अद्वैत वेदान्त

हिन्दू दर्शन की एक प्रमुख शाखा
(अद्वैत से अनुप्रेषित)

अद्वैत वेदान्त वेदान्त की एक शाखा है। यह यह भारत में उपजी हुई कई विचारधाराओं में से एक है जिसके पुरस्कर्ता आदि शंकराचार्य थे।[1] शंकराचार्य मानते हैं कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है, जीव और ब्रह्म अलग नहीं हैं। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में "अहं ब्रह्मास्मि" ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है। आचार्य शंकर के अद्वैतवाद के पश्चात रामानुज का विशिष्टाद्वैत, मध्वाचार्य का द्वैत, तथा निम्बार्काचार्य का द्वैताद्वैत आदि वेदान्तदर्शन का विकास हुआ। प्रसिद्ध इतिहासकार मैथ्यू अर्नॉल्ड ने अद्वैत वेदान्त को भारत का प्रतिनिधि दर्शन माना है।

अद्वैत वेदान्त के ग्रन्थ

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ग्रन्थ का नाम कर्ता रचनाकाल
ब्रह्मसूत्र बादरायण ४०० ई०
माण्डूक्योपनिषत्कारिका गौडपाद ६०० ई०
भामती वाचस्पति मिश्र ८५० ई०
पञ्चपादिका पद्मपादाचार्य ८५० इ०
आत्मबोधव्याख्यानम् पद्मपादाचार्य ८५० ई०
इष्टसिद्धिः विमुक्तात्म ८२० ई०
संक्षेपशारीरकम् सर्वज्ञात्म ८५० इ०
पदार्थतत्त्वनिर्णय गङ्गापुरि भट्टारक १०-११वीं शताब्दी
खण्डनखण्डखाद्यम् श्रीहर्ष १२वीं शताब्दी
तत्त्वप्रदीपिका चित्सुखः १३वीं शताब्दी
वेदान्तसारः सदानन्दः १५वीं शताब्दी
सिद्धान्तलेशसङ्ग्रहः अप्पय्यदीक्षितः १६वीं शताब्दी
अद्वैतसिद्धिः मधुसूधन सरस्वती १६वीं शताब्दी
वेदान्तपरिभाषा धर्मराजाध्वरिः १६वीं शताब्दी
सिद्धान्तसिद्धाञ्जनम् कृष्णानन्दः १७वीं शताब्दी
तत्त्वकौस्तुभम् भट्टोजि दीक्षित १७वीं शताब्दी
आभोगः लक्ष्मीनृसिंह १७वीं शताब्दी
अद्वैतब्रह्मसिद्धिः सदानन्द काश्मीरक १८वीं शताब्दी
स्वराज्यसिद्धिः गङ्गाधर सरस्वती १९वीं शताब्दी

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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  1. "आदि शंकराचार्य". Archived from the original on 6 जुलाई 2012. Retrieved 12 जनवरी 2013.