स्टोइकवाद,निस्पृहतावाद, जितेन्द्रियता या स्टोइसिज़म् (लैटिन- stoicismus,युनानी Στωϊκός से व्युत्पत्तित) हेलेनीय काल (प्राचीन यूनान) का दर्शन है जो कि 300 ईसा पूर्व के आसपास सिटियम के ज़ेनो द्वारा तपस्यावाद के परिष्करण के रूप में युनान में विकसित किया गया। स्टोइकवाद एक प्रकार का यूडोमोनिय सद्गुण नीतिदर्शन है जो स्वयं की तर्कप्रणाली और भौतिक जगत के दृष्टिकोण से अभिज्ञात होकर यह बताता है कि सद्गुणों का पालन करना युडोमोनिया (नैतिकता से प्रसन्नता) को प्राप्त करने के लिये आवश्यक तथा पर्याप्त दोनों ही है। स्टोइकवादि मानते है कि युडोमोनिया पाने के लिये चार प्रधानतम सद्गुणों (व्यवहारिक प्रज्ञा (φρόνησις/prudentia ), न्याय (δικαιοσύνη/iustitia), साहस (ἀνδρεία/ fortitudo) और आत्मसंयम (σωφροσύνη/temperantia)) का पालन करना चाहिये और प्रकृति के अनुरुप जीवन जीना चहिये।

स्टोइकवाद(निस्पृहतावाद)
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रोमन सम्राज्ञी मार्कस औरेलियस, एक प्रसिद्ध स्टोइकवादि दार्शनिक थे।
विद्या विवरण
अधिवर्गसद्गुण नीतिशास्त्र, हेलेनीय दर्शन
विषयवस्तुआत्म-नियंत्रण और जितेन्द्रियता की नीति
प्रमुख विद्वान्
इतिहासस्टोइकवाद का इतिहास

यह विनाशकारी भावनाओं पर काबू पाने के साधन के रूप में तथा आत्म-नियंत्रण और दृढ़ता के विकास को सिखाता है। यह भावनाओं को प्रतिस्पर्धात्मक रूप से बुझाने की कोशिश नहीं करता है, बल्कि उन्हें एक आकस्मिक असंतोष (सांसारिक सुख से स्वैच्छिक रोकथाम) द्वारा बदलने की कोशिश करता है, जो एक व्यक्ति को स्पष्ट निर्णय, आंतरिक शांति और पीड़ा से स्वतंत्रता प्राप्त करने में सक्षम बनाता है (जिसे अंतिम लक्ष्य माना जाता है)।

सिकंदर महान् की मृत्यु के बाद ही विशाल यूनानी साम्रज्य के टुकड़े होने लगे थे। कुछ ही समय में वह रोम की विस्तारनीति का लक्ष्य बन गया और पराधीन यूनान में अफलातून तथा अरस्तू के आदर्श दर्शन का आकर्षण बहुत कम हो गया। यूनानी समाज भौतिकवाद की ओर झुक चुका था। एपीक्यूरस ने सुखवाद (भोगवाद) की स्थापना (306 ई. पू.) कर, पापों के प्रति देवताओं के आक्रोश तथा भावी जीवन में बदला चुकाने के भय को कम करने का प्रयत्न आरंभ कर दिया था। तभी ज़ीनो ने रंगबिरंगे मंडप (स्टोआ) में स्टोइक दर्शन की शिक्षा द्वारा, अंधविश्वासों को मिटाते हुए, अपने समाज को नैतिक जीवन का मूल्य बताना प्रारंभ किया।

इस दर्शनपरंपरा को पुष्ट करनेवालों में ज़ीनों के अतिरिक्त, क्लिऐंथिस और क्रिसिप्पस के नाम लिए जाते हैं। "स्टोइक दर्शन" को तीन भागों में प्रस्तुत किया जाता है- तर्क, भौतिकी तथा नीति।

स्टोइक तर्क संपादित करें

स्टोइक दार्शनिकों को अफलातून और अरस्तू का प्रत्ययवाद स्वीकार्य न लगा। उनके विचार से, चेतना से बाह्य प्रत्ययों की कोई सत्ता नहीं। वे मात्र विचार हैं, जिन्हें मन वस्तुओं से अलग करके देखता है। ज्ञान को मन की कृति मानकर वे उसे निराश्रित कल्पना नहीं बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने कहा, ज्ञान इंद्रियद्वारों से होकर मन तक पहुँचता है। स्टोइक दार्शनिकों ने ही, पहले पहल मन को कोरी पट्टी (टेबुला राजा) ठहराया था। किंतु, आधुनिक अंग्रेज विचारक जॉन लॉक (1632-1714) की भाँति, स्टोइक मन को निष्क्रिय ग्राहक नहीं मानते थे। वे उसे क्रियाशील समझते थे। पर मन की क्रियाशीलता के लिए ऐंद्रिक प्रदत्तों की वे आवश्यकता समझते थे। जर्मन दार्शनिक इमैनुएल कांट (1724-1804) की ज्ञानमीमांसा पढ़ते हुए हमें स्टोइक दार्शनिकों की इसीलिए याद आ जाती है। किंतु ज्ञान की उत्पत्ति में मन की मौलिकता नष्ट कर देने पर ज्ञान की सत्यता के प्रसंग में स्टोइकों को उसी प्रकार की कठिनाइयो का अनुभव हुआ जैसी कठिनाइयाँ लॉक और कांट के सामने आगे चलकर उपस्थित हुईं। ज्ञान को उन्होंने वस्तुतंत्र माना था। वस्तुएँ इंद्रियों पर अपने प्रभाव छोड़ती हैं। इन्हीं के माध्यम से मन वस्तुओं को जानता है। अब प्रश्न उठता है कि ऐंद्रिक प्रभावों की माध्यमिकता से मन जिस वस्तुजगत् को जानता है, वह उससे बाह्य है, तो ज्ञान की सत्यता की परीक्षा कैसी हो सकती है? सभी यथार्थवादियों के लिए यह एक कड़ी गुत्थी है। या फिर हेनरी बर्ग्साँ (1859-1941) की भाँति, अपरोक्षानुभूति स्वीकार की जाए। स्टोइकों ने ऐसा कुछ तो माना न था। इसलिए उन्हें यह मानना पड़ा कि सत्य वस्तुओं के प्रभावों अथवा प्रतिबिंब, स्वप्नों और मात्र कल्पनाओं के प्रतिबिंबों से कहीं अधिक स्पष्ट होते हैं। वे अपनी जीवंतता से हमारे भीतर सत्यता की भावना या विश्वास उत्पन्न करते हैं। यह आत्मगत भावना या विश्वास ही सत्य की कसौटी है। इस प्रकार स्टोइक दार्शनिकों ने ज्ञानात्मक व्यक्तिवाद का बीजवपन किया।

स्टोइक भौतिकी संपादित करें

भौतिकी के अंतर्गत स्टोइकों की पहली मान्यता यह थी कि किसी अशरीर वस्तु का अस्तित्व नहीं होता। उन्होंने ज्ञान को भौतिक संवेदना पर आधारित किया था। इसलिए पदार्थ की सत्ता को, जिसे हम ऐंद्रिक संवेदना द्वारा जानते हैं, स्वीकार करना आवश्यक था। किंतु वे सत्तात्मक द्वैत अथवा बहुत्व को स्वीकार करना अयुक्त समझते थे। वे अद्वैतवादी थे अतएव उनके लिए पदार्थ की ही एकमात्र सत्ता थी। पर उन्होंने आत्मा और ईश्वर का निराकरण नहीं किया। उन्हें भी पदार्थ में ही स्थान दिया। ईश्वर और आत्मा संबंधी परंपरागत विचारों से यह मत भिन्न अवश्य है किंतु स्टोइक दार्शनिकों ने अविरोध के नियम के आग्रह से ही इसे स्वीकार किया था। उनकी ज्ञानमीमांसा पदार्थ की सत्ता सिद्ध कर रही थी। संसार की एकता की व्याख्या के निमित्त उसे एक ही स्रोत से उद्भुत मानना उचित था। आत्मा और शरीर के संबंध पर विचार करने से भी उन्हें यही युक्तियुक्त प्रतीत हुआ। आत्मा और शरीर एक दूसरे पर क्रियाएँ और प्रतिक्रियाएँ करते हैं। आत्मा शरीर की चेतनता अथवा बुद्धि है। आत्मा की स्थापना करने के साथ ही वैश्व चेतना या वैश्व बुद्धि की स्थापना आवश्यक हो जाती है। इसलिए उन्होंने ईश्वर और संसार में वही संबंध माना जो व्यक्तिगत बुद्धि और शरीर में होता है। इन विचारों का उन्होंने यूनानी दर्शन के प्राचीन प्राथमिक सामग्री या उपादान के विचार के साथ समन्वय किया। हेराक्लाइटस ने ईसापूर्व छठी शताब्दी में कहा था, अग्नि वह प्राथमिक तत्व है जिससे विश्व का निर्माण हुआ। स्टोइक दार्शनिकों को अग्नि और बुद्धि में स्वभावसाम्य दिखाई दिया और उन्होंने कहा कि प्राथमिक अग्नि ही ईश्वर है। इस प्रकार उन्होंने एक सर्ववाद (पैंथीज्म) की स्थापना की, जिसमें संसार के मौलिक उपादान या प्रकृति, ईश्वर, आत्मा, बुद्धि और पदार्थ के अर्थों में कोई मौलिक अंतर न था। इस मान्यता के आधार पर स्टोइकों को यह मानने में कोई कठिनाई न थी कि विश्व बौद्धिक नियम के अधीन है। इस प्रकार पदार्थवाद का समर्थन करते हुए भी स्टोइक दार्शनिकों ने संसार की व्यवस्था, संगति, सुंदरता आदि की व्याख्या के निमित्त एवं व्यापक चेतन प्रयोजन खोज लिया।

स्टोइक नीति संपादित करें

किंतु अब उनके पास व्यक्ति की स्वतंत्रता की स्थापना के लिए कोई उचित तर्क नहीं रह गया था। उसके स्वभाव में बौद्धिक नियम की व्याप्ति होने से, वह जो कुछ करता है, स्वाभाविक है, बौद्धिक है। यह वही कठिनाई थी जो जर्मन दार्शनिक इमैनुएल कांट के नैतिक मन में आकर अटक गई। पर स्टोइक दार्शनिकों ने सैद्धांतिक स्तर से नीचे उतरकर इसका व्यावहारिक उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि प्रकृति में बौद्धिक नियम की व्याप्ति के कारण मनुष्य बौद्धिक प्राणी है। प्राकृतिक नियमों के अनुसार सभी कुछ होता है; उसी के अनुसार प्राणिमात्र के व्यापार संपन्न होते हैं। किंतु मनुष्य को यह सुविधा है कि वह अपने कर्मों को, जो नियमित हैं, स्वीकार कर सके। बुद्धिमान् मनुष्य जानता है कि उसका जीवन विश्व के जीवन में समाहित है। वह जब अपनी स्वतंत्रता की बात सोचता है तो शेष मनुष्यों की स्वतंत्रता की बात भी सोचता है और तभी उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता सीमित हो जाती है। किंतु दूसरों की स्वतंत्रता की स्वीकृति से अपनी स्वतंत्रता सीमित करने में उसे बाध्यता का अनुभव नहीं होता। इन स्टोइक विचारों से अवगत होकर, जब हम काँट को यह कहते हुए पाते हैं कि "दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार करो जैसा अपने साथ किए जाने पर तुम्हें कोई आपत्ति न हो" अथवा, "ऐसे कर्म करो कि तुम्हारे कर्म विश्व के लिए नियम बन सकें, तब हमें स्टोइक जीवनदर्शन के व्यापक प्रभाव का भान होता है। स्टोइक दार्शनिकों ने व्यवस्थित व्यक्तिगत जीवन के माध्यम से व्यवस्थित एवं संपन्न सामाजिक जीवन की आशा की थी। व्यक्तिगत जीवन की व्यवस्था के लिए उन्होंने बहुत उपयोगी सुझाव दिए थे। वासनाओं को उन्होंने दुर्गुणों में गिना; सुखों को शुभों में स्थान नहीं दिया; और कर्तव्यपालन को उन्होंने बौद्धिक मनुष्य के गौरव के अनुकूल बताया। कहा जा सकता है कि उन्होंने मनुष्य को स्वतंत्रता का मार्ग न बताकर कठिन आत्मनियंत्रण का मार्ग बताया। बिना आत्मनियंत्रण के व्यवस्थित एवं संतुलित समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। इस दृष्टि से, स्टोइक दार्शनिकों ने पाश्चात्य जगत् को वह मूल मंत्र दिया था, जिसकी सभी सामाजिक विचारकों ने बार बार आवृत्ति की। जर्मन दार्शनिक कांट के मत में स्टोइक नीति की व्याप्ति का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। अंग्रेज उपयोगितावादियों जेरेमी बेंथम और जॉन स्टुअर्ट मिल के नैतिक मतों का विश्लेषण करने पर भी हम यही पाएँगे कि यद्यपि उन्होंने प्रत्यक्षत: सुखवाद का समर्थन किया था तथापि मूलत: उन्होंने व्यक्ति के हित के माध्यम से समाज के हित की उपलब्धि के स्टोइक नियम का ही आश्रय लिया था। प्रसिद्ध अंग्रेज आदर्शवादी फ्रांसिस हर्बर्ट ब्रैडले (1846-1924) भी समाज में प्रत्येक व्यक्ति के एक निश्चित स्थान का निरूपण करता है और कहता है कि यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्थान के अनुरूप कर्तव्यों का पालन करता रहे, तो वह स्वयं संपन्न जीवन व्यतीत कर सकता है।

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें