बौद्ध दर्शन में सामान्य का खंडन करके नामजात्याद्यसंयुत अर्थ को ही शब्दार्थ माना गया है। न्यायमीमांसा दर्शनों में कहा गया है कि भाषा सामान्य या जाती के बिना नहीं रह सकती। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग शब्द हो तो भाषा का व्यवहार नष्ट हो जाएगा। अनेकता में एकत्व व्यवहार भाषा की प्रवृत्ति का मूल है और इसी को तात्विक दृष्टि से सामान्य कहा जाता है। भाषा ही नहीं, ज्ञान के क्षेत्र में भी सामान्य का महत्त्व है क्योंकि यदि एक ज्ञान को दूसरे ज्ञान से पृथक्‌ माना जाए तो एक ही वस्तु के अनेक ज्ञानों में परस्पर कोई संबंध नहीं हो सकेगा। अतएव सामान्य या जाती को अनेक व्यक्तियों में रहनेवाली एक नित्य सत्ता माना गया है। यही सत्ता भाषा के व्यवहार का कारण है और भाषा का भी यही अर्थ है।

बौद्धों के अनुसार सभी पदार्थ क्षणिक हैं अत: वे सामान्य की सत्ता नहीं मानते। यदि सामान्य नित्य है तो वह अनेक व्यक्तियों में कैसे रहता है? यदि सामान्य नित्य है तो नष्ट पदार्थ में रहनेवाले सामान्य का क्या होता है? अत: वह किसी अन्य वस्तु से संबंधित न होकर अपने आपमें ही विशिष्ट एक सत्ता है जिसे स्वलक्षण कहा जाता है। अनेक स्वलक्षण पदार्थों में ही अज्ञान के कारण एकता की मिथ्या प्रतीति होती है और चूंकि लोकव्यवहार के लिए ऐसी प्रतीति की आवश्यकता है इसलिए सामान्य लक्षण पदार्थ व्यावहारिक सत्य तो हैं किंतु परमार्थत: वे असत्‌ हैं। शब्दों का अर्थ परमार्थत: सामान्य के संबंध से रहित होकर ही भासित हाता है। इसी को 'अन्यापोह' या 'अपोह' कहते हैं। अपोह सिद्धांत के विकास के तीन स्तर माने जाते हैं। दिंनाग के अनुसार शब्दों का अर्थ अन्याभाव मात्र होता है। शांतरक्षित ने कहा कि शब्द भावात्मक अर्थ का बोध कराता है, उसका अन्य से भेद ऊहा से मालूम होता है। रत्नकीर्ति ने अन्य के भेद से युक्त शब्दार्थ माना। ये तीन सिद्धांत कम से कम अन्य से भेद को शब्दार्थ अवश्य मानते हैं। यही अपोहवाद की विशेषता है।

शब्द तथा अर्थ सम्बन्ध के विषय मॅ बौद्धॉ का मत अपोहवाद कहलाता है, इस मत के जनक बौद्ध न्याय के प्रतिपादक दिड्नाग माने जाते हैं,
वे अपने प्रमाणसमुच्चय के पाँचवे परिच्छेद में अपोहवाद की संकल्पना प्रस्तुत करते हैं, अपोह का अर्थ है वस्तु से भिन्न का निषेध।
जैसे गौ का अर्थ है अगौ का निषेध, बौद्धो का यह अपोहवाद उनके तात्विक, तार्किक चिंतन की परिणति है।
बौद्धॉ ने अपने तत्त्व चिंतन मॅ यह स्थापित किया है कि किसी भी वस्तु की कोई सनातन या निरपेक्ष सत्ता नहीं है, जो भी सत है वह क्षणिक है, ऐसी स्थिति मॅ स्वभावत यह प्रश्न उठ खडा होता है जब किसी वस्तु का कोई रूप स्थिर नहीं है तो फिर किसी शब्द का संकेतित अर्थ किसे माना जाए तथा क्यॉ माना जाए जब हम किसी वस्तु जैसे गाय को देखकर ऐसा कहतॅ है यह गाय है तो शब्द का उच्चारण करने से पूर्व ही संवेदित वस्तु का स्वरूप परिवर्तित हो जाता है ऐसी स्थिति मॅ शब्द से वस्तु सत का निर्देशन नहीं किया जा सकता है।
वस्तु सत स्वलक्षण है जो ज्ञाता ज्ञेय भेद से रहित तथा निर्विकल्पक है। स्वलक्षण से उत्पन्न संस्कार \प्रत्यय को विकल्पो से युक्त कर वस्तु के सामान्यीक्र्त रूप को ही शब्द द्वारा निर्देशित किया जाता है यह निर्देशन हमेशा निषेध रूप मॅ होता है जब हम कहते है कि ‘ यह गाय है तो यँहा गाय शब्द उन वस्तुओ के अभाव को दिखलाता है जो गाय नहीं है

अपोह के दो रूप माने गए है 1 पर्युदास रूप जो भावात्मक है 2 प्रसज्य प्रतिषेध जो निषेधात्मक है दिड्नाग ने शब्द बौद्ध के संर्दभ में प्रसज्य प्रतिषेध को ही शब्द का वाच्य अर्थ माना था भावात्मक मानस बिबं की कल्पना उन्होंने शब्द के वाच्य अर्थ के रूप मॅ नहीं की थी। शांतरक्षित [परवर्ती बौद्ध आचार्य] इसे स्वीकार करता है

1 यहाँ किसी एक शब्द से संकेतित वस्तु को जानने के लिये असंख्य वस्तुओं का निषेध करना आवश्यक होता है
सभी का निषेध करने हेतु उनका ज्ञान होना चाहिए जो कि असंभव है

2 अपोहवाद को मानने पर व्यावहारिक जीवन मॅ ज्ञान की व्याख्या कठिन हो जाएगी। किसी बालक को हाथी दिखाकर इतना बताना काफी है कि यह हाथी है यहाँ दोहरे निषेध की आवश्यक्ता नहीं है

वस्तुतः अपोहवाद का उद्देश्य भाषा की उस प्रवृति को दूर करना है
जिसमें हम शब्दों के अनुरूप हम बाह्य वस्तुओं को स्वीकार कर लेते है इनके अनुसार शब्द का स्वरूप \अर्थ मानव रचित है