नागर ब्राह्मणो के कुलदेव -हाटकेश्वर महादेव मर्यार्हाघंत्दिलिडग हाटकेनविनिर्मितम ख्यार्तियास्यति सर्वत्रपाताले हाटकेश्वरम

अति प्राचीन समय की बात है आनर्त प्रदेश अर्थात द्वारका के पास में सर्वरूपेण सम्पन्न वन प्रदेश में ऋषि मुनि अपने गृहस्थ धर्म के साथ अपनी पर्णकुटियां बनाकर रहते थे और नित्य वैदिक धर्म का पालन कर यज्ञयादगिक क्रियाओं, वेदो का अभ्यास वैसे ही वेदोपनषि्द के घोष् द्वारा तथा प्रभु प्रीत्यर्थ अनेक तरह की तपश्चर्या के प्रयोग, अग्निहोत्र अग्निषेम आदि याज्ञकी क्रियाए कर वनवास में योग्य फलाहार कर, अपना समय व्यतीत करते थे। उसी समय की बात है कि सती वियोग से व्यथित कैलाशपति शंकर नग्नावस्था मे घूमते फिरते उसी आनर्त प्रदेश में आ पहुचे। भगवान शंकर की स्वर्ण सद्दश तथा तेजपुंजयुक्त काया को देख ऋषि मुनियों की पत्नियो की बुद्धि कामवि्हल हो गई और सारा काम धंधा भूलकर शंकर को देखने लगी। अपनी पत्नियो की यह स्थिती देख ऋषि मुनि अत्यंत खिन्न हो उठे और क्रोधावश मे सदाशिव शंकर को श्राप दिया कि तुमने हमारे आश्रम को दूषित किया है, इसीलिए यह लिंग पृथ्वी पर शीघ्र ही गिर पडेगा। देखते ही देखते शंकर का लिंग पृथ्वी पर और उसी वक्त लिंग धरातल को फाडकर पाताल मे जा बसा। कैलाशपति सदाशिव शंकर को इससे खेद हुआ और लज्जावश उसी क्षण से गुप्त वास करने लगे। भगवान शंकर को गुप्त वास करने के साथ ही पृथ्वी पर अनेक उपद्रव, उत्पात तथा कष्ठ शूरू हो गये। यह सब देख ऋषि मुनि तथा पृथ्वीवासी भयभीत हो उठे। ऐसा लगने लगा की प्रलय आ गया हो। सभी ऋषि मुनि एवं देवतागण ब्रम्हाजी के पास पहूचे और उनकी स्तुती की, उन्हे प्रसन्न किया और पृथ्वी पर हो रहे उत्पादो का कारण पूछा। ब्रम्हाजी समाधिस्थ हुए एवं उस उत्पाद का कारण जाना और मुनियो से कहा कि यह प्रलय का लक्षण नही है बल्कि ऋषियों के श्राप से सदाशिव शंकर का लिंग गिर पडने से उत्पन्न हुई उनकी अस्थित तथा शोकमग्न दशा के कारण ही यह सब हो रहा है। फिर ब्रम्हाजी ने स्वयं सारे देवताओ मुनियों के साथ श्री विष्णु भगवान की स्तुति की और विष्णु सहित सारे मुनि देवता तथा ब्रम्हा आनर्त प्रदेश में पहूचे। सभी ने सदाशिव शंकर की स्तुति की। वंदना कर उन्हें प्रसन्न करने का उपाय शुरू किया और जब शंकर प्रसन्न हुए तब उन्हें संसार के दुख तथा उत्पादों का स्मरण दिलाया। कैलाशपति सदाशिव शंकर ने कहा सती के वियोग से मुझे अत्यंत क्लेश पहूचा एवं इसी वजह से इस लिंग का स्थान भ्रष्ट करने की मेरी इच्छा हुई थी और मैं दिग्मबर वेश में वन उपवन में फिरता हुआ इस आनर्त प्रदेश पहुंचा तथा यहां मुनियों तथा ऋषियों के श्राप के कारण ही मैने इस लिंग का त्याग किया है। सदाशिव शंकर की यह बात सुनकर ब्राम्हण विष्णु तथा अन्य देवताओ ने उनसे विनय के साथ कहा कि आप सती के लिए शोक न करें हिमालय में मेनका के यहॉ पार्वती का जन्म होगा और वह पार्वती ही आपकी सती है जिसे आप ग्रहण कर प्रसन्न होंगे। इसिलए आप इस लिंग का पूर्ववत धारण कर लें। शंकर ने लिंग धारण करने के पूर्व देवताओं से कहा कि यदि आज से ब्राम्ह्ण लोग विधिपूर्वक लिंग का पूजन करेंगें तभी मैं इसे धारण करूंगा। अत स्वयं ब्राम्हणौ ने कहा हम भी आपके लिंग की पूजा कर सूखी प्रसन्न होंगें। वैसे आपके लिंग की संसार में पूजा होगी और पृथ्वीवासी आपके लिंग की पूजा कर अपना जीवनयापन कर प्रसन्नता को प्राप्त होंगें। तब प्रसन्न होकर शंकर ने पुन लिंग धारण कर लिया और ब्राम्हणौ विष्णु तथा अन्य देवताओ ने हाटक यानी सोने का लिंग बनाकर पाताल में उसी स्थान पर उसकी स्थापाना कर शास्त्र विधि पूर्वक उसकी पूजा अर्चना कर शंकर को प्रसन्न किया तथा पृथ्वी पर श्री महादेवजी की लिंग पूजा का माहात्यम बढ़ाकर वर्तमान संकट का निवारण किया। फिर ब्राम्हणौ विष्णु तथा अन्य देवता अपने अपने लोग में चले गए। तभी से शिवलिंग का माहात्म्य संसार में बढ गया और पृथ्वी का उत्पाद शांत हो गया। जिस लिंग का ब्रम्हाजी ने स्थापना किया यह श्री हाटकेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध हुआ और नागरों के कुल देवता माने गए।

हाटकेश्वर मन्दिर - .......गुजरात के पुरा ग्रंथो में उल्लेख मिलता है कि वडनगर (चमत्कारपूर) की भूमि राजा द्वारा आभार -चिह्न के रूप में नागरो को भेंट किया था। राजा को एक हिरन को मारकर स्वयम व् अपने पुत्रो को खिलने कर्ण गल्य्त्व मुनि द्वारा एक अभिशाप के कारण जो श्वेत कुश्त हो गया राजा ने नागर सभा से करुना की याचना की, कृनाव्र्ट धरी नागर ने rajaके कष्टों का जड़ी बूटियों और प्राकृतिक दवाओं ...के अपने ज्ञान की मदद से इलाज किया गया। राजा चमत्कारपूर (देश जहाँ वडनगर स्थित है) देश नागरो को दान में देना चाह, परन्तु अपनी करुना का मूल्य न लगाने के कर्ण राजा का इनाम स्वीकार नहीं किया ! नागर ब्राह्मण के 72 परिवार उच्च सिद्धांतों, के थे जिन्होंने दान स्वीकार नही किया राजा चमत्कार की रानी से अनुनय के बाद छह परिवारों ने उपहार स्वीकार कर लिया, परन्तु 66 परिवार जिन्होंने रजा का उपहार स्वीकार नहीं किया अपना देश त्याग चले गए और उनके वंशज साठ गाडियों में अपना कुनबा लेकर चले थे इसीसे सठोत्रा गोत्र के कहलाये ! आज भी वे अपने त्याग ओर आदर्शो के कारण श्रद्धेय हैं। ! एक अन्य किवदन्...ती जो की नागर समाज के तीर्थ पुरोहितो की पोथी के अनुसार यह है की गुजरात के तत्कालीन नवाब नासिर-उद-दीन (महमूद शाह) ई.स. 1537- 1554 के लगभग धर्म परिवर्तन, मुस्लिम वंश में कन्या देना एवं जागीर और सरकारी कामकाज में गैर मुस्लिमो की बेदखली से क्षुब्ध हो गुजरात छोड़ कर मालवा और राजस्थान की और पलायन किया,

साठ बैलगाड़ी में अपना सब कुछ वही छोड़ रात ही रात एकसाथ पलायन करने से साठोत्रा कहलाये ! कहते हैं यात्रा में एक दिन जिस स्थान से मालवा और राजस्थान के दोराहे पर कन्थाल और कालीसिंध के तट पर जिस बैलगाड़ी मे अपने साथ अपने इष्ट व् कुलदेव भगवान हाटकेश्वर का चलायमान शिवलिंग स्वरूप (जिसे वडनगर के प्राचीन व् स्वयम्भू हाटकेश्वर मंदिर में उत्सव एवं शोभायात्राओ में नगर में निकला जाता था) को रात्रि विश्राम के बाद प्रात: सभी चलने को उद्यत हुए तो जिस बैलगाड़ी मे भगवान हाटकेश्वर मुर्तिस्वरूप विराजमान थे बहुत कोशिश के बाद भी आगे नही चला पाए, प्रभु की इच्छा जान सभी नागर जन वही अपने इष्ट देव की पूजन करने लगे! संयोगवश उसी रात महाराणा उदयसिंग को स्वप्न में भगवान हाटकेश्वर के दर्शन हुए और आज्ञा दी की तुम्हारे राज्य की सीमा पर मेरे प्रिय जन भूखे है जाकर उन ब्रहामणों को अन्न आदि दो, महाराणा ने तुरंत अपने स्थानीय प्रतिनिधि को सूचित किया, जब महाराणा उदयसिंग के प्रतिनिधी ने अपने दूतो को आज्ञा दी ओर उन्होंने नागर जनों को भोजन अन्न व् गाये देना चाहा तो उन सभी ने कहा जब तक हमारे इष्ट देव को स्थापित नही कर देते तब तक अन्न नही लेंगे, जब महाराणा उदयसिंग को पता लगा तो उन्होंने सभी नागर को राजभटट की उपाधी दी!तथा राजपुरोहित को भेज कर सोयत कलां में शिवलिंग स्थापित करवाकर गो, भूमि और भोजन आदि की व्यवस्था की ! प्रति वर्ष हाटकेश्वर जयंती पर इसी स्थान पर सभी एकत्र होकर परस्पर मिलेंगे ऐसा विमर्श कर तथा यहाँ मन्दिर स्थान पर एक स्वजन को पूजन में नियुक्त कर, यही से सभी नागर जन अपनी अपनी आजीविका की तलाश में आगे बढ़े, आज उन्ही पुण्य श्लोक पूर्वजो और अपने इष्ट व् कुलदेव भगवान हाटकेश्वर की कृपा से आज हम सब पूर्णत:कुशल मंगल है! भगवान् हाटकेश्वर सदा अपनी करूणा कृपा हम सब पर बनाये रखें!