विजयमोहन सिंह (1 जनवरी, 1936 - 25 मार्च, 2015) हिन्दी कथाकार एवं प्रगतिशील दृष्टि के स्वतंत्रचेता कथालोचक थे।

विजयमोहन सिंह
जन्म1 जनवरी, 1936
शाहाबाद, बिहार
मौतअहमदाबाद
पेशाहिन्दी भाषा
भाषाहिन्दी
राष्ट्रीयताभारतीय
कालआधुनिक काल
विधाआलोचना, कहानी
विषयहिन्दी साहित्य
उल्लेखनीय कामsआधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य : विकास और विश्लेषण

जीवन-परिचय

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विजयमोहन सिंह का जन्म 1 जनवरी 1936 ई० को शाहाबाद (बिहार) में हुआ था। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय में एम०ए० करने के उपरान्त उन्होंने पी-एच० डी० की उपाधि भी प्राप्त की। आजीविका के लिए उन्होंने अध्यापन का क्षेत्र चुना और 1960 से 1969 तक आरा (बिहार) के डिग्री कॉलेज में अध्यापन किया।[1] अप्रैल 1973 से 1975 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनन्द महाविद्यालय में अध्यापक रहे। अप्रैल, 1975 से 1982 तक हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला में सहायक प्रोफ़ेसर रहे। 1983 से 1990 तक भारत भवन, भोपाल में ‘वागर्थ’ का संचालन किया। 1991 से 1994 तक हिन्दी अकादमी, दिल्ली के सचिव रहे।[2] इस अवधि में अकादमी की पत्रिका 'इन्द्रप्रस्थ भारती' का संपादन भी किया।[3]

उन्होंने 1964 से 1968 तक पटना से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका ‘नई धारा’का सम्पादन भी किया था। लेखन तथा संपादन के अतिरिक्त उन्होंने नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित यूनेस्को कूरियर के कुछ महत्त्वपूर्ण अंकों तथा एन.सी.ई.आर.टी. के लिए राजा राममोहन राय की जीवनी का हिन्दी अनुवाद भी किया।[4]

25 मार्च 2015 को अहमदाबाद में उनका निधन हो गया।

रचनात्मक परिचय

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कहानी-लेखन के साथ-साथ कहानी-आलोचना से भी गंभीरतापूर्वक जुड़े विजयमोहन सिंह प्रगतिशील दृष्टि के स्वतंत्रचेता लेखक रहे हैं। अच्छे कहानीकार होने के बावजूद उन्हें अपेक्षाकृत अधिक प्रसिद्धि आलोचक के रूप में मिली है। उनका आलोचनात्मक लेखन मुख्यतः 1965 से आरम्भ हुआ। कहानी-आलोचना की अपनी पहली पुस्तक 'आज की कहानी' से ही वे कहानी-आलोचना के क्षेत्र में स्थापित हो गये। उनके आलोचना-कर्म का फलक व्यापक तथा वैविध्यपूर्ण रहा है। पहली ही पुस्तक में गुलेरी जी तथा प्रेमचन्द की कहानियों से लेकर मुक्तिबोध, धर्मवीर भारती, रामकुमार, प्रयाग शुक्ल तथा रामनारायण शुक्ल जैसे उपेक्षित परंतु बेहद अच्छे कहानीकार की कहानियों का भी वे अंतर्दृष्टिपूर्ण विश्लेषण करते हैं। 'साठोत्तरी कहानी' के 'चार यार' दूधनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, काशीनाथ सिंह तथा ज्ञानरंजन की कहानियों का परिवेशगत यथार्थ के साथ-साथ शिल्पगत रूढ़ियों एवं नवीनता के सन्दर्भ में भी किया गया उनका बेलौस विश्लेषण अपनी प्रकृति में फुटकल होते हुए भी गम्भीर दृष्टि का परिचायक तथा शाब्दिक ईमानदारी से कहीं आगे की चीज है। डाॅ० नामवर सिंह ने स्पष्टतापूर्वक स्वीकार किया है कि विजयमोहन ने मुझसे अच्छी कहानी की आलोचना लिखी है[5] कवियों की कहानियों को प्रभूत महत्त्व देने के कारण तो उनपर आक्षेप भी किये गये हैं, परन्तु इसी कारण उन्होंने हिन्दी की कहानी-आलोचना को काफी हद तक एकांगिता से बचाते हुए आयामगत विस्तार भी दिया है। जयशंकर प्रसाद की कहानियों पर वे लम्बे समय तक चिन्तनरत रहे हैं, जिसका प्रथम परिणाम 'कथा समय' में संकलित उत्कृष्ट आलेख था और बाद में उसी का परिशोधित-परिमार्जित रूप 'जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ' की भूमिका में सामने आया[6], जो निस्सन्देह प्रसाद जी की कहानियों की रचनात्मक सामर्थ्य को अभिव्यक्त करने में अत्यधिक सफल है।

'कथा समय' के दूसरे खण्ड में उन्होंने कुछ उपन्यासों पर भी विचार किया है।

लिखने में विजयमोहन सिंह का ढंग हमेशा 'रुचि के राजा' वाला ही रहा;[7] यहाँ तक कि अंतिम पुस्तक 'आधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य का विकास और विश्लेषण' में भी; जबकि उसे मुकम्मल प्रबन्धात्मक रूप में ही लिखवाने का स्पष्ट प्रकाशकीय आग्रह था, जो उचित ही था। लेखन का यह स्वभाव विजयमोहन सिंह की सामर्थ्य तथा सीमा दोनों रूपों में प्रकट होते रहा। एक ओर जिस किसी गद्य रचना या गद्यकार पर कुछ विस्तार से लिखा तो प्रायः कुछ नया और अंतर्दृष्टिपूर्ण लिखा तो दूसरी ओर कई रचनाओं तथा रचनाकारों पर सन्दर्भ रहते हुए भी अपेक्षित विचार नहीं हो पाया, विरोधात्मक भी नहीं। इसके बावजूद उनका बेलौसपन अपने समय की सच्चाई को जीने की ईमानदार कोशिश तो है ही और जहाँ भी लेखक को कुछ मूल्यवान लगा है, उसे रेखांकित करने में संकोच भी नहीं किया है[8]

विजयमोहन सिंह की पुस्तक 'भेद खोलेगी बात ही' की समीक्षा करते हुए विष्णुचंद्र शर्मा ने लिखा है :

"जहाँ पुस्तक समीक्षा हिंदी में एक उबाऊ और व्यर्थ का लेखन बन चुकी है, वहाँ विजय मोहन की पुस्तक समीक्षा इस तलाशहीन दौर में एक उर्वर विचारशीलता की उपज है।... बहुत कम लेखक हैं जो पुस्तक समीक्षा लिखते समय पूरे समकालीन विश्व पर सोचते हैं। जैसे विजय मोहन सोचते हैं कि "इलियट सही अर्थों में केवल फोर क्वार्टर्स में ही रिल्के के निकट पहुँच सका।" समकालीन चिंतन की यह स्वाभाविक प्रक्रिया विजय मोहन में ही मिलती है।"[9]

विजयमोहन सिंह लिखित सार्त्र की जीवनी 'सार्त्र : असंभव विकल्पों की तलाश' के संदर्भ में विचार करते हुए विष्णुचंद्र शर्मा ने लिखा है :

"विजय मोहन का विचारक लगातार सार्त्र और सिमोन, दर्शन और रचना और साहित्य-सिद्धान्त लिखकर समय की अवधारणा में ऊँचा उठता गया।"[10]

प्रकाशित कृतियाँ

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कहानी संग्रह

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  1. टट्टू सवार -1971 (रचना प्रकाशन, इलाहाबाद; 1995 में राजेश प्रकाशन दिल्ली से)
  2. एक बँगला बने न्यारा -1982 (राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली)
  3. शेरपुर पंद्रह मील (राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली)
  4. ग़मे-हस्ती का हो किससे...! -2000 (राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली)
  5. चाय के प्याले में गेंद (राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली)
  • कोई वीरानी सी वीरानी है (राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली)
  1. छायावादी कवियों की आलोचनात्मक दृष्टि
  2. अज्ञेय: कथाकार और विचारक (पहले पारिजात प्रकाशन, पटना से; पुनः वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
  3. आधुनिक हिन्दी उपन्यासों में प्रेम की परिकल्पना -1972 (रचना प्रकाशन, इलाहाबाद)
  4. आज की कहानी -1983 (राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली)
  5. कथा-समय -1993 (राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली)
  6. भेद खोलेगी बात ही -2003 (सामयिक प्रकाशन, नयी दिल्ली)
  7. बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य -2005 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली)
  8. समय और साहित्य -2012 (राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली)
  9. आधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य का विकास और विश्लेषण -2014 (भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली)
आलोचनात्मक जीवनी-
  • सार्त्र : असंभव विकल्पों की तलाश -2008 (संवाद प्रकाशन, मेरठ)
  1. नई धारा (पत्रिका)
  2. इन्द्रप्रस्थ भारती (पत्रिका)
  3. '60 के बाद की कहानियाँ - प्रथम संस्करण-1965 (मधुकर सिंह के साथ; सन् 2017 में लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से पुनर्प्रकाशित)
  • साहित्यकार सम्मान
  1. आज की कहानी, विजयमोहन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2002, अंतिम फ्लैप पर दिये गये लेखक-परिचय में।
  2. कथा समय, विजयमोहन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2002, अंतिम फ्लैप पर दिये गये लेखक-परिचय में।
  3. भेद खोलेगी बात ही, विजयमोहन सिंह, सामयिक प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-2003, अंतिम आवरण-फ्लैप पर दिये गये लेखक-परिचय में।
  4. समय और साहित्य, विजयमोहन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2012, अंतिम फ्लैप पर दिये गये लेखक-परिचय में।
  5. बात बात में बात, नामवर सिंह, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2006, पृ.329.
  6. यही भूमिका 'प्रसाद की कहानियाँ : एक पुनरावलोकन' नाम से 'समय और साहित्य'(2012, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली) में भी यथावत् संकलित है।
  7. बीसवीं शताब्दी का साहित्य, विजयमोहन सिंह, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2010, पृ.8(भूमिका)
  8. गिरधर राठी, आज की कहानी, विजयमोहन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2002, के पहले फ्लैप पर।
  9. 'रीतिबद्धता को तोड़ते हुए' शीर्षक समीक्षा, विष्णुचंद्र शर्मा, इंडिया टुडे, 1 मार्च 2004, पृष्ठ-60.
  10. आलोचना, सहस्राब्दी अंक-36, जनवरी-मार्च 2010, संपादक- अरुण कमल, पृष्ठ-62.