मारवाड़ के विजय सिंह

जोधपुर के महाराजा

महाराजा विजय सिंह राठौड़ (6 नवंबर 1729 - 17 जुलाई 1793), मारवाड़ साम्राज्य के राजा थे जिन्होंने (प्रथम शासनकाल 21 सितंबर 1752 - 31 जनवरी 1753 तक और द्वितीय शासनकाल सितंबर 1772 - 17 जुलाई 1793) तक किया।[1]

महाराजा विजय सिंह राठौड़
जोधपुर के महाराजा
विजय सिंह राठौड़
शासनावधिप्रथम शासनकाल 21 सितंबर 1752 - 31 जनवरी 1753
द्वितीय शासनकाल सितंबर 1772 - 17 जुलाई 1793
राज्याभिषेक31 जनवरी 1753, मेहरानगढ़, जोधपुर
जन्म6 नवंबर 1729
जोधपुर
निधन17 जुलाई 1793
मेहरानगढ़, जोधपुर
घरानाराठौड़
पिताबख्त सिंह
माताचंद्र कंवर
धर्महिन्दू

वह अपने पिता महाराजा बख्त सिंह की मृत्यु पर 21 सितंबर 1752 को उत्तराधिकार के रूप में गद्दी पर बैठे। उन्होंने थोड़े समय के लिए अजमेर को पुनः प्राप्त किया और गोडवार (मेवाड़ से) और उमरकोट को सोढा से जब्त किया। महाराजा विजयसिह के मुसाहिब श्री जग्गनाथ सिंह साखला थे। श्री जगन्नाथ सिंह सांखला को धाय भाई जगगजी के नाम से भी जाना जाता है। विजय सिंह के शासनकाल में बहुत से पट्टायत विद्रोह कर रहे थे और रियासत की आर्थिक स्थिति खराब थी। ऐसी हालत में जग्गनाथ सिंह ने अपनी माता से पचास हजार रूपये उधार लेकर एक स्थायी सेना बनायी और संपूर्ण मारवाड़ का दौरा कर सभी ठिकानो के पट्टायत नियत किये और उनसे रेख और चाकरी वसूल की। महाराजा विजयसिह की एक पासवान गुलाबराय थी जो ओसवाल जाति की थी। पासवान के दर्जे को पाने से पहले वो एक बडारन(दासी) थी। गुलाब अपने पुत्र, वाभा तेजसिह को महाराजा विजयसिह का उतराधिकारी घोषित करना चाहतीं थी। ज्ञात रहे कि शासक की पासवान/पङदायत/दासी/गोली की संतान को मारवाड़ में वाभा/ चेला/गोटाबरदार/खवासपुत्र/गोला/लालजी कहा जाता था । महाराजा श्री तख्त सिंह जी के शासनकाल में इनको राव राजा कहा जाता था । लेकिन उसकी हत्या एक षङयंत्र के द्वारा कर दी जाती है।

मृत्यु और उत्तराधिकार संपादित करें

विजय सिंह चाहते थे कि उनका पोता मान सिंह उनका उत्तराधिकार बने। लेकिन 17 जुलाई 1793 को विजय सिंह की मृत्यु के बाद, जोधपुर में एक बार फिर उनके पुत्रों और पौत्रों के बीच गृहयुद्ध शुरू हो गया। भीम सिंह ने सिंहासन पर कब्जा कर लिया लेकिन अपने शासन को मजबूत नहीं कर सके।

[2]सन्दर्भ संपादित करें

  1. Bautze, Joachim (1987). Indian Miniature Paintings, C. 1590-c. 1850 (अंग्रेज़ी में). Galerie Saundarya Lahari. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-90-72085-01-6. अभिगमन तिथि 16 फरवरी 2022.
  2. सिंह, ब्रजेश कुमार (1997). महाराजा श्री विजयसिंघजी री ख्यात. जोधपुर: राजस्थान ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, जोधपुर. पृ॰ 41. तरे माहाराज कयो-वचन दीयो छे। तरे धाय भाई कयो-मारा वचन तो है नहीं। तरे हजूर फुरमायो-के फीतूर पङ जासी। तरे धाय भाई कयो-फीतूर जाणे ने हु जाणु, ईतरा डरो छो? सो राज करावो तो भाग रो तो भरोसो रखावो। डर-डर ने ईतरा भेळा हुवो छो। सु ईण तरे राज कुण करण देसी। तरे महाराज फुरमायो- तू जांणे थारी सला हुवै ज्यू कर। तरे दोढीदार गोयनदास ने कयो-तू जाय सिरदारा ने बुलाय लाव के माहाराज उदास घणा छे। पेज संख्या 65 पर केसरी सिघ ने चाकर राखीयो। दौलतसिघ ने चाकर राखीयो। कुचामण ठा सौभागसिघ ने चाकर राखिया।