हयग्रीव विष्णु के अवतार थे। (हय = घोड़ा और ग्रीव = सिर) जैसा कि नाम से स्पष्ट है उनका सिर घोड़े का था और शरीर मनुष्य का। वे बुद्धि के देवता माने जाते हैं। उन्होंने हयग्रीव नाम के ही दानव का वध किया था जिसका सिर भी घोड़े का और शरीर मनुष्य का था।

कथा संपादित करें

एक बार माता लक्ष्मी की सुंदरता को देखकर भगवान विष्णु मुस्कुराने लगे परन्तु माता लक्ष्मी को लगा कि वे उनका उपहास कर रहे हैं। माता लक्ष्मी ने उन्हें श्राप दिया कि आपका शीश आपके धड़ से विलग होकर अदृश्य हो जाएगा। उसी समय प्रजापति कश्यप और उनकी पत्नी दनु के पुत्र और असुरों के राजा हयग्रीव (जिसका सिर अश्व का और धड़ मनुष्य का था) ने माता पार्वती की घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर माता पार्वती ने उसे वरदान मांगने को कहा उसने कहा कि "माता मुझे अमरत्व प्रदान कीजिए"। उसकी ये इच्छा सुनकर माता बोली कि हे असुर राज विधि के विधान के अनुसार जो प्राणी जन्मा है उसकी मृत्यु अवश्य होगी"। वह बोला कि "माता मेरी इच्छा है कि हयग्रीव के हाथों ही मेरी मृत्यु हो"। माता तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गई। इस वरदान के फलस्वरूप उसने ऋषि मुनियों को सताना शुरू कर दिया एवम् ब्रह्मा जी से वेदों को चुरा ले गया। वेदों के ज्ञान से संसार में अंधकार छा गया। वेदों को चुराने के बाद हयग्रीव ने भगवान श्री हरि विष्णु को युद्ध के लिए ललकारा। भगवान विष्णु उससे युद्ध करने के लिए गए तो उसने अनेकों अस्त्रों से भगवान विष्णु पर प्रहार किया। लेकिन भगवान ने उसके सभी अस्त्रों का प्रतिकार कर दिया। दोनों को अब युद्ध करते हुए एक सप्ताह हो गया था आठवें दिन दोनों थककर विश्राम करने लगे। भगवान विष्णु को धनुष की प्रत्यंचा पर विश्राम करते देखकर ब्रह्मा जी ने अपने तेज़ से एक कीड़ा उत्पन्न किया और उसे नारायण के धनुष की प्रत्यंचा काटने को कहा। उसने ऐसा ही किया लेकिन प्रत्यंचा काटने से एक जोर दार आवाज हुई और भगवान का सिर उनके धड़ से अलग हो गया। उसी समय माता पार्वती द्वारा आकाश वाणी हुई और उन्होंने ब्रह्मा जी से एक घोड़े का मस्तक लाने को कहा। ब्रह्मा जी एक नील वर्ण के अश्व का मस्तक ले आए और अश्विनी कुमारों का भी स्मरण किया गया दोनों ने भगवान के धड़ से उस घोड़े की गर्दन का जुड़ाव किया और भगवान का हयग्रीव अवतार हुआ। भगवान विष्णु ने इसी रूप में हयग्रीव से युद्ध कर उसे मार डाला और वेदों को ब्रह्मा जी को सौंप दिया।