संभ्रांत वर्ग

(अभिजन से अनुप्रेषित)

संभ्रांत वर्ग या ऍलीट​ (elite) समाजशास्त्र और राजनीति में किसी समाज या समुदाय में उस छोटे से गुट को कहते हैं जो अपनी संख्या से कहीं ज़्यादा धन, राजनैतिक शक्ति या सामाजिक प्रभाव रखता है। लेकिन ऐसा कदापि नहीं है की जो धन, बल में श्रेष्ठ है वो सम्भ्रांत है। सम्भ्रांत का अर्थ वास्तव में किसी व्यक्ति की सामाजिक स्थिति के सम्पन्न होने से होता है। भले ही उसके पास धन, बल ना हो किंतु यदि वो समाज में अपने आचार-विचार के द्वारा लोगों को प्रभावित कर सकता हो और लोग उसकी कही बात, व्यवहार को अमल करते हों तो वो सही मायने में सम्भ्रांत है। सम्भ्रांत का सही मायने में अर्थ सकारात्मक और सही तरीक़े अपना कर समाज में अपनी जगह बनाए जाने वाले के लिए ही इस्तेमाल होता है। अकसर लोग english में elite को सम्भ्रांत समझते हैं जबकि सम्भ्रांत कहीं ज़्यादा व्यापक दायरा रखता है। इसको महज़ धन बल से नहीं मापा जाना चाहिए।[1] समाज के अन्य वर्गों की तुलना में संभ्रांत वर्ग अपने क्षेत्र में अधिक शक्तिशाली होता है।[2]

सामाजिक जीवन के किसी भी क्षेत्र में नियंत्रणकारी संरचनाओं के शीर्ष पर मौजूद छोटे से और अपेक्षाकृत समरूप समूह को अभिजन की संज्ञा दी जाती है। इसके समानार्थक लैटिन शब्द ‘इलीट’ का मतलब है चुना हुआ या सर्वश्रेष्ठ। इलीट बनने के लिए लिए सत्ता, सुविधा, योग्यता और संगठन और नेतृत्वकारी क्षमता होना अनिवार्य है। किसी भी व्यवस्था या प्रणाली को जारी रखने के लिए ज़रूरी समझा जाता है कि उसके संचालन की बागडोर कुछ सुयोग्य व्यक्तियों के समूह के हाथ में रहे और समय-समय पर उनकी जगह लेने के लिए वैसी ही क्षमताओं से लैस लोगों का चयन किया जाता रहे। यह आग्रह शीर्ष या नेतृत्व में अभिजन की निरंतरता की गारंटी करता है।

अभिजन के व्याख्याकार परेटो का कहना है कि इलीट में ख़ास तरह के मनोवैज्ञानिक गुण होते हैं जिनके आधार पर कुटिलता, छल, ताकत और फ़ैसलाकुन पहल कदमी का इस्तेमाल करते हुए वह सत्ता पर काबिज़ रहता है। चूँकि अभिजनों का गुट छोटा सा होता है इसलिए उसे अधिक संगठित और सुसंगत रूप से कार्रवाई करने में आसानी होती है। उसके सदस्य आपस में लगातार सम्पर्क बनाये रखते हैं जिससे आपसी मतैक्य के आधार पर नीति-निर्माण की प्रक्रिया में बाधा नहीं पड़ती। ऐसी बात नहीं कि अभिजन हमेशा ही अपनी सत्ता बचाने में कामयाब रहते हों। उनकी विफलता का दोष आम तौर पर राजनीतिक कौशल या इच्छा-शक्ति के अभाव पर मढ़ा जाता है। समाज के साथ जीवंत सम्पर्क रखते हुए नये विचारों को ग्रहण करके अपना पुनर्संस्कार करते रहने वाले अभिजन लम्बे अरसे तक टिके रहते हैं। जो अभिजन ऐसा नहीं करते, उनका वक्त जल्दी पूरा हो जाता है और उनके ख़िलाफ़ खड़ा हुआ प्रति-अभिजन किसी ‘मास’ या जनसमूह का नेतृत्व करता हुआ उनके हाथ से सत्ता छीन लेता है।

शुरू में अभिजन सिद्धान्त एक लोकतंत्र विरोधी अवधारणा थी जिसका सूत्रीकरण शासकों के प्राधिकार को न्यायसंगत ठहराने के किया गया था ताकि युरोप की विकसित हो रही लोकतांत्रिक शासन पद्धति की वैधता को चुनौती दी जा सके। आगे चल कर बीसवीं सदी के मध्य में इस सिद्धांत की अंतर्दृष्टियों से लोकतांत्रिक सिद्धांत को पुष्ट करने की चेष्टा की गयी। इसके पीछे मकसद साम्यवादी या फ़ासीवादी नेतृत्व में चल रहे जनांदोलनों से उदारतावादी लोकतंत्र को बचाना था। लोकतंत्र में आवश्यक नहीं कि सारे अभिजन सत्ता में ही हों। आज की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में अभिजनों के कई समूह सत्ता की बागडोर अपने हाथ में रखने के लिए आपस में प्रतियोगिता करते हुए देखे जा सकते हैं। पहले से जमे हुए अभिजन-समूह की सदस्यता ग्रहण करने के लिए लोकतंत्र के मंच पर नये अभिजनों का आगमन होता रहता है। शुरू में अभिजनों का चयन केवल उच्च वर्ग से ही किया जाता था, लेकिन अब निचले और वंचित समझे जाने वाले तबकों की नेतृत्वकारी शक्तियाँ भी अभिजनों की श्रेणी में शामिल कर ली जाती हैं। वह लोकतंत्र अधिक सफल और टिकाऊ समझा जाता है जिसके अभिजनों का आकार बढ़ता रहता है। इसके विपरीत जहाँ अभिजन अपना आकार बढ़ने के ख़िलाफ़ मोर्चाबंदी कर लेते हैं, उन लोकतंत्रों में व्यवस्था बार-बार संकटग्रस्त होती रहती है।

अभिजन सिद्धान्त मूलतः इस प्राचीन विश्वास पर आधारित है कि समाज मुट्ठी भर शासकों और बहुसंख्यक शासितों में बँटा होता है। प्लेटो ने शासन करने के लिए ऐसे लोगों की शिनाख्त करने का सुझाव दिया था जिनके पास हुकूमत करने के लिए आवश्यक प्रकृति-प्रदत्त योग्यताएँ हों। इतिहास और राजनीति को समझने का यह एक प्रचलित तरीका है कि उन अभिजनों का अध्ययन किया जाए जिनके पास समाज के विभिन्न क्षेत्रों के संचालन के लिए निर्णय लेने के अधिकार रहे हैं। बीसवीं सदी की शुरुआत में इतालवी समाजशास्त्रियों गेटानो मोस्का और विलफ़्रेडो परेटो के साथ- साथ मोस्का के जर्मन अनुयायी रॉबर्ट मिचेल्स ने लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के विकास के ख़िलाफ़ प्रतिक्रिया करते हुए दावा किया अभिजनों का शासन मानवीय इतिहास एक प्रमुख लक्षण है। यह सूत्रीकरण उन्नीसवीं सदी में मार्क्सवाद द्वारा प्रवर्तित और पुष्ट समतामूलक के के ख़िलाफ़ था। ये सिद्धांतकार मार्क्स से इस बारे में तो सहमत थे कि अतीत में समाजों का नेतृत्व अल्पसंख्यकों के हाथों में रहा है, पर उनका यह भी कहना था कि ये अल्पसंख्यक समूह अनिवार्य तौर पर उत्पादन के साधनों के स्वामी नहीं थे। उनके प्रभुत्व का स्रोत आर्थिक नहीं था, बल्कि उनकी सत्ता विविध स्रोतों से आती थी। यह अलग बात है कि अपने प्रभुत्व का लाभ उठा कर अभिजन बड़े पैमाने पर धन-सम्पत्ति जमा कर लेते थे। मोस्का और परेटो का यह भी कहना था कि भविष्य के समाजों के नेतृत्व (चाहे वे राजशाहियाँ हों, कुलीनतंत्र हों या लोकतंत्र) का पैटर्न भी ऐसा ही रहने वाला है। हालाँकि इन विद्वानों ने आग्रहपूर्वक कहा कि उनका समाज-विज्ञान किसी मूल्य से बँधा हुआ नहीं है, पर इटली में उभरते हुए फ़ासीवाद के प्रति उनकी हमदर्दी किसी से छिपी हुई नहीं थी। परेटो और मिचेल्स तो सीधे-सीधे फ़ासीवाद के समर्थक थे और उदारपंथी मोस्का वामपंथ से अपनी नाराज़गी के कारण फ़ासीवाद को एक मजबूरी की तरह देखते थे। कुल मिला कर इन तीनों सिद्धांतकारों की कोशिश थी कि संसदीय व्यवस्था केवल उच्च और मध्यवर्ग की भागीदारी तक ही सीमित रहनी चाहिए। वे मज़दूरों और किसानों के प्रतिनिधित्व वाली संसद को तिरस्कारपूर्ण दृष्टि से देखते थे।

मार्क्सवादी सिद्धांतकारों और लोकतांत्रिक बहुलतावाद के पैरोकारों ने इस अभिजनवाद को कड़ी चुनौती दी। मार्क्सवादियों ने कहा कि यह सिद्धांत अभिजनों के प्रभुत्व के बुनियादी आधार की शिनाख्त करने में नाकाम रहा है। अभिजन चाहे फ़ौजी हों, धार्मिक हों, राजनीतिक हों या सांस्कृतिक; उनके प्रभुत्व की बुनियाद आर्थिक वर्ग-संबंधों में देखी जानी चाहिए। बहुलतावादियों का तर्क था कि आधुनिक, विकसित और उदारपंथी समाजों में सत्ता और प्रभुत्व के लिए विविध हितों के बीच प्रतियोगिता होती है। इसलिए मुट्ठी भर अभिजनों का गुट सर्वांगीण प्रभुत्व कभी स्थापित नहीं कर पाता। निर्णय की प्रक्रिया का केंद्र सिर्फ़ एक ही नहीं होता। इस हकीकत के विपरीत अभिजनवाद के पैरोकार उदारतावाद के आधार पर खड़े समाजों में सत्ता और उसके स्रोतों का अध्ययन करने के लिए त्रुटिपूर्ण पद्धति अपनाते हैं।

हालाँकि अभिजन सिद्धांत लोकतंत्र विरोधी था, पर बीसवीं सदी के मध्य में जोसेफ शुमपीटर ने लोकतांत्रिक सिद्धांत अभिजन में अभिजन सिद्धान्त का समावेश किया। उन्होने कहा कि लोकतंत्र में भी शासन अभिजनों के हाथ में ही रहना चाहिए ताकि व्यवस्था को प्रभावी और स्थिर हुक्मरान लगातार मिलते रहें। बस शर्त यह है कि ऐसे अभिजनों का चयन लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के माध्यम से किया गया हो। यह वैचारिक इंजीनियरिंग करने के पीछे शुमपीटर का उद्देश्य उदारतावादी लोकतंत्र को फ़ासीवाद अथवा कम्युनिज़म का समर्थन करने वाले व्यवस्था-विरोधी अभिजनों के नेतृत्व में चलने वाले आंदोलनों से बचाना था।

बहुलतावादी सिद्धांत को आड़े हाथों लेते हुए शुमपीटर ने कहा कि सत्ता और निर्णय की बहुकेंद्रीयता का उदारतावादी दावा सही नहीं है। दरअसल प्रभुत्व के लिए आपस में होड़ करने वाले समूहों का नियंत्रण कुछ थोड़े से नेताओं के हाथ में रहता है जो आवश्यक नहीं कि अपने समूह के सदस्यों की इच्छाओं और ज़रूरतों के हिसाब से ही चलते हों। इसलिए समूहों के बीच की प्रतियोगिता उनके नेताओं के बीच की प्रतियोगिता बन जाती है। नतीजे तौर बहुलतावादी लोकतंत्र अभिजनवादी लोकतंत्र में बदल जाता है। इस विचार के लोकतंत्र का टिकाऊपन और विकास निष्क्रिय नागर समाज पर निर्भर न हो कर, उसके अभिजनों की सक्रियता और प्रतिबद्धता का ही परिणाम होता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था हो या निरंकुशता, अभिजनों के महत्त्व से पूरी तरह से इनकार करना मुश्किल है। कुछ विद्वानों का तर्क है कि उदारतावादी लोकतंत्र के व्याख्याकार ज़्यादा ध्यान जनसमूहों के प्रभाव में लिए जाने फ़ैसलों पर देते हैं। इस तरह अभिजनों द्वारा ली गयी पहलकदमियों की भूमिका पर पूरा प्रकाश नहीं पड़ पाता। इलीट-स्टडी में दिलचस्पी रखने वाले समाज-वैज्ञानिक सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के नेताओं की सामाजिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि की जाँच करके यह पता लगाने की कोशिश करते हैं कि किन कारकों के प्रभाव में उन्हें अभिजन-समूह में शामिल किया गया। अगर समाज के किसी हिस्से में एक से ज़्यादा अभिजन समूह सक्रिय हैं तो यह पता लगाया जाता है कि उनके बीच किस तरह का सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और विचारधारात्मक अंतर्संबंध है; और उनमें एकीकृत होने की सम्भावनाएँ हैं या नहीं। इलीट-स्टडी का एक दूसरा आयाम अभिजनों और जनता के बीच संबंधों का अध्ययन है। इसमें यह जानने की कोशिश की जाती है कि ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर इस तरह के संबंध का संचार किस तरह होता है। इस संबध की ख़ामियाँ-ख़ूबियाँ तय करती हैं कि इलीट को प्रतिस्थापित करने की इच्छा रखने वाली ताकतों की स्थिति क्या है। इस विश्लेषण से ही तय होता है कि किसी विशिष्ट अभिजन को हटाने के लिए शांतिपूर्ण या क्रांतिकारी तरीकों के पीछे क्या कारण काम कर रहे थे।

अमेरिकी अभिजन का अध्ययन करने वाले सी. राइट मिल्स ने ‘पावर इलीट’ की अवधारणा का सूत्रीकरण किया है। मिल्स के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका में तीन तरह के अभिजन एकीकृत हो कर हुकूमत करते हैं। ये हैं औद्योगिक, राजनीतिक फ़ौजी। दिलचस्प बात यह है कि अन्य सिद्धांतकारों के विपरीत मिल्स यह दिखाते हैं कि अभिजनों की इस तिकड़ी से मिल कर बनने वाला पावर इलीट लोकतंत्र के लिए किस तरह से नुकसानदेह है।

अभिजन सिद्धांत ने संस्कृति-अध्ययन के क्षेत्र में भी हस्तक्षेप किया है। मास सोसाइटी के उभार की आलोचना करने वाले यह मान कर चलते हैं कि समकालीन मास मीडिया और उससे निकलने वाली लोकप्रिय जन-संस्कृति अभिजन संस्कृति की श्रेष्ठता के लिए घातक होती है।

संभ्रांत वर्ग कई प्रकार के हो सकते हैं, उदाहरण के लिए -

  • सामाजिक - इन लोगों का सामाजिक स्तर सबसे ऊँचा होता है। इनके जैसे दिखने वाले, वेशभूषा वाले और बोलचाल वाले लोगों को समाज में सबसे ऊँचा दर्जा दिया जाता है। अक्सर लोग इनके जैसे दिखने की चेष्टा करते हैं और टेलिविज़न और चलचित्रों में इन्हें को अच्छी छवि के साथ दर्शाया जाता है। समाजशास्त्री इस सन्दर्भ में अक्सर मेक्सिको का उदाहरण देते हैं जहाँ हर रंग के लोग हैं लेकिन उस देश में स्पेनी क़ब्ज़े के बाद से श्वेत रंग, सुनहरे बाल और यूरोपीय लगने वाले लोगों को ऊँचा स्तर दिया जाता है। मेक्सिकी टेलिविज़न कार्यक्रमों में अक्सर उस देश के अल्संख्यक श्वेत समुदाय के लोग ही दर्शाए जाते हैं और इश्तेहारों में भी उन्ही को ज़्यादा देखा जाता है।[3]
  • आर्थिक - यह समाज के सबसे धनवान लोग होते हैं और अक्सर अपने प्रभाव से अपने इस स्थान को बनाए रखने के लिए राजनैतिक और न्याय प्रणाली का भी उपयोग करते हैं। कई स्रोतों के अनुसार पाकिस्तान में कुल २२ परिवारों का एक आर्थिक और औद्योगिक संभ्रांत वर्ग उस २० करोड़ से ज़रा कम आबादी वाले देश के '६६% उद्योग, ७०% बीमा और ८०% बैंक संपत्ति का मालिक है'।[4]
  • राजनैतिक - इस वर्ग के लोग किसी नगर, प्रान्त या देश की राजनीति पर गहरा प्रभाव रखते हैं। यह ज़रूरी नहीं है कि वे हमेशा सत्ता में हों लेकिन लम्बे अरसे तक उनकी शक्ति बनी रहती है, चाहे वे सत्ता से अन्दर-बाहर होते रहें। पाकिस्तान के राजनैतिक उच्च वर्ग को इसका एक उदाहरण कहा जाता है क्योंकि बहुत से मुख्य राजनैतिक दलों पर कुछ परिवारों और उनके सगे-सहयोगियों का नियंत्रण दशकों तक चलता रहा है - पाकिस्तान पीपल्ज़ पार्टी पर ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टों के वंशजों का, मुत्तहिदा क़ौमी मूवमेंट पर नवाज़ शरीफ़ और शरीफ़ परिवार का, मुत्तहिदा क़ौमी मूवमेंट पर अल्ताफ हुसैन और उनके सहयोगियों का और अवामी नेशनल पार्टी पर ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान के वंशजों का।[5]
  • शैक्षिक - यह समाज के अन्य सदस्यों की तुलना में अधिक शिक्षा ग्रहण कर चुके होते हैं, विशेषकर ऐसी शिक्षा जिस से आर्थिक, व्यवसायिक या सामाजिक स्थित में लाभ हो। बहुत से समाजशास्त्री इंगलैंड के 'पब्लिक' पाठशालाओं (पब्लिक स्कूल्ज़, public schools) में पढ़े लोगों को इसका एक अच्छा उदाहरण मानते हैं।[6]

अक्सर किसी एक प्रकार के संभ्रांत वर्ग का सदस्य अन्य क्षेत्रों के संभ्रांत वर्गों का सदस्य भी होता है। मसलन देखा गया है कि कई समाजों में सबसे अच्छी शिक्षा, सबसे अधिक धन और सब से अधिक राजनैतिक शक्ति एक ही वर्ग के लोगों में मिलती है।

इन्हें भी देखें

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1. विलफ़्रेडो परेटो (1935), द माइंड ऐंड सोसाइटी (1916), हारकोर्ट ब्रेस, न्यूयॉर्क; केप, लंदन.

2. जोसेफ़ शुमपीटर (1976), कैपिटलिज़म, सोशलिज़म ऐंड डेमॉक्रैसी, एलेन ऐंड अनविन, लंदन, पाँचवाँ संस्करण.

3. टॉम बॉटॅमोर (1966), इलीट्स ऐंड सोसाइटी, पेंगुइन, हार्मंड्सवर्थ.

4. जी.एल. फ़ील्ड और जे. हिगली (1980), इलीटिसिज़म, रॉटलेज ऐंड कीगन पॉल, लंदन.

5. जी. मोस्का (1939), द रूलिंग क्लास (1896), अनु और सम्पा, : ए. लिविंग्स्टन, न्यूयॉर्क, मैकग्रा-हिल.

  1. Identity, Culture and Globalization, Yitzhak Sternberg, BRILL, 2002, ISBN 978-90-04-12873-6, ... An elite is defined as a relatively small group of people that wields inordinate power and influence. In contemporary society, we can identify several elites, including the political elite (the government, members of parliament and various high-ranking politicians within political parties); the business elite (the owners and managers of large-scale economic enterprises); the administrative elite (holders of top positions in the state administration) and the military elite (the holders of top positions in the military and security forces) ...
  2. Totalitarian dictatorship and autocracy, Carl Joachim Friedrich, Zbigniew Brzezinski, Praeger, 1956, ... an elite is defined as those 'with most power in a group'; it is contrasted with the 'mid-elite' who are those 'with less power' and the class which has 'least' power ...
  3. Musical Ritual in Mexico City: From the Aztec to Nafta, Mark Pedelty, pp. 260-261, University of Texas Press, 2004, ISBN 978-0-292-70231-8, ... billboards emblazoned with blonde women ... pale telivision news anchors to the constant and not-so-subtle associations made between belleza (beauty) and whiteness throughout Mexican society ... Mexican television actors and pop stars are generally draw n from the relatively small, predominantly white upper class ...
  4. Pakistan: Social and Cultural Transformations in a Muslim Nation, Mohammad A. Qadeer, pp. 229, Taylor & Francis, 2006, ISBN 978-0-415-37566-5, ... It was initially used by Dr Mahboob-ul-Haque, the chief economist of Pakistan's Planning Commission in 1968 to describe the pattern of economic distribution in the country, namely 22 families owned 66 percent of industrial, 70 percent of of insurance, and 80 percent of banking assets. It points to the economic elite of the modern sector who largely emerged after independence ...
  5. Pakistan on the Brink: The Future of America, Pakistan, and Afghanistan, Ahmed Rashid, Penguin, 2012, ISBN 978-1-101-56583-4, ... The military and the political elite are both to blame for perpetuating the four factors and for failing to forge Pakistani unity. The major political parties are run as family dynasties rather than democratic institutions ...
  6. Political Elites, Geraint Parry, ECPR Press, 2005, ISBN 978-0-9547966-0-0, ... The inner core of the educational elite will be small – a point confirmed in the British instance by any measuring rod used, whether the 6 per cent of the population who attend public schools or the 5 per cent who attend university ...