अतिसूक्ष्मदर्शी (अल्ट्रा-माइक्रॉस्कोप) एक ऐसा उपकरण है जिसकी सहायता से बहुत छोटे-छोटे कण, जो लगभग अणु के आकार के होते हैं और साधारण सूक्ष्मदर्शी से नहीं दिखाई देते, देखे जा सकते हैं। वास्तव में यह कोई नवीन उपकरण नहीं है, केवल एक अच्छा सूक्ष्मदर्शी ही है, जिसकी विशेष रीति से काम में लाया जाता है।

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अतिसूक्ष्मदर्शी के कार्य करने का सिद्धान्त

जब साधारण सूक्ष्मदर्शी साधकर पारगमित (ट्रैंसमिटेड) प्रकाश से वस्तुओं को हम देखते हैं तो वे प्रकाश के मार्ग में पड़कर प्रकाश को रोक देती हैं, जिससे वे प्रकाशित पृष्ठभूमि पर काले चित्रों के रूप में दिखाई देती हैं। परंतु बहुत छोटे कणों को पारगमित प्रकाश द्वारा देखना असंभव है, क्योंकि जितना प्रकाश एक छोटा कण रोकता है उससे बहुत अधिक प्रकाश उस कण के चारों ओर के बिंदुओं से आँख में पहुँच जाता है। इससे उत्पन्न चकाचौंध के कारण कण अदृश्य हो जाता है। यदि सूक्ष्मदर्शी का प्रबंध इस प्रकार किया जाए कि कणों को किसी पारदर्शक द्रव में डाल दिया जाए, जिसमें वे धुले नहीं और फिर इन कणों पर बगल से प्रकाश डाला जाए तो प्रकाश कणों से टकराकर ऊपर रखे हुए एक सूक्ष्मदर्शी में प्रवेश कर सकता है। यदि इस स्थिति में रखे हुए सूक्ष्मदर्शी से कणों को अब देखा जाए तो वे पूर्णत काली पृष्ठभूमि पर चमकते हुए बिंदुओं के रूप में दिखाई देने लगते हैं, क्योंकि द्रव के कण पारदर्शी होने के कारण प्रकाशित नहीं हो पाते। यही अतिसूक्ष्मदर्शी का सिद्धांत है।

आर. ज़िगमौंडी और एच. सीडेंटौफ़ ने अतिसूक्ष्मदर्शी की रीति में बहुत सुधार किए जिससे अत्यंत सूक्ष्म कणों को देखना संभव हो गया है। अब सूर्य के प्रकाश के स्थान पर साधारणत पॉइंटोलाइट लैंप का तीव्र प्रकाश काम में लाया जाता है। इस लैंप में धातु का एक सूक्ष्म गोला अति तप्त होकर श्वेत प्रकाश देता है।

सूक्ष्मदर्शी के सिद्धांत के अनुसार सूक्ष्मदर्शी की विभेदन क्षमता (रिज़ॉल्विंग पावर) की भी एक सीमा है, अर्थात्‌ यदि कणों का आकार हम छोटा करते चले जाएँ तो एक ऐसी अवस्था आ जाएगी जिससे अधिक छोटा होने पर कण अपने वास्तविक रूप में पृथक्‌ दिखाई नहीं देगा। सूक्ष्मदर्शी के अभिदृश्य ताल (ऑब्जेक्टिव) का मुख व्यास (अपर्चर) जितना ही अधिक होगा और जितने ही कम तरंग दैर्घ्य का प्रकाश कणों को देखने के लिए प्रयुक्त किया जाएगा, उतनी ही अधिक विभेदन क्षमता प्राप्त होगी। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि किसी सूक्ष्मदर्शी की विभेदन क्षमता उसके अभिदृश्य ताल के मुख व्यास की समानुपाती और प्रयुक्त प्रकाश के तरंगदैर्घ्य की प्रतिलोमानुपाती होती है। साधारण सूक्ष्मदर्शी चाहे कितना ही बढ़िया बना हो, वह कभी किसी ऐसी वस्तु को वास्तविक रूप में नहीं दिखा सकता जिसका व्यास प्रयुक्त प्रकाश के तरंगदैर्घ्य के लगभग आधे से कम हो। परंतु अतिसूक्ष्मदर्शी की सहायता से, अनुकूल परिस्थितियों में, इतने छोटे-छोटे कण देखे जा सकते हैं जिनका व्यास प्रकाश के तरंगदैर्घ्य के १,१०० भाग के बराबर हो। इन कणों को अतिसूक्ष्मदर्शीय कण कहते हैं। यदि इन कणों को साधारण रीति से सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखने का प्रयत्न किया जाए तो वे दिखाई नहीं देते, जिसका कारण पहले बताया जा चुका है। दिन के समय आकाश में तारे न दिखाई देने का भी कारण यही है।

यदि पहले बताई गइ रीति से अति सूक्ष्म कणों पर एक दिशा से तीव्र प्रकाश डाला जाए और सूक्ष्मदर्शी के अक्ष को उससे लंब रखकर उन कणों को देखा जाए तो अति सूक्ष्म होने के कारण प्रत्येक कण प्रकीर्णन (स्कैटरिंग) द्वारा प्रकाश को आँख में भेज देगा। तब वह चमकते हुए वृत्ताकार विवर्तन बैंडों (डफ्रेिक्शन बैंड्स) से घिरा हुआ होने के कारण प्रकाशित गोल चकती की भाँति दिखाई देने लगेगा। इन चकत्तियों का आभासी व्यास कणों के वास्तविक व्यास से बहुत बड़ा होता है। इसलिए इन चकतियों के व्यास से हम कणों के आकार के विषय में कोई निश्चित ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते, परंतु फिर भी उनसे कणों के अस्तित्व को समझ सकते हैं, उनकी संख्या गिन सकते हैं और उसके द्रव्यमानों तथा गतियों का पता लगा सकते हैं।

अतिसूक्ष्मदर्शी जिस सिद्धांत पर काम करता है उसका उदाहरण हम अपने दैनिक जीवन में उस समय देखते हैं जब सूर्य प्रकाश की किरणें किसी छिद्र से कमरे में प्रवेश करती हैं और हवा में उड़ते हुए असंख्य अतिसूक्ष्म कणों के अस्तित्व का ज्ञान कराती हैं। यदि आने वाली किरणों की ओर आँख करके हम देखें तो ये अतिसूक्ष्म कण दिखाई नहीं देंगें।

सन्‌ १८९९ ई. में लॉर्ड रैले ने गणना से सिद्ध कर दिया कि जो कण अच्छे से अच्छे सूक्ष्मदर्शी द्वारा साधारण रीति से पृथक्‌ पृथक्‌ नहीं देखे जा सकते उनको अधिक तीव्र प्रकाश से प्रकाशित करके अतिसूक्ष्मदर्शी की रीति से हम देख सकते हैं, यद्यपि इस रीति से हम उनके वास्तविक आकार का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते।

अतिसूक्ष्मदर्शी द्वारा बहुत से विलयनों (सोल्यूशंस) की परीक्षा से पता चलता है कि उन विलयनों के भीतर या तो ठोस के छोटे-छोटे कण कलिलीय अवस्था) कलॉयड स्टेट) में तैरते रहते हैं या ठोस पूर्ण रूप से विलयन में मिला रहता है। उसकी सहायता से कलिलोय विलयनों में ब्राउनियन गति का भी अध्ययन किया जाता है।

यदि काँच की पट्टी पर थोड़ा सा कांबोज (गैंबूज) रगड़कर उस पर पानी की दो बूँदें डाल दी जाएँ और तब अतिसूक्ष्मदर्शी से पानी की परीक्षा की जाए तो असंख्य छोटे-छोटे कण बड़ी शीघ्रता से भिन्न-भिन्न दिशाओं में इधर-उधर दौड़ते हुए दिखाई देंगे। इस गति को सबसे पहले सन्‌ १८२७ ई. में आर. ब्राउन ने देखा था, इसलिए उनके नाम पर इसे ब्राउनियन गति कहते हैं।

यदि बिजली से हवा में चाँदी का आर्क जलाया जाए तो उससे भी चाँदी के कलिलीय कण प्राप्त होते हैं, जिनको पानी में डालकर ब्राउनियन गति देखी जा सकती है। इस गति में कण आश्चर्यजनक वेग से इधर-उधर भागते हुए दिखाई देते हैं जिनकी तुलना धूप में भनभनाते हुए एक मच्छर समुदाय से की जा सकती है।

अतिसूक्ष्मदर्शी द्वारा दिखाई देने वाले कणों की सूक्ष्मता प्रकाश की तीव्रता पर निर्भर रहती है। प्रकाश की तीव्रता जितनी अधिक होगी उतने ही अधिक सूक्ष्म कण दिखाई देने लगेंगे।