जैन धर्म में शास्त्रो की कथन पद्धति को अनुयोग कहते हैं। जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। इन चारों में क्रम से कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है। इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं।

  • प्रथमानुयोग : इसमें संयोगाधीन कथन की मुख्यता होती है। इसमें ६३ शलाका पुरूषों का चरित्र, उनकी जीवनी तथा महापुरुषों की कथाएं होती हैं इसको पढ़ने से समता आती है
  • करणानुयोग: इसमें गणितीय तथा सूक्ष्म कथन की मुख्यता होती है। इसकी विषय वस्तु ३ लोक तथा कर्म व्यवस्था है। इसको पढ़ने से संवेग प्रकट होता है।
  • चरणानुयोग : इसमें उपदेशात्मक कथन की होती है तथा इसमें श्रावक व मुनिराज को करने योग्य कार्य, उनके कर्तव्य व्रतादिक, भक्ष्य अभक्ष्य मर्यादा इत्यादि का होता है। इसको पढ़ने प्रशम जागता है।
  • द्रव्यानुयोग : इसमें निश्चय कथन की प्रमुखता होती है। यद्यपि इसमें निश्चय व व्यवहार कथन दोनों हैं तथापि इसमें शुद्ध कथन की प्रमुखता होती है। इसका प्रतिपाद्य विषय है सात तत्त्व, ६ द्रव्य, ९ पदार्थ लेश्या, मार्गणा, गुणस्थान आदि।

चारों ही अनुयोग वीतरागता पोषक तथा मोक्षमार्ग के पथ प्रदर्शक हैं ये भिन्नता सिर्फ कथन पद्धति की अपेक्षा से है, मूल उद्देश्य तो सबका एक ही है। ध्यातव्य है कि अनुयोगों में करणानुयोग के शामिल होने के कारण ही जैन संस्कृति में गणित के अध्ययन की गणित के अध्ययन और अनुशीलन की विशेष प्रवृति देखने को मिलती है।

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