अनंत
अनंत (Infinity) का अर्थ होता है जिसका कोई अंत न हो। इसको ∞ से निरूपित करते हैं। यह गणित और दर्शन में एक कांसेप्ट है जो ऐसी राशि को कहते हैं जिसकी कोई सीमा न हो या अन्त न हो। भूतकाल में लोगों ने अनन्त के बारे में तरह-तरह के विचार व्यक्त किये हैं।
अनंत शब्द का अंग्रेजी पर्याय "इनफिनिटी" लैटिन भाषा के 'इन्' (अन्) और 'फिनिस' (अंत) की संधि है। यह शब्द उन राशियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है जिनकी माप अथवा गणना उनके परिमित न रहने के कारण असंभव है। अपरिमित सरल रेखा की लंबाई सीमाविहीन और इसलिए अनंत होती है।
परिचय
संपादित करेंगणितीय विश्लेषण में प्रचलित "अनंत" इस प्रकार व्यक्त किया गया है:
यदि y कोई चर है और f(y) कोई y का फलन है और यदि अब चर y किसी संख्या k की ओर अग्रसर होता है तब f(y) इस प्रकार बढ़ता ही चला जाता है कि वह प्रत्येक दी हुई संख्या n से बड़ा हो जाता है और बड़ा ही बना रहता है चाहे n कितना भी बड़ा हो, तो कहा जाता है कि y=k के लिए f(y) की सीमा अनंत है।
भिन्नों की परिभाषा से स्पष्ट है कि भिन्न व/स वह संख्या है जो स से गुणा करने पर गुणनफल व देती है। यदि व, स में से कोई भी शून्य न हो तो व/स एक अद्वितीय राशि का निरूपण करता है। फिर स्पष्ट है कि 0/स सदैव समान रहता है, चाहे स कोई भी सांत संख्या हो। इसे परिमेय (रैशनल) संख्याओं को शून्य कहा जाता है और गणनात्मक (कार्डिनल) संख्या 0 के समान है। विपरीतत:, व/0 एक अर्थहीन पद है। इसे अनंत समझना भूल है। यदि क/य में क अचर रहता है और य घटता जाता है और क, य दोनों धनात्मक हैं, तो क/य का मान बढ़ता जाएगा। यदि य शून्य की ओर अग्रसर होता है तो अंततोगत्वा क/य किसी बड़ी से बड़ी संख्या से भी बड़ा हो जाएगा।
कैंटर (1845-1918) ने अनंत की समस्या को दूसरे ढंग से व्यक्त किया है। कैंटरीय संख्याएँ, जो अनंत और सांत के विपरीत होने के कारण कभी-कभी अतीत (ट्रैंसफाइनाइट) संख्याएँ कही जाती हैं, ज्यामिति और सीमासिद्धांत में प्रचलित अनंत की परिभाषा से भिन्न प्रकार की हैं। कैंटर ने लघुतम अतीत गणनात्मक संख्या (ट्रैंसफाइनाइट कार्डिनल नंबर) (एक, दो तीन इत्यादि कार्डिनल संख्याएँ हैं; प्रथम, द्वितीय, तृतीय इत्यादि आर्डिनल संख्याएँ हैं।) अ0 (अकार शून्य, अलिफ-जीरो) की व्याख्या प्राकृतिक संख्याओं 1, 2, 3... के संघ (सेट) की गणनात्मक संख्या से की है।
प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में अनन्त
संपादित करेंलगता है कि भारतीयों को अनन्त की संकल्पना वैदिक काल से ही थी। वे अनन्त के मूलभूत गुणों के परिचित थे तथा इसके लिये कैइ शब्दों का प्रयोग किया गया है, यथा - अनन्त, पूर्णं , अदिति, असंख्यत आदि। असंख्यत का उल्लेख यजुर्वेद में आया है।
ईशोपनिषद में यह आया है-
- ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
- पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
- ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
- ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (कार्यब्रह्म) भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। तथा [प्रलयकाल मे] पूर्ण [कार्यब्रह्म]- का पूर्णत्व लेकर (अपने में लीन करके) पूर्ण [परब्रह्म] ही बच रहता है। त्रिविध ताप की शांति हो।
यहाँ 'पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते' को यों समझा जाता है कि अनन्त से अनन्त घटाने पर भी अनन्त ही शेष रहता है।
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- A Crash Course in the Mathematics of Infinite Sets, by Peter Suber. From the St. John's Review, XLIV, 2 (1998) 1-59. The stand-alone appendix to Infinite Reflections, below. A concise introduction to Cantor's mathematics of infinite sets.
- Infinite Reflections, by Peter Suber. How Cantor's mathematics of the infinite solves a handful of ancient philosophical problems of the infinite. From the St. John's Review, XLIV, 2 (1998) 1-59.
- Infinity, Principia Cybernetica
- Hotel Infinity
- Source page on medieval and modern writing on Infinity
- The Mystery Of The Aleph: Mathematics, the Kabbalah, and the Search for Infinity
- Dictionary of the Infinite (compilation of articles about infinity in physics, mathematics, and philosophy)