अतीन्द्रिय क्षमता का सामान्य परिचय

मनुष्य स्वयं ही एक जादू है। उसकी चेतना चमत्कारी है। उसकी दौड़ जिधर भी चल पड़ती है, उधर ही चमत्कारी उपलब्धियां प्रस्तुत करती है। बाह्य जगत की अपेक्षा अंतर्जगत की शक्ति अदृश्य होकर भी कहीं अधिक प्रखर और प्रभावपूर्ण होती है। मस्तिष्क में क्या विचार चल रहे होते हैं, यह दिखाई नहीं देता, पर क्रिया व्यापार की समस्त भूमिका मनोजगत में ही बनती है। अंतर्जगत विशाल और विराट है, उससे एक व्यक्ति ही नहीं, बड़े समुदाय भी प्रेरित और प्रभावित होते हैं।

लोग जानकारी प्राप्त करने के लिए सामान्यतः अपनी पांच इन्द्रियों- आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा का प्रयोग करते हैं, किन्तु संसार में ऐसे व्यक्ति भी हैं जो कि इन्द्रियों के प्रयोग के बिना ही असामान्य विधियों से जानकारी प्राप्त कर लेते हैं।

असामान्य विधियों के द्वारा जानकारी प्राप्त करने की इस क्षमता को परामनोविज्ञान अतीन्द्रिय बोध की संज्ञा देता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अतीन्द्रिय बोध किसी व्यक्ति की छठी इन्द्रिय है। अतीन्द्रिय बोध से प्राप्त जानकारी वर्तमान, भूत या भविष्य में से किसी भी काल की हो सकती है।

अतीन्द्रिय बोध का इतिहास

सन् 1870 में जियोलॉजिकल सोसाइटी के फैलो सर रिचार्ड बर्टन ने सर्वप्रथम अतीन्द्रिय बोध शब्द का प्रयोग किया। पुनः 1870 में ही अतीन्द्रिय बोध शब्द का प्रयोग फ्रांसीसी शोधकर्ता के द्वारा किया गया। 1892 में डॉ. पाल जोरी द्वारा इस शब्द का प्रयोग सम्मोहन से प्रभावित व्यक्तियों के वर्णन के लिए किया गया। यह एक सामान्य विश्वास है कि सम्मोहन से प्रभावित व्यक्ति अतीन्द्रिय बोध का प्रदर्शन करता है। म्यूनिख के आप्थालमोलॉजिस्ट डॉ. रुडोल्फ टिश्नर ने चैतन्यता के भौतिकीकरण के लिए सन् 1920 के दशक में अतीन्द्रिय बोध शब्द का प्रयोग किया। अंततः सन् 1930 में अमेरिका के परामनोवैज्ञानिक जेबी रिने ने अतीन्द्रिय बोध शब्द को लोकप्रिय बना दिया। रिने ही पहले परामनोवैज्ञानिक थे, जिन्होंने अतीन्द्रिय बोध पर प्रयोगशाला में अनेक प्रयोग किए। अतीन्द्रिय बोध के प्रदर्शन से ज्ञात होता है कि भौतिक नियमों के द्वारा इसकी व्याख्या करना अत्यन्त दुष्कर है।

विचार की तरंग

मन में जब कोई तरंग उठती है तो मनुष्य को इसका अहसास नहीं रहता कि वह क्या कर रहा है और उसे क्या करना है? विचार की ऐसी तरंग का प्रभाव विचित्र होता है। पर इसके उलट असर एकाग्रता का होता है। एकाग्रता बहुत बड़ी शक्ति है। जिस व्यक्ति में एकाग्रता की शक्ति विकसित हो जाती है, उसकी सारी शक्ति केंद्रित हो जाती है और वह केंद्रित शक्ति विस्फोट करती है। जैसे किसी शिलाखंड को निकालने के लिए बारूद का विस्फोट किया जाता है, वैसे ही शक्ति के आवरण को हटाने के लिए यह विस्फोट किया जाता है। 

अतीन्द्रिय साधना के उपाय

अतीन्द्रिय ज्ञान की साधना के अनेक उपाय हैं। उनमें दो हैं-इन्द्रिय का संयम और स्थिरीकरण या एकाग्रता। स्थिरीकरण मन का भी होता है और वाणी तथा शरीर का भी, यही एकाग्रता है। जब मन, वाणी और शरीर की चंचलताएं समाप्त होती हैं, तब बाधाएं दूर हट जाती हैं। चंचलता सबसे बड़ी बाधा है। हिलते हुए दर्पण में मुंह दिखाई नहीं देता। स्थिर दर्पण में ही मुंह देखा जा सकता है। जब चेतना स्थिर होती है, तब इसमें बहुत चीजें देखी जा सकती हैं। जब चेतना चंचल होती है, तब उसमें कुछ भी दिखाई नहीं देता। 

निर्विकल्प और एकाग्रता

तीसरा उपाय है- निर्विकल्प होना। निर्विकल्प का अर्थ है, विचारों का तांता टूट जाए। एकाग्रता और निर्विकल्पता में बहुत बड़ा अंतर है। एकाग्रता का अर्थ है, किसी एक बिंदु पर टिक जाना। यह भी एक प्रकार की चंचलता तो है ही। हम अहं या ओम् पर स्थिर हो गए, फिर भी चंचलता है। वहां न कोई विकल्प होता है, न शब्द, न चिंतन और मनन। 

निर्विकल्प अवस्था में न स्फूर्ति रहती है, न कल्पना रहती है। बाहर का कोई भान नहीं रहता। इसमें केवल अंतर्मुखता, आत्मानुभूति, गहराई में डुबकियां लेना होता है। इस स्थिति में आवरण बहुत जल्दी टूटता है। आवरण को बल मिलता है विकल्पों के द्वारा। विकल्प, विकल्प को जन्म देता है। तरंग-तरंग को पैदा करती है। जब विकल्प समाप्त हो जाता है, तब आवरण को पोषण नहीं मिल पाता। वह स्वत: क्षीण हो जाता है। आहार के अभाव में जैसे शरीर क्षीण होता है, वैसे ही पोषण के अभाव में आवरण क्षीण होता जाता है। जिन लोगों ने एकाग्रता साधी है, निर्विकल्पता और समता साधी है, उन्हें ही अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति हुई है। अतीन्दिय ज्ञान के तीन प्रकार हैं -अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। इन सबकी प्राप्ति के लिए समता की साधना एक अनिवार्य शर्त है। जब तक राग-द्वेष या प्रियता-अप्रियता के द्वंद्व में आदमी उलझा रहता है, तब तक आवरण को पोषण मिलता रहता है। जब समता सध जाती है, तब आवरण पुष्ट नहीं होता। आवरण की क्षीणता में ही अतीन्द्रिय चेतना जागती है।

समता की साधना

भगवान महावीर, महात्मा बुद्ध, ईसा मसीह, मोहम्मद साहब आदि जितने भी विशिष्ट व्यक्ति हुए हैं और जिन-जिन को विशिष्ट ज्ञान या बोधि की प्राप्ति हुई है, वह साधना के द्वारा ही हुई है। उस विशिष्ट साधना का एक महत्वपूर्ण अंग है समता। समता की साधना का अर्थ है -इंद्रिय संयम की साधना। इसके अंतर्गत आहार-संयम की बात स्वतः प्राप्त हो जाती है। आहार का संयम हमारी भीतरी शक्ति को जगाने में सहायक होता है। आहार शरीर पोषण के लिए आवश्यक है, तो आहार संयम ज्ञान के स्रोतों को प्रवाहित करने के लिए अनिवार्य है। भोजन से मैल जमता है और वह इतना सघन हो जाता है कि अतीन्द्रिय चेतना के जागरण की बात दूर रह जाती है, इन्द्रिय चेतना भी अस्त-व्यस्त हो जाती है। हमारा शरीर अतीन्द्रिय ज्ञान का स्रोत है। कभी-कभी अचानक कोई घटना घटती है और वे स्रोत उद्घाटित हो जाते हैं, तब आदमी को अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति का अनुभव होने लग जाता है। साधना और आकस्मिकता, ये दोनों अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति में सहायक होते हैं। साधना की अपनी विशेषता है, क्योंकि उसकी एक निश्चित प्रक्रिया होती है। आकस्मिकता कभी-कभार होती है। 

ऐसे जागेगी अतीन्द्रिय चेतना

अतीन्द्रिय चेतना को जगाने की शर्तें 

1. बुरे विचार न आएं।

2. अनावश्यक विचार न आएं।

3. विचार बिलकुल न आएं।

यही विकास का क्रम है। यह न समझें कि आज ध्यान करने बैठे हैं और आज ही विचार आना बंद हो जाएगा। यह संभव नहीं है, क्योंकि हमने अनगिनत संबंध जोड़ रखे हैं। व्यक्ति घर में बैठा है और कारखाना मन में चल रहा है। दुकान में बैठा है और परिवार पीछे चल रहा है। ध्यान-शिविर में आप अकेले आए हैं, पत्नी पीछे है, आपका मन उसकी चिंता में उलझा हुआ है। संबंध जोड़ रखा है हजारों चीजों के साथ और विचार किसी का न आए, यह कैसे संभव है।

संबंध और विचार

संबंध और विचार-दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं। जहां संबंध है, वहां विचार का आना अनिवार्य है। यदि ध्यान के लिए आते समय सारे संबंधों से मुक्त होकर आते तो संभव भी हो सकता था, किन्तु बंध कर आते हैं, इसलिए इतना जल्दी छूट पाना संभव नहीं है। इस सूत्र पर ध्यान दें- जितने ज्यादा संबंध मुक्ति का भाव, उतना ज्यादा निर्विचार। आप विचारों को रोकने का प्रयत्न न करें, पहले संबंधों को कम करने का प्रयत्न करें। आपने अनुबंध कर लिया-तीन बजे मिलना है तो ढाई बजे ही आपका मानसिक भाव बदल जाएगा और आप घड़ी देखना शुरू कर देंगे। किसी और काम में फिर मन नहीं लगेगा। अगर आधा घंटा की देरी हो जाए तो आपकी झुंझलाहट बढ़ जाएगी। आप इस भ्रम में न रहें- एक ही दिन में मन के सारे संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाएंगे। ऐसा कभी न सोचें। एक-दो या पांच-सात दिनों के ध्यान से भी ऐसा संभव नहीं होगा। बिलकुल यथार्थवादी होकर चलें, सच्चाई को समझकर चलें। हमने अपने अनुबंधों का जितना विस्तार किया है, संबंधों को जितना विस्तृत किया है, उनके प्रति जब तक हमारी मूच्र्छा कम नहीं होगी, वे संबंध कम नहीं होंगे, तब तक विचारों के प्रवाह को भी रोका नहीं जा सकेगा।

विचार की चिंता छोड़ें

ध्यान करने वाले के लिए यह अपेक्षित है कि वह विचारों की चिंता छोड़े, पहले मूच्र्छा को कम करने की बात सोचें। यदि विचार आते हैं तो वे आपका क्या बिगाड़ते हैं? आप उनके साथ जुड़ते हैं, तभी आपका कुछ बनता-बिगड़ता है, अन्यथा आपको उसे कुछ भी लाभ-हानि नहीं होगी। आप अनुबंधों में फंसते हैं, विचारों में उलझते हैं, उनकी चिंता करते हैं। उनसे प्रभावित होते हैं, तो फिर आपका नुकसान होना ही है, परेशानी बढऩी ही है। हमें विचारों के साथ जुडऩा नहीं है, विचारों के साथ बहना नहीं है। विचार आया और गया। जुड़ें नहीं, मात्र देखें। यदि ऐसा हुआ तो फिर विचार कोई कठिनाई पैदा नहीं कर सकेगा। आप तटस्थ बन जाएं, मध्यस्थ बन जाएं, द्रष्टा और ज्ञाता बन जाएं, विचारों को जानते-देखते रहें, उनकी प्रेक्षा करते रहें, वे आपकी परेशानी और उद्विग्नता का कारण कभी नहीं बनेंगे। जिन लोगों को ध्यानकाल में बहुत विचार आते हैं, उन्हें विचारप्रेक्षा का प्रयोग करना चाहिए। हर शहर के रास्ते से दिन-रात कितनी गाडिय़ां, वाहन दौड़ते रहते हैं। सड़क के किनारे की दुकान का दुकानदार अगर उन्हीं पर ध्यान देता रहे तो पागल हो जाए। वह ध्यान देता है अपने धंधे पर। बाकी सब चीजों को वह देखकर भी अनदेखा कर देता है। ध्यान के साधक को भी यही करना है। यदि यह जागरूकता बनी रहे, दृष्टिकोण सही हो जाए तो सब ठीक हो जाए।

हमारे शरीर में अपार शक्ति

ध्यान की अवस्था में बहुत बुरे विचार आते हैं तो ध्यान ही नहीं हो पाता और यदि कोई विचार न आता तो हम समाधि की अवस्था में चले जाते, ध्यान की जरूरत ही न रह जाती। इसलिए हमारी यह ध्यान की क्रिया बस ठीक-ठाक है। मध्य का मार्ग है यह। न हम अति कल्पना करें और न निराश हों, केवल अपनी जागरूकता पर ध्यान दें, उसे निरंतर बढ़ाएं। देखने में बड़ी शक्ति है। हम देखने का अभ्यास बढ़ाएं। देखने का तात्पर्य हमारी जागरूकता से है। जैसे-जैसे प्रेक्षा की शक्ति बढ़ेगी, विचार आने भी कम हो जाएंगे। जहां आदर नहीं होगा, वहां कोई क्यों आएगा? अगर आप विचार का स्वागत करेंगे, उससे अपनापन जोड़ेंगे तो वे आपके स्थायी मेहमान बनने की कोशिश करेंगे। उपेक्षा करेंगे तो वे स्वतः चले जाएंगे। जैसे-जैसे यह जागरूकता बढ़ेगी, विचार की समस्या समाहित होती चली जाएगी।

मवेशियों का चुम्बकीय सामना

गूगल अर्थ सेटेलाइट इमेजेस की सहायता से किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि मवेशियों के झुंड प्रायः पृथ्वी के चुम्बकीय उत्तर-दक्षिण दिशा में खड़े होने का प्रयास करते हैं। विश्व के 308 स्थानों में 8,510 मवेशियों पर किए गए अध्ययन के निष्कर्ष के अनुसार यही पता चला है कि प्रायः मवेशी पृथ्वी के चुम्बकीय उत्तर-दक्षिण का ही सामना करते हैं। चेक रिपब्लिक में किए गए एक अन्य शोध के अनुसार 2,974 पर किए गए अध्ययन से पता चला है कि सिर्फ मवेशी ही नहीं, हिरण भी पृथ्वी के चुम्बकीय उत्तर-दक्षिण दिशा का सामना करना पसंद करते हैं। भारत में प्राचीन काल से ही दक्षिण दिशा की ओर सिर तथा उत्तर दिशा की ओर पैर कर के सोने की परम्परा रही है, क्योंकि हमारे यहां यह माना जाता है कि इस प्रकार से सोने या लेटने से मनुष्य की जीवनी शक्ति में वृद्धि होती है और यही कारण है कि हिन्दुओं में मृत्यु के समय व्यक्ति को जमीन पर उत्तर दिशा की ओर सिर तथा दक्षिण दिशा की ओर पैर करके लिटाने का रिवाज है, जिससे कि मरने वाले व्यक्ति की जीवनी शक्ति का हृास हो और उसके प्राण आसानी के साथ निकल सकें।

मन से मन का संपर्क

योगनिद्रा का प्रयोग आज एस्ट्रोनोट्स को ट्रेंड करने के लिए दिया जा रहा है, क्योंकि योगनिद्रा के अभ्यास से आप अपनी अतीन्द्रिय शक्ति को जाग्रत कर सकते हैं, छठी इंद्रिय को जाग्रत कर सकते हैं। टेलीपैथिक कम्युनिकेशन कर सकते हैं। अब हवाई जहाज में कोई फेलियर हो जाए, कोई तकनीकी खराबी आ जाए, धरती के सेंटर से संपर्क टूट जाए तो इन अंतरिक्ष यात्रियों को ट्रेंड किया जा रहा है कि वे मन से मन का संपर्क  कर सकें और अपनी समस्या बता सकें, संपर्क साध सकें। यंत्रों से नहीं, मन से। दूर का दर्शन, दूर का श्रवण, ये काल्पनिक शक्तियां नहीं हैं, अत्यंत वास्तविक हैं। आप में से बहुत लोगों ने यह अनुभव किया होगा कि आपके मन में एक बात उठती है, एक प्रश्न उठता है और ठीक उसी समय तुम्हें मुझसे उत्तर मिल जाता है। तीन-चार पत्र आज आए हुए थे। उन्होंने कहा, 'ऐसा कैसे हुआ, हमारे मन में एक विचार आया, आपने उसी का जवाब दे दिया। यह कैसे हुआ?

जो कुछ तुम सोच रहे हो, वह यहां मेरे तक पहुंच रहा है और यह कोई खास शक्ति नहीं है। इसको तुम भी प्राप्त कर सकते हो। योग निद्रा के माध्यम से हम अपनी अतीन्द्रिय शक्तियों को जाग्रत कर सकते हैं। सबसे बढिय़ा बात, जिनका चित्त विश्राम में है, मन विश्राम में है, ऐसे व्यक्ति जब सत्संग सुनते हैं, जब ज्ञान श्रवण करते हैं तो वह ज्ञान उनके लिए फलित होता है। तुम तोते नहीं रह जाते हो। फिर तुम्हारे लिए कथा सुनना एक मनोरंजन नहीं रह जाता। यह तुम्हारे लिए परिवर्तन की क्रिया हो जाती है। अभी मैं जो कुछ बोलता हूं, सच यह है कि शायद उसका पांच प्रतिशत ही आपके अंदर तक पहुंचता है, बाकी तो बस आया और गया। 

शक्तियों को करें जाग्रत

आप अपने ज्ञान को जीवन में लागू नहीं कर पाते। कारण, मन बड़ा बिखरा हुआ है। पर योगनिद्रा से इस बिखरे हुए मन का उपचार किया जा सकता है। चित्त में चैन या विश्राम के साथ जब तुम प्रार्थना करने लगोगे तो तुम्हारी प्रार्थना में भी बल होगा। मतलब, तुम्हारी प्रार्थना तुम्हें अद्भुत आनंद और अद्भुत अनुभूतियों को प्रदान करेगी। अगर तुम भक्त हो तो तुम्हारी भक्ति में गहराई आ जाएगी। अगर तुम ज्ञान के साधक हो तो ज्ञान चिंतन तुम्हारा अच्छा हो जाएगा। अब अगर आपका प्राण, शरीर स्वस्थ और उन्नत हो तो आप एक बड़ी चमत्कारिक शक्ति प्राप्त कर लेते हैं। दुनिया में चमत्कार को नमस्कार है, ज्ञान को नहीं। इसके लिए किसी चमत्कारिक बाबा के पीछे घूमने की जरूरत नहीं, तुम नियमित योगनिद्रा का अभ्यास करो, अद्भुत शक्तियां जाग्रत होने लग जाएंगी। एक बात के लिए सावधान रहिए कि रजोगुणी और तामसिक व्यक्तिके पास जब शक्ति आती है तो वह अपना ही नाश कर लेता है। इसलिए शक्ति आए इसके पूर्व आपका चित्त सात्विक होना चाहिए और ईश्वर में जुड़ा हुआ होना चाहिए। सच तो यह है, जिनमें ये चीज नहीं है, उनकी शक्ति जाग्रत भी नहीं होती। जिनमें ईश्वर प्रणिधान यानी ईश्वर के प्रति एकाग्रता और समर्पण तथा सात्विकता होती है, उनकी शक्तियां सहज से जागने लग जाती हैं। आप अपने अंदर छिपी हुई इन रहस्यमयी शक्तियों को जाग्रत करिए। ऐसी शक्तियों के माध्यम से आप पाश्विकजीवन से ऊपर उठकर देवताओं जैसा जीवन जी सकते हो। जब तुम स्वयं ऋषि हो सकते हो तो फिर पशु की भांति, एक आम इंसान की भांति हंसते-रोते, क्रोधी, कामी, लोभी होते हुए क्यों जिएं। ऐसी कोई चीज नहीं है, जो तुम्हारे लिए प्राप्त करना संभव नहीं। सब चीज तुम प्राप्त कर सकते हो। फिलहाल तो तुम्हारा दिमाग इसमें है कि पैसा कैसे कमाया जाए। धन के पुजारी, पदार्थवादी, भोगवादी लोग कहते हैं कि धन कहां से आए? धन भी कमाया जा सकता है।

एकाग्र चित्त रखें मन को

जब तुम संयमित और एकाग्र चित्त के साथ अपने व्यवसाय को, अपने बिजनेस को चलाओगे तो निश्चित रूप से तुम्हें ऐसे फार्मूले सूझने लगेंगे, जिनसे तुम्हारा व्यापार दिन दुगुनी रात चौगुनी उन्नति करने लग जाएगा। एक चीज समझ लें, जो सफल उद्योगपति हैं या सफल धनपति हैं, वे इसलिए सफल हो सके, क्योंकि उनके पास संकल्पबद्ध और एकाग्र मन था। धैर्य और संतोष के साथ उन्होंने अपने क्षेत्र में काम किया, इसलिए सफलता मिली। जिस व्यक्ति के पास यह शक्ति नहीं है, वह किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता। धन चाहते हो धन कमाओ। शक्ति चाहते हो शक्ति प्राप्त करो, परंतु अंत में आपको यह बात समझना होगी कि धन से आप पदार्थ तो खरीद सकते हैं, धन से आप मन का विश्राम नहीं खरीद सकते। शक्ति से आप दूसरों को दबा तो सकते हैं, पर उस शक्ति का क्या लाभ, जिससे तुम अपने अंधकार और अपने उद्दंडी मन को दबा न सको। शक्ति वही, जिससे आप सार्थक और रचनात्मक उन्नति करें। ज्ञानपूर्वक अपने जीवन को जिएं। धन बुरा नहीं है, शक्ति बुरी नहीं, पदार्थ का सुख भी बुरा नहीं, पर तुम्हें मालूम होना चाहिए कि इसकी एक सीमा है। ये सब इससे अधिक तुम्हें नहीं दे सकते। सत्य पथ पर चलें। सत्य को समझते हुए सत्य की साधना करें तो आप अपने अंदर एक निर्भयता, फियरलेसनेस और शाश्वत आनंद विकसित कर सकते हैं। यह हमेशा आपके पास रहेगा और कभी आपको छोड़ कर नहीं जाएगा।

भवदीय 

शैलेंद्र ठाकुर

रिसर्चर न्यूरो साइन्स