(१) हठयोग के अनुसार शरीर के भीतर रीढ़ में अवस्थित षट्चक्रों में से एक चक्र का नाम अनाहत है। इसका स्थान हृदय-प्रदेश है। यह लाल पीले मिश्रित रंगवाले द्वादश दलों के कमल जैसा वर्तमान है और उनपर "क' से लेकर "ठ' तक अक्षर हैं। इसके देवता रुद्र हैं।

(२) वह शब्द ब्रह्म जो व्यापक नाद के रूप में सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है और जिसकी ध्वनि मधुर संगीत जैसी है। यूरोप के प्राचीन दार्शनिकों को भी इसके अस्तित्व में विश्वास था और यह वहाँ "म्जूज़िक ऑव दि स्फ़ियर्स' (विश्व का मधुर संगीत) कहलाता था।

(३) वह शब्द वा नाद जो दोनों हाथों के अँगूठो से दोनों कानों को बंद करके ध्यान करने से सुनाई देता है। अनहद शब्द वा सबद।

(४) जो बिना किसी आघात के ही उत्पन्न हुआ हो।

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नाद के लिए कहा गया है कि वह अव्यक्त परमतत्व के व्यक्तीकरण का सूचक आदि शब्द है जो पहले "पूरा' शब्द के सूक्ष्म रूप में रहा करता है और फिर क्रमश: "अपरा' शब्द बनकर अनुभवगम्य हो जाता है। वही ब्रह्मांड वा सृष्टि का मूल तत्त्व प्रणाव अथवा ॐकार है जिसका मानव शरीर में अथवा पिंड में अवस्थित शब्द प्रतिनिधित्व करता है और जिसे, मन की वृत्ति बहिर्मुख रहने के कारण, हम कभी सुन नहीं पाते। इसका अनुभव केवल वहीं कर पाता है जिसकी कुंडलिनी शक्ति जाग्रत हो जाती है और प्राणवायु सुषुम्ना नाड़ों में प्रवेश कर जाती है। सुषुम्ना के मार्गवाले छहों चक्र नीचे से ऊपर की ओर क्रमश: मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध एवं आज्ञा के नामों से अभिहित किए गए हैं और उनके स्थान भी क्रमश: गुदा के पास, मेरू के पास, नाभिदेश, हृदयदेश, कंठदेश एवं भ्रूमध्य माने गए हैं। ये क्रमश: चार, छह, दस, बारह, सोलह एवं दो दलोंवाले कमलपुष्पों के रूप में दिखलाई पड़ते हैं और इन्हीं में से अनाहत में "ब्रह्मग्रंथि', विशुद्ध में "विष्णुग्रंथि' तथा आज्ञा में "रुद्रग्रंथि' के अवस्थान भी स्थिर किए गए हैं। प्राणायाम द्वारा इन चक्रों का भेदन कर पहुँचते हैं तब नाद की आरंभावस्था ही रहती है, किन्तु योगी का हृदय उससे पूर्ण हो जाता है और साधक में रूप, लावण्य एवं तेजोवृद्धि आ जाती है और वह "नानाविध भूषण ध्वनि' सुनता है। फिर जब आगे प्राणवायु के साथ अपान वायु एवं नादबिंदु के अभिमिलन की दशा आ जाती है तब विष्णुग्रंथि में ब्रह्मानंद की भेरी सुनाई पड़ते लगती है और नाद की वह स्थिति हो जाती है जिसे "घटावस्था' कहते हैं। इसी प्रकार तीसरे क्रमानुसार आज्ञाचक्र की रुद्रग्रंथि में जाने तक, मर्द्दल की ध्वनि का अनुभव होने लगता है, अष्टसिद्धियों की उपलब्धि हो जाती है और "परिचयावस्था' की दशा प्राप्त होती है। अंत में ब्रह्मर्ध्रां तथा प्राणावायु के पहुँचने पर चतुर्थ अवस्था "निष्पत्ति' आती है और वंशी या वीण की मधुर ध्वानि का अनुभव होता है। नाद की यही "लयावस्था' है जिसमें सारी वृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती हैं और आत्मा का अवस्थान निज स्वरूप में हो जाता है।

ऐसे वर्णन हठयोग एवं तंत्र के ग्रंथों में न्यूनाधिक विस्तार से मिलते हैं। परंतु गोरखनाथ एवं संत कबीर की कुछ बानियों में किंचित्‌ भिन्न रूप में इसका वर्णन मिलता है जिसके अनुसार सहस्रारमध्य में स्थित चंद्राकार बिंदु से स्रवित होनेवाले "अमृत' नामक द्रव को सूर्याकार स्थान तक आते आते सूखने से बचाकर उसका रसास्वादन करने से अमरत्व का लाभ होता है। सूर्य एवं चंद्र अथवा नाद एवं बिंदु के मिलन से अनाहत तुरही बजने लगाती है (गोरखबानी, सबदी ५४ तथा क. ग्रं.)। यह मिलन हो शिव-शक्ति-मिलन है जो परमस्थिति का सूचक है। अनाहतनाद के श्रवण की एक प्रक्रिया "सुरत शब्द योग' में भी अंतर्भूत है जिसमें सूरति बा शब्दोन्मुख चित्र अपने का क्रमश: नाद में लीनकर आत्मस्वरूप बन जाता है। एक ही नाद प्रणव के रूप में जहाँ निरूपाधि समझा जाता है वहाँ उपधिमुक्त होकर वही सात स्वरों में विभाजित भी हो जाया करता है।

सन्दर्भ ग्रन्थ संपादित करें

  • शिवसंहिता; हठयोग प्रदीपिका; नादविंदूपनिषत्‌; संसोपनिषत्‌; योगतारावलि; गोरक्षसिद्धांतसंग्रह; शारदातिलक; आदि।