला वाले, बख्शी जी, हकीम जी, कानूनगोय, पिण्डारे, मोदी, कांकिया, अतरासीवाले, चिकटिया, महलवाले, निपेडिया, बेरिया, सतपुत्रा, गुहिया, खोपडिया,मुत्सद्दी, गुंढेले, लेंडिया, इमिलिया, कटारिया, कोट वाले, चौधरी, पटवारी, ,बड़ वाले, बरैया, जौन पुरिया, काशिजिया, कठेरिया, सौन पुरिया, बबुकसिया, मालहन, पटसरिवा, मनिया, नागर, नैरचिया, लोखरिया, खेलाउन, ककरिया, बाजाज, ठेलरिया, म नहरिया, सरोतन, सीमरिया, जैरवरिया खरबसिया, पांच लोखरिया, कुलीन, रुपीहा, मिरीचीहा ,  ठेकमनिया, मकरिया, सूरत, गंजवाले .

बरनवालों के पुरोहित:[10] संपादित करें

बरनवालों के पुरोहित गौड़ ब्राह्मण कहे जाते हैं.

गोत्र संपादित करें

1. अहिबरन् दश पुत्रान् द्वादश पौत्रान् च आवाहयत् ।

2. प्रत्येकं पौत्रात् एकेन मुनिना सह यज्ञः कृतः।

3. तस्मिन् यज्ञे द्वे सहस्रे जनाः भागं गृहीतवन्तः ।

4. तेभ्यः द्वादशपौत्रेभ्यः बरनवालस्य द्वादश उपनामानि अस्तित्वं प्राप्तवन्तः ।

5. ये यज्ञं कुर्वन्ति तेषां एकैकं बरणपुत्रैः सह द्वादश उपनामभिः अलङ्कृताः ।

बरनवालों के गोत्र[11][12]

बजाज, ढेक, सेठ, मोदी, मकरिया (मकरीया), सम्भलपुरिया, पंचलोखरिया (पंचलोखरीया), जेरफुरिया (जेरफुरीवा), सेरातन ( सरोतन), लोखरिया (लोखरीया), अतरासीवाल, बेरिया (बैरिया, वेरीया), कठारिया (काठरिया, कटारिया ), कुलीन (कुलीनमुरत), मोदी, जपखरिया (जैखरीया), सोनपुरिया (सोनपुरया), नैरचैया (नेरचैया), खरवसया, वदऊआ (वदउया), रुपिहा (रूपीहा ), कसाजिआ (कशिजिया, कासाजीया ), टेकमनियाँ ( टेक मनिया), मिरीचिया (मीरीचीया), धगर, नकवरियाँ, मनहरिया, बबुकनसिया (ववुकनसीया), खेलावन ( खेलाउन), ठेलरिया (ठेलरीया), ककरिया (ककरीया), बक्शी, सिमरिया, गुंधेले, लाला, नागर, इमिलिया, गुहिया, कोटवाले, लेडिया, चिकरिया, सत्पुत्र, पिंडार, गोयल, कांकिया, कनुंगोय, कटरावाले, पटवारी, कठैरिया, मालहन, पुरवार, चौधरी (चौधरिया, चौधरीया), मनिया (मनीया), ढिगा, ठग, पटसरिया (परसारिया, पठसरिया), बैद्य या हकीम, मोरिल, बटराज (वटराट), मुसद्दी नमलीन।

सोलह आना और पंद्रह आना भेद संपादित करें

अक्सर विभिन्न लोगों में किसी एक जगह के बरनवालों को शामिल किए जाने को लेकर विवाद होता रहता था। जैसे दलसिंह सराय के बरनवालों से संबंध को लेकर भारी विवाद था और तलवार और बंदूकें भी तान ली गई थीं। उस समय एक कांसेप्ट था 16 आना, 15 आना, 14 आना। इसका मतलब रक्त की शुद्धता से था। 16 आना बरनवाल असल बरनवाल थे। कई बार महासभा किसी को 15 आना, किसी को 14 आना घोषित कर देती थी। इन विभिन्न जगहों के बरनवालों में आपस में रोटी बेटी का संबंध भी नहीं होता था। इसके लिए भी काफी कोशिश करनी पड़ी थी। शायद 1925 में पूर्व और पश्चिम के बरन वालों में वैवाहिक संबंध शुरू हुए थे। दलसिंह सराय के बरनवालों से रोटी बेटी का संबंध बनाना मुंगेर के बरन वालों को स्वीकार नहीं था। और इसके लिए काफी जद्दो जहद हुई थी। 1920 में पहली बार मुंगेर और दलसिंह सराय के बीच में वैवाहिक संबंध हुए थे। इसी समय तलवारें और बंदूकें तनी थीं। महनार के लोगों को मिलाने के खिलाफ गया वाले थे और 1920 में महनार के बरनवालों को नहीं मिलाया गया था। 1923 में महनार ग्रुप की जांच के लिए जांच कमीशन नियुक्त किया गया था। मालदह ग्रुप, बृजमन गंज के लिए भी इसी समय जांच कमीशन नियुक्त किया गया था। 1925 में मालदह ग्रुप के द्वारा प्रस्तुत प्रमाण बरनवाल चंद्रिका में प्रकाशित किया गया और तीन महीने में कोई ऑब्जेक्शन नहीं आने पर ही उनको शामिल करने की बात की गई थी। इसी वर्ष महनार और बृजमनगंज को शामिल करना स्वीकार किया गया। महनार ग्रुप को शामिल करने की घोषणा करने पर गया के लोगों ने महासभा छोड़ने की बात की और इस कारण से उन्हें जाति बहिष्कृत कर दिया गया था। और महनार ग्रुप को मिलाने के विरोध में गया, दलसिंह सराय के लोग महासभा से अलग हो गए। यह आश्चर्य है की पहले मुंगेर वाले दलसिंह सराय से संबंध के विरोध में थे, बाद में दलसिंह सराय वाले महनार को मिलाने के विरोध में थे। 1925 में बेतिया ग्रुप की जांच के लिए कमिशन नियुक्त किया गया था।


बरन वालों की राष्ट्रीय एकता[13] संपादित करें

14वीं शताब्दी में जब मुहम्मद तुगलक के आतंक और जबरन धर्म परिवर्तन के कारण बरन वालों को अपना नगर त्यागना पड़ा तो वो पूर्व की तरफ कूच कर गए। चूंकि मुसलमान आक्रमणकारियों का मुख्य आक्रमण शहरों पर होता था इसलिए उन्होंने गांवों को आसरा बनाना ज्यादा मुफीद समझा। धीरे धीरे एक जगह से दूसरे जगह बरनवाल फैलते गए। उस समय यातायात और डाक के साधन आज की भांति नहीं थे। इसलिए उनमें आपस में संबंध भी धीरे धीरे टूटते गए। कालांतर में नाम में भी फर्क पड़ने लगा। बरनवाल, बनवार, बंदरवाल, बंदरवार, बरैया, बरवार, वर्णवाल, बर्नवाल, मोदी, गर्ग, गोयल, बंसल, पांडे, सिंह, सिन्हा इत्यादि नाम प्रचलन में आ गए। कहने का मतलब है की विभिन्न स्थानों के बरन वालों में नाम और संपर्क दोनो में अंतर आ गया। फिर ब्रिटिश शासन का आविर्भाव हुआ और सड़क, रेल इत्यादि के साधन सामने आए, डाक की व्यवस्था बनी। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को असभ्य करार दिए जाने के कारण भारतीय राष्ट्रीयता के प्रति नया आकर्षण पैदा हुआ और भारतीय विभूतियों ने देश के स्वर्णिम इतिहास की तरफ सबका ध्यानाकर्षण किया। साथ ही अंग्रेजों की जाति आधारित व्यवस्था जिसमें हरेक भारतीय को उसके जाति के साथ पहचान दी गई, जाति के तरफ नया आकर्षण पैदा हुआ। यहां यह बताना जरूरी है कि जातिव्यवस्था भारतीय समाज में पहले से ही थी, लेकिन जैसा समाजशास्त्रियों का विचार है, ये कोई सॉलिड स्ट्रक्चर नहीं था और अक्सर छोटी जातियों को ऊंची जातियों में शामिल किया जाना संभव था। लेकिन जब अंग्रेज भारतीयों पर राज करने के लिए यहां के स्ट्रक्चर को समझना चाहते थे तो उन्होंने प्राकृतिक रूप से ब्राह्मणों और ब्राह्मण टेक्स्ट को आधार बनाया। इस तरह से भारतीय समुदाय को बिल्कुल सॉलिड , कंक्रीट जातियों में विभक्त कर दिया गया। हरेक जाति को जब पता चला कि उन्हें कागजों में ऊंचा और नीचा लिखा जाना है, सभी जातियां अपने आप को ऊंचे से ऊंचा दिखाना चाहती थीं (मैला आंचल में इसकी बानगी आप पाएंगे)। इन कारणों से जातियों ने अपने आपको ज्यादा संगठित करना शुरू किया। यह आश्चर्य नहीं कि ज्यादातर जातीय महासभाएं इसी दौरान बनी थीं। जैसे यादव महासभा का शताब्दी समारोह अभी मनाया जा रहा है। इस स्थिति में पश्चिम उत्तर प्रदेश के बरन वालों ने सबसे पहले 1881 में मुरादाबाद के जरगांव में एक बैठक की और एक समिति गठित की। मुंशी तोताराम जी, मुरादाबाद ने बरनवाल उपकारक नाम की एक उर्दू पत्र का भी प्रकाशन किया। 1895 में सहारनपुर में चतुर्थ बरनवाल वैश्य सम्मेलन हुआ। लाला लक्ष्मण प्रसाद, जरगांव, लाला विष्णु दयाल और लाला भगवती प्रसाद, बरन, मुंशी दुर्गा प्रसाद, मुरादाबाद ने पूर्व और पश्चिम के बरन वालों से पत्र व्यवहार करना शुरू किया और 1905 में वाराणसी में 26 और 27 दिसंबर को बाबू बासुदेव प्रसाद और बाबू गंगा प्रसाद रईस, रसड़ा, बलिया की कोठी में गौरीशंकर लालजी रईस, रसड़ा की अध्यक्षता में 120 बरन वालों की बैठक हुई। इस बैठक में बदायूं, दलसिंह सराय, हाजीपुर, मुंगेर, रसड़ा, जफराबाद, सहसराव, आजमगढ़, मऊ, बनारस, बरन, संभल, सरायतरीन, मुरादाबाद से बरन वाल शामिल हुए थे। प्रथम बैठक में ही एक नाम बरनवाल नाम प्रयोग में लाने की बात की गई थी। अखिल भारतवर्षीय बरनवाल वैश्य सभा का जन्म भी इसी बैठक में हुआ था।

इसके बाद देश के विभिन्न हिस्सों के बरनवालों को ढूंढने और उन्हें शामिल करने का कार्य शुरू हुआ। इस समय बरनवाल बनना भी मुश्किल कार्य था। महासभा कमीशन नियुक्त करती थी और ये कमीशन जगह जगह जा कर उनके खान पान, आचार विचार, कुल/लकब/अल्ले इत्यादि के बारे में जांच करती थी और फिर अगर सही पाया जाए तभी उनके बरनवाल होने को प्रमाणित करती थी। अक्सर विभिन्न लोगों में किसी एक जगह के बरनवालों को शामिल किए जाने को लेकर विवाद होता रहता था। जैसे दलसिंह सराय के बरनवालों से संबंध को लेकर भारी विवाद था और तलवार और बंदूकें भी तान ली गई थीं। उस समय एक कांसेप्ट था 16 आना, 15 आना, 14 आना। इसका मतलब रक्त की शुद्धता से था। 16 आना बरनवाल असल बरनवाल थे। कई बार महासभा किसी को 15 आना, किसी को 14 आना घोषित कर देती थी। इन विभिन्न जगहों के बरनवालों में आपस में रोटी बेटी का संबंध भी नहीं होता था। इसके लिए भी काफी कोशिश करनी पड़ी थी। शायद 1925 में पूर्व और पश्चिम के बरन वालों में वैवाहिक संबंध शुरू हुए थे। दलसिंह सराय के बरनवालों से रोटी बेटी का संबंध बनाना मुंगेर के बरन वालों को स्वीकार नहीं था। और इसके लिए काफी जद्दो जहद हुई थी। 1920 में पहली बार मुंगेर और दलसिंह सराय के बीच में वैवाहिक संबंध हुए थे। इसी समय तलवारें और बंदूकें तनी थीं। महनार के लोगों को मिलाने के खिलाफ गया वाले थे और 1920 में महनार के बरनवालों को नहीं मिलाया गया था। 1923 में महनार ग्रुप की जांच के लिए जांच कमीशन नियुक्त किया गया था। मालदह ग्रुप, बृजमन गंज के लिए भी इसी समय जांच कमीशन नियुक्त किया गया था। 1925 में मालदह ग्रुप के द्वारा प्रस्तुत प्रमाण बरनवाल चंद्रिका में प्रकाशित किया गया और तीन महीने में कोई ऑब्जेक्शन नहीं आने पर ही उनको शामिल करने की बात की गई थी। इसी वर्ष महनार और बृजमनगंज को शामिल करना स्वीकार किया गया। महनार ग्रुप को शामिल करने की घोषणा करने पर गया के लोगों ने महासभा छोड़ने की बात की और इस कारण से उन्हें जाति बहिष्कृत कर दिया गया था। और महनार ग्रुप को मिलाने के विरोध में गया, दलसिंह सराय के लोग महासभा से अलग हो गए। यह आश्चर्य है की पहले मुंगेर वाले दलसिंह सराय से संबंध के विरोध में थे, बाद में दलसिंह सराय वाले महनार को मिलाने के विरोध में थे। 1925 में बेतिया ग्रुप की जांच के लिए कमिशन नियुक्त किया गया था।

1927 में बस्ती, जमालपुर, और मालदह के लोग मिलाए गए थे। गोरखपुर के शिवहर्षप्रसाद जी ने जब कहा की वो किसी 15 आना बरनवाल की बारात में शामिल हुए थे तो इससे सभा में खलबली मच गई थी और उन्हें लिखित प्रतिज्ञापत्र और क्षमा याचना मांगनी पड़ गई थी। आजमगढ़ के 14 वर्षीय बालक श्रीरामकुमार को 15 आना बरनवाल के यहां शरण पाने के कारण जाति च्युत कर दिया गया था, उसे 1927 में वापस जाति में मिला लिया गया था। 1928 में चेरकी ग्रुप की जांच के लिए कमीशन नियुक्त हुआ था। इसी वर्ष बनारस के बाबू गया प्रसाद और उनके ग्रुप को उनके प्रार्थना अनुसार मिला लिया गया था। इसी वर्ष लखीमपुर खीरी के लिए भी जांच कमीशन नियुक्त हुआ था और 1937 में लखीमपुर खीरी को मिलाया गया था। 1938 में हजियापुर, गोपालगंज के देवनसाहजी की प्रार्थना पर और ब्रह्मचारी रामानंद की रिपोर्ट पर उनके ग्रुप को मिलाया गया था। इसी वर्ष मिलने के लिए उखवां, पूर्णिया ग्रुप की दरख्वास आई। यह परिपाटी की दरख्वास पर जांच कमीशन नियुक्त किया जाए और उसकी रिपोर्ट के आधार पर शामिल करने की परिपाटी 1967 तक चली जब 1967 के बरन(बुलंदशहर) के अधिवेशन में जब फिर से कमीशन बनाने की बात उठी तो हकीम मुकुट लाल बरनवाल, बरन और स्वागताध्यक्ष ने कहा कि "अपने पिछड़े भाइयों को मिलाने के लिए जांच कैसी? जो अपने आप को बरनवाल कहता है वो मेरा भाई है।" यह प्रस्ताव पास होने के बाद जांच कमीशन इत्यादि की बातें खत्म हो गईं। पूर्ववर्ती बिहार के हजारीबाग, कोडरमा इत्यादि इलाकों के मोदी बरनवालों को लेकर कुछ परेशानी चलती रही लेकिन अब तो रोटी बेटी के संबंधों में शायद ही कोई परेशानी रह गई है। कहने का मतलब है की 1881 से लेकर आज 2023 तक कोई 142 वर्षों में बरन वालों को एक जुट करने में कई चुनौतियां थीं। लेकिन अब सभी हिस्सों के बरनवाल एक और बराबर माने जाते हैं।

शुरू में वैवाहिक संबंध जब पूर्व और पश्चिम में स्थापित हुए तो उन्हीं लोगों के बीच हुए जो "प्रमाणित" बरनवाल थे। इसी कारण मुंगेर जो बिहार में है से पश्चिम उत्तर प्रदेश के संभाल इत्यादि में काफी वैवाहिक संबंध हुआ करते थे। लेकिन अब तो हर जगह के बरनवालों के आपस में वैवाहिक संबंध होना सामान्य बात है। यह जरूर है की अभी भी अपने क्षेत्र में ही वैवाहिक संबंध करने की इच्छा के कारण ऐसे संबंध कम ही नजर आते हैं।

बरनवाल समुदाय में समाज सुधार[14] संपादित करें

बरनवाल महासभा के रजत जयंती समारोह की स्मारिका के संपादकीय में श्री प्रेम प्रकाश बरनवाल हजारी प्रसाद द्विवेदी के "नाखून क्यों बढ़ते हैं?" लेख का जिक्र करते हैं और कहते हैं की नख बढ़ना और नख बढ़ाने की सहज प्रवृत्ति मानव की पशुता की निशानी है। और नाखूनों को काटना मनुष्य के मनुष्य होने का प्रमाण। (नाखून बढ़ाने से हजारी प्रसाद द्विवेदी या प्रेम प्रकाश बरनवाल दोनो में से किसी का मतलब नाखून सजा संवार कर रखने वालों को पशु कहने से नहीं था।) 2. मानव विकास के आरंभिक दिनों में मानव का एकमात्र हथियार बढ़े नख ही थे। लेकिन जैसे जैसे सामाजिक संस्कारों की स्थापना हुई, विकास होते गया, नाखूनों की जरूरत खत्म होते गई। और इस कारण कभी जरूरी होते हुए भी आज नाखून पशुता की निशानी माने जाते हैं। आगे बढ़ते हुए श्री प्रेम प्रकाश बरनवाल का कहना है कि सामाजिक कुरीतियां, विकार भी बढ़े नखों की भांति ही हैं। जिन्हें काट लेना ही हमारी मनुष्यता का प्रमाण है। 3. बरनवालों ने कैसे नख बढ़ा लिए थे? बरनवालों के ये नख कैसे कटे? इसे समझने के लिए 1905 और उसके बाद हमारे पूर्वजों के विचारों और कार्यकलापों के बारे में जानना जरूरी है. यह गौरतलब है कि आधुनिक शिक्षा के प्रचार प्रसार के कारण पुरानी रूढ़ियों और मान्यताओं के खिलाफ सभी जागरूक लोगों में विचार जागृत हो रहे थे. जहां राजा राम मोहन रॉय जैसे लोगों ने इन रूढ़ियों के खिलाफ बहुत पहले कार्य शुरू कर दिया था, हमारे समुदाय में यह थोड़े समय से हुआ लेकिन फिर भी समुदाय के अग्रणी लोगों ने शुरू से ही एक दूरदर्शिता से कार्य शुरू कर दिया था. यह कार्य दुरूह था क्योंकि जैसा मैंने पिछले लेख "बरनवालों की राष्ट्रीय एकता" में लिखा था, बरनवालों में अलग अलग ग्रुप (जिन्हें गिरोह लिखा गया है) बने हुए थे जिनके आपस में रोटी बेटी के सम्बन्ध भी स्थापित होने में काफी परेशानी थी. तो ऐसे में आधुनिक विचारों को कैसे स्वीकृति दिलाई जाये? 4. 1905 में महासभा का पहला अधिवेशन हुआ था। चुनौतियां बरनवालों को ढूंढने, साथ लाने और एकजुट करने की थीं। लेकिन साथ ही, आधुनिक शिक्षा, सोच और संस्कारों के संसर्ग से पुरानी कुरीतियों को दूर करने पर भी ध्यान दिया गया था। 5. आज यह सोचना मुश्किल लगता है लेकिन यह सत्य है की 100 वर्ष पूर्व कन्या क्रय विक्रय, बाल विवाह, वृद्ध विवाह, विधवा विवाह पर प्रतिबंध, वैश्या और भांड नृत्य, कन्या अशिक्षा, महिला परदा प्रथा हमारे समुदाय में भी भली भांति विद्यमान थीं। 1906 के बरन(बुलंदशहर) के दूसरे अधिवेशन में ही विवाह पर अपव्यय, वैश्या नृत्य, बाल विवाह और अशिक्षा को दूर करने के प्रयास करने की बात की गई थी। विवाह के समय कन्या की आयु कम से कम 12 वर्ष और वर की आयु कम से कम 16 वर्ष करने का प्रस्ताव भी पारित किया गया था। फैजाबाद के 1909 के चतुर्थ अधिवेशन में भी वृद्ध विवाह, बाल विवाह, कन्या क्रय विक्रय बंद करने की बात हुई थी। 1918 के मुंगेर अधिवेशन में दिलीप नारायण सिंह(बरनवाल) ने पुनः कन्या क्रय विक्रय, विवाह में अपव्यय को दूर करने की बात कही थी। इस अधिवेशन में कन्या के विवाह के लिए उम्र 13 वर्ष और वर के लिए 17 वर्ष निर्धारित की गई थी। 1920 में भी इन प्रस्तावों को दोहराया गया। 1922 के गाजीपुर अधिवेशन में कन्या क्रय विक्रय पर जातिच्युत करने का प्रस्ताव भी पारित किया गया था। सबसे ज्यादा विवादित मामला लेकिन विधवा विवाह का था। 1923 में काशी के अधिवेशन में विधवा विवाह पर चर्चा करने से इंकार कर दिया गया क्योंकि ये धार्मिक विषय था। 1925 के मिर्जापुर अधिवेशन में यह तय किया गया कि जिन कन्याओं का जबरन सिंदूर दान किया गया हो उन्हें कुंवारी मान कर उनका पुनर्विवाह किया जाए। 70 महानुभावों ने विधवा विवाह पर चर्चा की मांग की और यह तय हुआ कि यह विषय बरनवाल चंद्रिका में लोगों का मत जानने हेतु छापा जायेगा। साथ ही इस मामले में पंडित दीनदयाल व्याख्यान वाचस्पति, लाहौर और पंडित मदन मोहन मालवीय से शास्त्रीय व्यवस्था मांगी जाएगी जिसके लिए 1925 में एक कमिटी बनाई गई थी। पंडित मदन मोहन मालवीय ने उक्त कमिटी से कहा कि पुनर्विवाह पर बिरादरी के बहुमत से निर्णय लिया जाना चाहिए क्योंकि इस बारे में विद्वानों में मत भिन्नता है। उन्होंने यह भी कहा की विधवा होने के मूल कारण बाल विवाह, वृद्ध विवाह, कन्या क्रय विक्रय पर रोक लगाने की चेष्टा की जानी चाहिए। 1926 में एक पंच वर्षीय विधवा का विषय सामने आया और यह तय किया गया कि उसे 13 वर्ष की उम्र तक पढ़ाया जाए और उसके बाद महासभा में विषय प्रस्तुत किया जाए। 1927 के आजमगढ़ के पंद्रहवें अधिवेशन में यह निर्णय लिया गया की कार्यकर्ता भ्रमण कर के अक्षत योनि विधवा विवाह का निर्णय करने के लिए लोगों के विचार जानेंगे। इसके लिए 5 समितियां बनाई गईं थीं। विधवा विवाह पर निर्णय अगले अधिवेशन तक टाल दिया गया। 1929 में समुद्र यात्रा, विदेश यात्रा करने वालों के साथ खान पान का संबंध बनाने पर कोई रोक नहीं लगाने का प्रस्ताव पास किया गया। साथ ही बाल विवाह निषेधात्मक शारदा बिल असेंबली में पास करने पर बधाई भी दी गई। साथ ही यह भी तय किया गया कि अगर कोई बंधु बाल विवाह करता है तो महासभा उस पर मुकदमा चलाएगी। साथ ही 1 के बनिस्पत 125 मत से यह प्रस्ताव भी पास किया गया कि विधवा विवाह को आदर्श ना मानते हुए भी निसंतान विधवाओं(अक्षत योनि विधवा पढ़ें) को पुनर्विवाह की अनुमति होगी। लेकिन यह प्रस्ताव इतना क्रांतिकारी था की डर से अगले वर्ष कहीं के भी बंधु अपने यहां अधिवेशन कराने पर राजी नहीं हुए। तब जातिरत्न त्रिवेणी प्रसाद बरनवाल और दो अन्य विद्यार्थियों ने अपने ऊपर भर लेकर काशी में अधिवेशन करवाया। विधवा विवाह के प्रस्ताव का इतना भय था की अधिवेशन का सभापति बनना भी कई लोगों को स्वीकार नहीं था। बड़ी मुश्किल से ही सही लेकिन फिर से विधवा विवाह का प्रस्ताव बहुमत से पास हो गया। विधवा विवाह कार्य संचालक समिति बनाई गई और इस बारे में नियम उपनियम भी बनाए गए। एक ब्रह्मचारी रामानंद जी थे जिन्होंने विधवा विवाह के खिलाफ घूम घूम कर प्रचार किया। लेकिन फिर भी 1930 में अक्षत योनि विधवा विवाह को मान्यता दे दी गई। 1932 में विधवा विवाह करने के कारण जातिच्युत कर दिए गए लोगों को वापस मिला लिया गया और उन्हें 16 आना बरनवाल घोषित दिया गया। मुंगेर के 1941 के अधिवेशन की अध्यक्षता श्रीमती गोदावरी देवी ने की थी. इस समय विधवा विवाह कोश भी स्थापित किया गया लेकिन विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता अभी भी नहीं मिल पाई थी क्योंकि इस समय विधवा विवाह के औचित्य के एक वक्तव्य पर पुनः विवाद उत्पन्न हो गया था।

6. 1931 में बाल विवाह और वृद्ध विवाह पर पुनः रोक लगाने की बात हुई। 1938 में एक स्त्री के रहते दूसरी शादी पर रोक लगाने और 40 वर्ष से अधिक की आयु होने पर स्त्री के देहांत होने पर भी दूसरा विवाह नहीं करने का प्रस्ताव पारित किया गया। शायद पहली बार यह बात भी हुई की बिना उच्च शिक्षा दिए लड़कों की शादी नहीं करनी चाहिए। 1939 में पहली बार महिला सम्मेलन का भी आयोजन किया गया था। इस सम्मेलन में महासभा के पटल पर श्रीमती गोदावरी देवी बरनवाल का उदय हुआ जिन्होंने दहेज प्रथा, कन्या शिक्षा आदि पर विशेष जोर दिया। 1939 में महासभा का अधिवेशन श्रीमती गोदावरी देवी की अध्यक्षता में हुआ। विधवा विवाह की जांच के लिए तीन सदस्यों की समिति बनाई गई। गोदावरी देवी ने भ्रमण की परंपरा शुरू की जिसमें वो विभिन्न स्थानों पर जा कर बरनवाल समुदाय के लोगों से मिलती थीं। इससे अनेक जगहों पर स्थानीय बरनवाल सभाएं स्थापित हुईं। 1940 के अधिवेशन में अध्यक्ष जातिरत्न श्री त्रिवेणी प्रसाद बरनवाल ने पर्दा प्रथा को हटाने की कोशिश करने की बात की गई। साथ ही यह भी तय हुआ कि विवाह की पूर्व सूचना स्थानीय समिति को देनी होगी ताकि यह जांच की जा सके की कहीं कोई बेमेल विवाह तो नहीं हो रहा है। जब स्त्रियों को सभा में लाने की बात हुई तो कई लोगों ने कहा की अगर स्त्रियों ने खिड़कियों से सभा की ओर देखा भी तो वो उठ कर चले जायेंगे। लेकिन 1947 में महिलाओं के सक्रिय रूप से भाग लेने का आह्वान किया गया। 1950 में दहेज प्रथा के विरुद्ध पिकेटिंग करने का निश्चय किया गया। इसी वर्ष निसंतान विधवा(जो संयुक्त परिवार में नहीं रह रही हो) के द्वारा अपने पति के परिवार के किसी लड़के और ऐसा संभव नहीं होने पर अपने मायके के किसी लड़के और ये भी नहीं होने पर किसी भी बरनवाल लड़के को गोद लेने की अनुमति देने का प्रस्ताव पारित किया गया था। इन कुरीतियों को दूर करने में सबसे ज्यादा चैलेंज विधवा विवाह के मामले में हुआ था। बाल विवाह, वृद्ध विवाह /बेमेल विवाह, इत्यादि के विषय में ज्यादा विवाद नहीं था, लेकिन विधवा विवाह ज्यादा विवादित था. इसका एक कारण उस समय के विद्वान् नेताओं का मत भी था. जैसे पंडित मदन मोहन मालवीय ने भी विधवा विवाह का समर्थन करने की बजाये इसे रोकने वाले उपाय करने पर ज्यादा जोर दिया था. लेकिन इन प्रस्तावों को पार्रित करने का यह कदापि मतलब नहीं है की ये कुरीतियां ख़त्म हो गयी थीं. जैसा ऊपर चर्चा से पता चलता है कि विधवा विवाह 1941 में भी विवाद का कारण बना हुआ था. इसी प्रकार यह कहना कि बाल विवाह या बेमेल विवाह ख़त्म हो गया था, गलत होगा. दहेज़ प्रथा तो 1990 के दशक तक विकराल बन चुकी थी जिसके परिणामस्वरूप भ्रूण ह्त्या जैसी समस्याएं भी फण उठा रही थीं. कोई भी सभ्य समाज अपनी स्त्रियों को समानता का दर्जा स्वभावतः देता है. 1905 से इन सुधारों के लिए लगातार कार्य किये गए थे. यह कहना गलत होगा कि इन प्रस्तावों के कारण ही सुधार आये लेकिन समाज में इन सुधारों को मान्यता दिलवाने में समुदाय के अग्रणी लोगों और महासभा की महती भूमिका से इंकार भी नहीं किया जा सकता. 7. आज तकरीबन हरेक जगह महिला समितियां बनी हुई हैं. लेकिन श्रीमती गोदावरी देवी ने पहली बार 1939 में इसकी शुरुआत की थी. एक और बात कहना अनुचित नहीं होगा की शुरू के वर्षों में सभी अधिवेशन सामाजिक मुद्दों को उठाये जाने के मंच हुआ करते थे. इनमें विवादित मुद्दों पर भी चर्चा कर ली जाती थी, जिसका परिणाम भी निकलता था. समुदाय में नए और पढ़े लिखे लोगों की अग्रणी भूमिका से सुधारों की संभावनाएं बढ़ जाती हैं जिसका उदाहरण जातिरत्न त्रिवेणी प्रसाद बरनवाल और उनकी विद्यार्थी मंडली है जिनके अथक प्रयासों से कई बार विधवा विवाह सम्बन्धी विवादों पर अंकुश लग पाया था. 8. इन कुरीतियों, इन नखों को काटने के बाद अब समुदाय आधुनिक चुनौतियों का सामना कर रहा है. जिसे प्रेम प्रकाश बरनवाल जी अधिक नख कट जाने पर दर्द की स्थिति बताते हैं. जैसे पारिवारिक मूल्यों का ह्रास, अश्लीलता, गैर कानूनी और अनैतिक विवाह(जैसे भाई बहनों में विवाह) , अकेलापन और सामाजिक संबंधों में ह्रास और उसके चलते बढ़ता एकाकीपन.

बरनवाल में प्रयोग होने वाले उपनाम संपादित करें

प्रसाद, साह, बरनवाल, वर्णवाल, बर्नवाल, गोयल, मित्तल, सिंघल, गोहिल, गोविल, महाजन, पोद्दार, सेठ, गुप्ता, गुप्त, साव, मोदी, सिंह, बंसल, गर्ग,अग्रवाल

बरनवाल समुदाय की पताका संपादित करें

यह पताका अमित कुमार बरनवाल द्वारा बनाई गई है। सबसे पहले इसे महाराजा अहिबरन जन्मोत्सव, 2023(बरन), बुलंदशहर में फहराया गया था।[15] [16]

 
बरनवाल पताका

बरनवाल पताका गीत संपादित करें

इस गीत की रचना अतुल कुमार बरनवाल ने की है।[17]

ये झंडा इतिहास हमारा, वर्तमान और भविष्य भी।।

इसके नीचे हम करते हैं, घोष बरन का आज अभी ये झंडा इतिहास हमारा, वर्तमान और भविष्य भी।

केसरिया है इसका बाना, वीरता का प्रतीक भी। ये झंडा इतिहास हमारा, वर्तमान और भविष्य भी।

हम करते हैं सिंह सी गर्जन, और तुला है अभिन्न भी ये झंडा इतिहास हमारा, वर्तमान और भविष्य भी।

राष्ट्र धर्म है प्रथम हमेशा, देता ये आदेश अभी ये झंडा इतिहास हमारा, वर्तमान और भविष्य भी।

सूरज की हैं किरणें जैसे, कीर्ति हो चहुं ओर अभी ये झंडा इतिहास हमारा, वर्तमान और भविष्य भी।

देता ये आशीष हमेशा, आगे बढ़ते रहो सभी ये झंडा इतिहास हमारा, वर्तमान और भविष्य भी।

बरन बंधु को अपने नीचे, करता है ये एक अभी ये झंडा इतिहास हमारा, वर्तमान और भविष्य भी।

हो कीर्ति अपनी उज्जवल जग में, प्रण लेते हैं आज सभी ये झंडा इतिहास हमारा, वर्तमान और भविष्य भी।।

सन्दर्भ संपादित करें

  1. Gupta, C. Dwarakanath (1999). Socio-cultural History of an Indian Caste. Mittal Publication. पृ॰ 16. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7099-726-9.
  2. Singh, Kumar Suresh (2008). People of India, Volume 16, Part 1 (1st संस्करण). India: Anthropological Survey of India. पृ॰ 131. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7046-302-5. अभिगमन तिथि 16 May 2011.
  3. "Bania Baranwal in India". joshuaproject.net. मूल से 15 अप्रैल 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 27 मई २०२०.
  4. "बरनवालों का इतिहास" (PDF). Baranwal Directory. मूल (PDF) से 28 जुलाई 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २८ मई २०२०.
  5. Smith, V. (1897). Art. XXIX.—The Conquests of Samudra Gupta. Journal of the Royal Asiatic Society, 29(4), 859-910. doi:10.1017/S0035869X0002503X
  6. Mittal, J. P. (1991). History of ancient India. पृ॰ 675. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788126906161. मूल से 11 जनवरी 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 मई 2020.
  7. "बरनवाल - एक अलंकारिक वैश्य वर्ग". www.maharajaahibaran.com. अभिगमन तिथि 2024-03-11.
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