अब्दुर रहमान ख़ान (पश्तो: عبد رحمان خان) सन १८८० से लेकर सन १९०१ तक अफ़ग़ानिस्तान के अमीर थे। इनका जन्म १८४० से १८४४ के बीच और मृत्यु १ अक्टूबर १९०१ में हुई। १८७८-१८८० के द्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध की हार के बाद अफ़ग़ानिस्तान की जो केन्द्रीय सरकारी व्यवस्था चौपट हो गई थी उसे अब्दुर रहमान ख़ान ने फिर से बहाल किया।

'अब्दुर रहमान ख़ान १८८० से १९०१ तक अफ़ग़ानिस्तान के अमीर थे

शुरू की जीवनी

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९ जून १८६३ को तब के अफ़ग़ानिस्तान के अमीर, दोस्त मुहम्मद ख़ान, की हेरात शहर में मृत्यु हो गयी। मरने से पहले, उन्होंने अपने दो बड़े बेटों - अफ़ज़ल ख़ान और आज़म ख़ान - को न चुनते हुए अपने तीसरे बेटे शेर अली ख़ान को अमीर बना दिया। अब्दुर रहमान ख़ान इन्हीं सब से बड़े बेटे अफज़ल ख़ान के बेटे थे। दोस्त मुहम्मद ख़ान के देहांत पर पहले तो लगा के सभी शेर अली ख़ान को गद्दी मिल जाने पर राज़ी हो गए हैं। लेकिन कुछ ही देर में अफज़ल ख़ान ने अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी भाग में शेर अली ख़ान के विरुद्ध बग़ावत शुरू कर दी। इन झडपों में देखा गया के अफज़ल ख़ान में युद्ध में पराक्रम दिखाने वाली कोई भी बात नहीं थी, लेकिन उसके बेटे अब्दुर रहमान ख़ान ने लड़ाई में बहुत साहस दिखाया.

 
अब्दुर रहमान ख़ान

कुछ देर में दोनों भाई, अफज़ल ख़ान और शेर अली ख़ान, में समझौता हो गया। लेकिन तब तक अमीर शेर अली ख़ान को अब्दुर रहमान ख़ान की जुर्रत का खटका हो चूका था और वह उसे एक ख़तरे के रूप में देखने लगा। शेर अली ख़ान ने अब्दुर रहमान ख़ान को अपने दरबार में तुरंत हाज़िर होने का फ़रमान दिया, लेकिन अब्दुर रहमान ख़ान ने अमीर के इरादे भांप लिए। वह आमू दरिया को पार कर के काबुल से बुख़ारा भाग खड़ा हुआ। शेर अली ख़ान ने क्रोधित होकर अफ़ज़ल ख़ान को फ़ौरन कारावास में बंद कर दिया, जिस से दक्षिण अफ़ग़ानिस्तान के कुछ हिस्से भड़ककर विद्रोह कर पड़े. जैसे-तैसे शेर अली ख़ान ने अपनी फौजें लगाकर इस विद्रोह पर क़ाबू पाया ही था के अब्दुर रहमान ख़ान आमू दरिया वापस पार कर के फिर से उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में आ गया। वहाँ उसने अमीर की फ़ौजों में बग़ावत फैला दी और उन्हें अपने साथ ले लिया। कुछ देर तक तो झडपें चलती रहीं लेकिन मार्च १८६६ में अब्दुर रहमान ख़ान और उनके चाचा (आज़म ख़ान) काबुल पहुँच गए और क़ब्ज़ा कर लिया। शेर अली ख़ान ने उनके विरुद्ध कन्दहार से कूच किया और मई १० को दोनों फ़ौजें शेख़ाबाद के पास भिड़ गयी। इस लड़ाई में शेर अली ख़ान के बहुत से सैनिक भगौड़े हो गए और अब्दुर रहमान ख़ान की जीत हुई। उसने तुरंत अपने पिता अफ़ज़ल ख़ान को ग़ज़नी में क़ैद से रिहा किया और उन्हें काबुल में अफ़ग़ानिस्तान का अमीर बना दिया। नए अमीर की सेनाएं शेर अली ख़ान की सेनाओं को हराती गयी और १८६७ में उन्होंने कन्दहार पार भी क़ब्ज़ा जमा लिया।

१८६७ के अंतिम दिनों में अमीर अफ़ज़ल ख़ान की मृत्यु हो गयी और उनके छोटे भाई आज़म ख़ान नए अमीर बन गए। उन्होंने अब्दुर रहमान ख़ान को फिर से उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में अपना क्षेत्रपाल बना दिया। एक वर्ष के अन्दर-अन्दर ही अमीर के ख़िलाफ़ एक नया विद्रोह शुरू हो गया और शेर अली ख़ान फिर से लड़ने आ गया। ३ जनवरी १८६९ को तीनाहख़ान के क़स्बे के पास हुई लड़ाई में शेर अली ख़ान ने आज़म ख़ान और अब्दुर रहमान ख़ान को हरा दिया। दोनों चाचा-भतीजा समरक़न्द भाग गए जहाँ उन्होंने रूस की शरण ली। आज़म ख़ान ने उसी साल, अक्टूबर १८६९, में दम तोड़ दिया।

देश निकाले का जीवन

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अब्दुर रहमान ख़ान ताशकन्द में जाकर बस गए, जो उस समय रूसी तुर्किस्तान नाम के रूस-नियंत्रित क्षेत्र में स्थित था। वहाँ अफ़ग़ानिस्तान पर अंग्रेजों ने भारत से आक्रमण कर दिया और अपनी भारतीय फ़ौजों को लेकर द्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध लड़ा. उन्होंने शेर अली ख़ान को काबुल से खदेड़ दिया। अंग्रेज़ों को अफ़ग़ानिस्तान में घुसते देखकर रूसियों को ख़तरा महसूस हुआ क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान की सीमाएं रूसी तुर्किस्तान से लगती थी और उन्हें लगा के अँगरेज़ इस क्षेत्र में उनके साथ मुक़ाबला करेंगे। उन्होंने ताशकन्द में बसे अब्दुर रहमान ख़ान पर ज़ोर डाला के वह आमू दरिया पार करके अंग्रेज़ों के साथ काबुल के तख़्त के लिए जूझे. मार्च १८८० को दिल्ली ख़बर पहुंची के अब्दुर रहमान ख़ान उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान पहुँच गया है। सोच-विचार के बाद अंग्रेज़ों ने तय किया के लड़ने की बजाय उसे दोस्त बना लें और काबुल में अमीर बन जाने का न्योता दे दें। भारत में अंग्रेज़ी वाइसराय लोर्ड लिटन ने अब्दुर रहमान ख़ान को संदेशा भेजा के उन्हें उसका अफ़ग़ानिस्तान का अमीर बन जाना स्वीकार है और वह कन्दाहार के इर्द-गिर्द के कुछ क्षेत्रों के अलावा बाक़ी अफ़ग़ानिस्तान को उसके हवाले करने को तैयार हैं। कुछ बातचीत के बाद, काबुल में अंग्रेज़ी सरकार के नुमाइंदे लॅपॅल ग्रिफ़िन और अब्दुर रहमान ख़ान के बीच भेंट हुई। इस भेंट के बाद लॅपॅल ग्रिफ़िन ने अपनी सरकार को अब्दुर रहमान ख़ान के बारे में कुछ व्यक्तिगत जानकारी भी दी। उन्होंने कहा के अब्दुर रहमान ख़ान मंझले क़द के हैं और उनके चेहरे में एक तेज़ मस्तिष्क वाले की चमक दिखती है।

२२ जुलाई १८८० को काबुल में दरबार आयोजित किया गया जिसमें अब्दुर रहमान ख़ान ने अमीर का तख़्त ग्रहण किया। अंग्रेज़ों ने उसे पैसे और हथियार से मदद करने का वायदा किया। उन्होंने उसे बाहरी आक्रमण की सूरत में भी सहायता करने का वचन दिया बशर्ते के वह अंग्रेज़ों के साथ दोस्ती क़याम रखे और रूस का ज़्यादा साथ न दे। अंग्रेज़ी और भारतीय सैनिक धीरे-धीरे अफ़ग़ानिस्तान से हट गए और १८८१ में उन्होंने कंदाहार को भी अमीर के हवाले कर दिया।

इन्हें भी देखें

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