मेरु पर्वत पौराणिक भूगोल में शायद उत्तर मेरु[1] के निकट स्थित एक पर्वत का नाम है। इसी को संभवत: 'सुमेरु' कहा गया है-

'भारतं प्रथमं वर्षं तत: किंपुरुषं स्मृतं हरिवर्षं तथैवान्यन्मेरोर्दक्षिणतो द्विज'[2] इस पर्वत के चारों ओर नौसहस्र योजक तक इलावृत नामक महाद्वीप है-

'मेरो चतुर्दिशं तत्तुनवसाहस्रविस्तृतम्, इलावृतं महाभाग चत्वाराश्चात्र पर्वता:'[3] विष्णु पुराण[4] के अनुसार या तो यहाँ दिन ही या रात्रि ही रहती है-

'तस्माद्दिश्युत्तरस्यां वै दिवारात्रि: सदैव ह, सर्वेषां द्वीपवर्षाणां मेरुरुत्तरतो यत:'

इसके आगे के श्लोक में मेरुप्रभा का वर्णन इस प्रकार है-

'प्रभा विवस्वतो रात्रावस्तं गच्छति भास्करे, विशत्यग्निमतो रात्रौवह्रिर्दूरात् प्रकाशते'

अर्थात् "रात्रि के समय सूर्य के अस्त हो जाने पर उसका तेज अग्नि में प्रविष्ट हो जाता है और यह रात्रि में दूर से ही प्रकाशित होता है।[5] वाल्मीकि रामायण में भी मेरु प्रदेश या उत्तर कुरु में होने वाले प्रकृति के इस विस्मयजनक व्यापार का वर्णन इस प्रकार है-

'तमतिक्रम्य शैलैंद्रमुत्तर: पयसां निधि:, तत्र सोमगिरिर्नाम मध्येहमेमयो महान्। स तु देशो विसूर्योपि तस्य भासा प्रकाशते, सूर्यलक्ष्याभिविज्ञेयस्तपतेव विवस्वता'[6] महाभारत के वर्णन के अनुसार निषध पर्वत के उत्तर और मध्य में मेरु पर्वत की स्थिति है। मेरु के उत्तर में नील, श्वेत और श्रृंगवान पर्वत हैं, जो पूर्व और पश्चिम समुद्र तक फैले हुए हैं। मेरु को महामेरु नाम से भी अभिहित किया गया है-

'स ददर्श महामेरुं शिखराणां प्रभं महत्, तं कांचनमयं दिव्यं चतुर्वर्ण दुरासदम्, आयतं शतसाहस्रं योजनानां तु सुस्थितम्, ज्वलन्तंमचं मेरुं तेजोराशिमनुत्तमम्' महाभारत, सभापर्व 28, दाक्षिणापत्य पाठ। मेरु को सुवर्णमय पर्वत शायद मेरुप्रभा की दीप्ति ही के कारण कहा गया है। मेरु के प्रदेश को महाभारत, सभापर्व,[7] दाक्षिणापत्य पाठ में इलावृत, कहा गया है-

'मेरोरिलावृतं वर्ष सर्वत: परिमंडलम्।' यह साइबेरिया का उत्तरी भाग हो सकता है। इसी प्रदेश के निकट उत्तर कुरु की स्थिति थी।

वास्तव में प्राचीन संस्कृत साहित्य में मेरु का अदभुत वर्णन, जो होते हुए भी भौगोलिक तथ्यों से भरा हुआ है, सिद्ध करता है कि प्राचीन भारतीय, उस समय में भी जब यातायात के साधन नगण्य थे, पृथ्वी के दूरतम प्रदेशों तक जा पहुँचे थे। मत्स्यपुराण में सुमेरु या मेरु पर देवगणों का निवास बताया गया है। कुछ लोगों का मत है कि पामीर पर्वत को ही पुराणों में सुमेरु या मेरु कहा गया है। मेरु पर्वत पर्वत जिस पर ब्रह्मा और अन्य देवताओं का धाम है। परंतु कुछ तथ्य यहा भी है की अजयमेरु जो की अजमेर राजस्थान मे स्तिथ है ओर पुष्कर धाम जो की ब्रह्मा जी का भी धाम है यही स्थित पहाडो मे से एक पर्वत मेरु पर्वत है। क्युंकि जिस समय की यह बात है तब tethys सागर भी रहा होगा जो की राजस्थान के पश्चिम मे स्थित था जो की अब रेगिस्थान है। श्रंगवान पर्वत पर ऋषी श्रृंग की तपस्या व उनकी जन्म स्थली है उन्हों ने ही श्री राम जी की उत्पत्ति हेतू यज्ञ किया था। मेरु गिरी पर्वत की एक निशसनी महाभारत ग्रंथ मे संजय द्वारा धृतराष्ट्र को महायुद्ध से एक दिन पहले बतलाई गई है,इसमें संजय कहता है,मेरु गिरी पर्वत से दूध से सफेद जल कि धारा बहती है जसे "भागीरथी नदी" नाम से जाना जाता है। "तस्य शेलस्य शिखरत क्षीरधार नरेश्वर। विश्वरूपापरिमिता भीमनिहर्तनी: स्वना।। पुण्या पूण्यतमेजुर्ष्टा गंगा भागीरथी शुभा। पालवन्तीव प्रवेगेन ह्रदे चंद्रमस: शुभे।।