भारत में चिकित्सा शिक्षा

भारत में चिकित्सा में क्षेत्र में प्रवेश के लिये एमबीबीएस (बैचलर ऑफ मेडिसिन और बैचलर ऑफ सर्जरी ) है के साथ-साथ आयुर्वेद ( BAMS ), यूनानी (BUMS), सिद्ध (BSMS), होम्योपैथी (BHMS) की भी शिक्षा की व्यवस्था है। एमबीबीएस साढ़े पांच वर्ष का स्नातक पाठ्यक्रम है जिसमें प्रथम वर्ष में सामान्य विज्ञान विषयों में एक वर्ष के प्रीक्लिनिकल अध्ययन और उसके बाद साढ़े तीन वर्ष पैराक्लिनिकल और क्लिनिकल अध्ययन करना होता है।इसके बाद एक वर्ष का क्लिनिकल इंटर्नशिप होता है। इंटर्नशिप शुरू करने से पहले, छात्रों को कई परीक्षाएं उत्तीर्ण करनी होती हैं।चिकित्सा विशिष्टताओं में स्नातकोत्तर शिक्षा में आमतौर पर एमबीबीएस के बाद 3 वर्षों का अध्ययन करना होता है। इसके पूरा होने पर मास्टर ऑफ सर्जरी या डॉक्टर ऑफ मेडिसिन (एमडी) की उपाधि प्रदान की जती है। दो साल के प्रशिक्षण कार्यक्रमों के पूरा होने पर चिकित्सा विशिष्टताओं में स्नातकोत्तर डिप्लोमा भी प्रदान किए जा सकते हैं।

सुश्रुत संहिता के रचयिता और शल्यचिलित्सा के जनक सुश्रुत (800 ईसा पूर्व) की एक मूर्ति, मेलबर्न, ऑस्ट्रेलिया में रॉयल ऑस्ट्रेलेशियन कॉलेज ऑफ सर्जन्स (आरएसीएस) में।

भारतीय चिकित्सा परिषद और भारतीय दंतचिकित्‍सा परिषद की स्‍थापना भारत में चिकित्‍सा और दंतचिकित्‍सा शिक्षा को विनियमित करने की दृष्‍टि से संसद के अधिनियमों के अंतर्गत की गई थी। दो सांविधिक निकायों के विनियमों के प्रावधानों के अंतर्गत केन्‍द्र सरकार की पूर्व अनुमति लिए बिना कोई चिकित्‍सा या दंतचिकित्‍सा कॉलेज स्‍थापित नहीं किया जा सकता या अपनी क्षमता को बढ़ा नहीं सकता। भारतीय चिकित्‍सा परिषद अधिनियम, 1956 की धारा 10क के अनुसार, ऐसे कॉलेजों को केन्‍द्र सरकार की अनुमति प्रारम्भ में एक वर्ष अर्थात् एक कैलेण्‍डर वर्ष में छात्रों के केवल एक बैच का दाखिला करने के लिए प्रदान की जाती है। वार्षिक लक्ष्‍यों की उपलब्‍धियों का सत्‍यापन करने के बाद अनुमति का वार्षिक आधार पर नवीकरण किया जाता है। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक पूर्ण अपेक्षित अवसंरचना का सृजन नहीं कर लिया जाता और संगत अधिनियम के अंतर्गत ही मान्‍यता प्रदान की जाती है।

भारत में चिकित्सा शिक्षा के समक्ष चुनौतियाँ संपादित करें

  • जनशक्ति और संसाधनों के वितरण में अंतःराज्य और अंतर-राज्य असमानता : राज्यों में छात्रों के लिए अवसरों की उपलब्धता में भारी असमानता है। एमएचआरडी की 2010 की रिपोर्ट में कहा गया था कि चार राज्यों - आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु - में पूरे भारत में 2.4 लाख मेडिकल सीटों में से 1.3 लाख हैं।[1]
  • स्वास्थ्य देखभाल और कॉलेजों दोनों की उपलब्धता में एक स्पष्ट ग्रामीण-शहरी असमानता भी है।
  • मेडिकल कॉलेज शुरू करने के लिए एकसमान मानक अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, नागालैंड आदि जैसे राज्यों और ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षा करता है।
  • इस स्थिति के बीच, नए मेडिकल कॉलेज सभी राज्यों में पहुंच में एकरूपता ला सकते हैं और मांग-आपूर्ति के अन्तर को भर सकते हैं।
  • भारतीय चिकित्सा परिषद के नियम अनुभवी एमबीबीएस डॉक्टरों को सिजेरियन और अल्ट्रासाउंड टेस्ट जैसी प्रक्रियाओं को करने से रोकते हैं। अनुभवी नर्सों को एनेस्थीसिया देने से रोक दिया जाता है। यह सेवा वितरण को बढ़ाने के लिए अनुभवी जनशक्ति का उपयोग करने में विफलता की ओर जाता है।
  • सुपर-स्पेशियलिटी सनक का एक और नुकसान अनुसंधान और शिक्षण है, क्योंकि कोई भी अनुसंधान या शिक्षण को अपने पसंदीदा करियर के रूप में नहीं चुन रहा है।

सन्दर्भ संपादित करें

इन्हें भी देखें संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें