हंसावतार, भगवान विष्णु का अवतार है। इसका उल्लेख प्रमुख अवतार के रूप में सर्वप्रथम महाभारत में हुआ है।[1]

श्रीविष्णुसहस्रनाम में भी भगवान् के एक नाम के रूप में 'हंस' का भी प्रयोग हुआ है जिसकी व्याख्या आदि शंकराचार्य ने इस तरह की है - 'अहं सः' (वह मैं हूँ) इस प्रकार तादात्म्यभाव से भावना करने वाले का संसारभय नष्ट कर देते हैं, इसलिए भगवान् हंस हैं। [पृषोदरादिगण में होने के कारण (अहंसः के स्थान पर) हंसः प्रयोग सिद्ध होता है]।[2] इस अवतार से सम्बद्ध सबसे मुख्य बात उपदेश देने की है। महाभारत के शान्तिपर्व में प्रजापति के द्वारा सुवर्णमय हंस का रूप धारण कर साध्यगणों को उपदेश देने की कथा वर्णित है। यद्यपि 'प्रजापति' का अर्थ प्रायः ब्रह्मा मान लिया जाता है परन्तु वस्तुतः यह शब्द अनेक व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसलिए इस शब्द के साथ जुड़े अन्य सन्दर्भों के अनुसार इसका अर्थ निर्धारित होता है। महाभारत में अनेक जगह 'विष्णु' तथा 'कृष्ण' के लिए इसका प्रयोग हुआ है। उक्त कथा में भी 'प्रजापति' को 'अज' और 'नित्य' कहा गया है।[3] अतः यह ब्रह्मा से कहीं अधिक ब्रह्म का वाचक है। इस हंस रूप में साध्यगणों को जो उपदेश दिया गया वही 'हंसगीता' के नाम से भी जाना जाता है।[4] कुल 45 श्लोकों के इस अध्याय में कुल 35 श्लोकों का यह उपदेश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सरल शब्दों में आध्यात्मिकता के साथ व्यावहारिकता का मणिकांचन योग इसकी अतिरिक्त विशेषता है।

बाद में हंस अवतार को गौण माना गया और इसका विस्तृत विवरण पुराणों में उपलब्ध नहीं है। श्रीमद्भागवत महापुराण में इस अवतार को नारद को उपदेश देनेवाला कहा गया है।[5] अन्यत्र इस अवतार के बारे में यह भी माना गया है कि सनकादि ऋषि को इसी रूप में भगवान् ने ज्ञान दिया था और बतलाया था कि विषय और उनका चिन्तन दोनों ही माया है। दोनों में कुछ भेद नहीं है।[6]

सन्दर्भ संपादित करें

  1. महाभारत, शान्तिपर्व-339.103-4 (सटीक, छह खण्डों में, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण-1996ई.
  2. श्रीविष्णुसहस्रनाम, सानुवाद शांकरभाष्य सहित; गीताप्रेस गोरखपुर; संस्करण-1999ई., पृ.108 (श्लोक-34 का भाष्य)
  3. महाभारत, शान्तिपर्व-299.3 (सटीक, छह खण्डों में, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण-1996ई.
  4. महाभारत, पूर्ववत्, शान्तिपर्व, अध्याय-299 की पुष्पिका द्रष्टव्य।
  5. श्रीमद्भागवत महापुराण-2.7.19 (सटीक, दो खण्डों में, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण-2001ई.
  6. पौराणिक कोश, राणाप्रसाद शर्मा, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, संस्करण-1986.पृ.545.

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