वैद्युतिक घण्टी एक विद्युद्यान्त्रिक घण्टी है जो विद्युच्चुम्बक के माध्यम से कार्य करती है। जब एक वैद्युतिक धारा लागू किया जाता है, तो यह बार-बार बजने की ध्वनि उत्पन्न करता है। 1800 के दशक के उत्तरार्ध से, विद्युद्यान्त्रिक घण्टियों का व्यापक रूप से रेलमार्ग क्रॉसिंग, दूरभाष, अग्नि और विपदा सचेतकों में, विद्यालयी घण्टी, द्वार घण्टी और औद्योगिक संयंत्रों में सचेतकों के रूप में उपयोग किया गया है, लेकिन अब उन्हें वैद्युतिक साउंडर्स के साथ व्यापक रूप से बदल दिया जा रहा है। एक वैद्युतिक घण्टी में एक या एकाधिक विद्युच्चुम्बक होते हैं, जो एक लौह क्रोड के चारों ओर विद्युद्रोधक तार के कुण्डली से बने होते हैं, जो एक तालीकार के साथ लोहे की पट्टी आर्मेचर को आकर्षित करते हैं।

क्रिया विधि संपादित करें

 

एक वैद्युतिक घण्टी का वैद्युतिक परिपथ में लौह टुकड़े पर ताम्र के तार की कुण्डली लिपटी होती है। विद्युच्चुम्बक के निकट लौह पट्टी लगी होती है, जिसके एक सिरे से हथौड़ा जुड़ा होता है। लौह पट्टी के समीप एक सम्पर्क पेंच होता है। जब लौह पट्टी इस पेंच के सम्पर्क में आती है, तो वैद्युतिक परिपथ पूरा हो जाता है सभी कुण्डली से वैद्युतिक धारा प्रवाहित होती है, जिससे वह विद्युच्चुम्बक बन जाती है। तब यह लौह पट्टी को अपनी ओर खींचती है। इस प्रक्रिया में पट्टी के अग्रभाग से जुड़ा हथौड़ा घण्टी से टकराता है और ध्वनि उत्पन्न होती है। परन्तु जब विद्युच्चुम्बक लौह पट्टी को अपनी ओर खींचता है, तो यह परिपथ को भी तोड़ देता है। इससे कुण्डली से वैद्युतिक धारा का प्रवाह समाप्त हो जाता है। अब यह विद्युच्चुम्बक नहीं होती। यह लौह पट्टी को अपनी ओर नहीं खींचती है। लौह पट्टी अपनी मूल स्थिति में आकर पुनः संपर्क पेंच से स्पर्श करती है। इससे परिपथ फिर से पूर्ण हो जाता है। कुण्डली से पुनः विद्युत धारा प्रवाहित होती है तथा हथौड़ा पुनः घण्टी से टकराता है। यह प्रक्रिया अति शीघ्रता से दोहराई जाती है। प्रत्येक बार परिपथ पूर्ण होने पर हथौड़ा घण्टी से टकराता है और वैद्युतिक घण्टी बजती है।

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