अयिल्लत कुट्टियारी गोपालन बनाम मद्रास राज्य

 

अयिल्लत कुट्टियारी गोपालन बनाम मद्रास राज्य
अदालतभारत का सर्वोच्च न्यायालय
पूर्ण मामले का नामअयिल्लत कुट्टियारी गोपालन बनाम मद्रास राज्य
फैसला किया१९ मई १९५०
उद्धरण(एस)सर्वभारत रपट १९५० सर्वोच्च न्यायालय २७
द्वारा निर्णयहरिलाल कनिया (मुख्य न्यायधीश)
Dissentफज़ल अली
Overruled by
मन्निका गांधी बनाम भारत संघ (१९७८)

अयिल्लत कुट्टियारी गोपालन बनाम मद्रास राज्य, सर्वभारत रपट १९५० सर्वोच्च न्यायालय २७, भारत के उच्चतम न्यायालय का एक ऐतिहासिक निर्णय था जिसमें न्यायालय ने फैसला सुनाया कि संविधान के अनुच्छेद २१ में भारतीय न्यायालयों को विधि मानक की उचित प्रक्रिया को लागू करने की आवश्यकता नहीं है।[1] ऐसा करते हुए न्यायालय ने धारा १४ के अपवाद के साथ निवारक निरोध अधिनियम, १९५० की वैधता को बरकरार रखा जिसमें यह प्रावधान किया गया था कि बंदी को संप्रेषित निरोध के आधार या इन आधारों के विरुद्ध उसके द्वारा किए गए किसी भी अभ्यावेदन का कारण न्यायालय में नहीं बताया जा सकता है।[1]

पृष्ठभूमि

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साम्यवादी नेता अयिल्लत कुट्टियारी गोपालन दिसंबर १९४७ से साधारण आपराधिक कानून के तहत सजा सुनाए जाने के बाद से हिरासत में थे। बाद में उन दोषसिद्धि को दरकिनार कर दिया गया। १ मार्च १९५० को जेल में गोपालन मद्रास को निवारक निरोध अधिनियम, १९५० की धारा ३ (१) के तहत एक आदेश दिया गया था। यह प्रावधान केंद्र सरकार या राज्य सरकार को किसी को भी विदेशी संबंधों, राष्ट्रीय सुरक्षा, राज्य सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था या आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं के रखरखाव के लिए पूर्वाग्रहपूर्ण किसी भी तरीके से कार्य करने से रोकने के लिए किसी को भी हिरासत में लेने देता है।[2]

गोपालन ने अपनी नज़रबंदी के विरुद्ध भारत के संविधान के अनुच्छेद ३२ के तहत बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका दायर की। गोपालन को अधिनियम की धारा १४ के कारण उन आधारों का खुलासा करने से प्रतिबंधित किया था जिसके तहत उन्हें हिरासत में लिया गया था जो अदालत में भी इस तरह के खुलासे को प्रतिबंधित करता था। गोपालन का कहना था कि उन्हें हिरासत में लेने का आदेश संविधान के अनुच्छेद १४, १९ और २१ का उल्लंघन करता है और अधिनियम के प्रावधान संविधान के अनुच्छेद २२ का उल्लंघन करते हैं।

यह मामला छह न्यायाधीशों की बेंच के समक्ष रखा गया। स०क० अय्यर और व०ग० राव के साथ म०क० नांबियार ने गोपालन का प्रतिनिधित्व किया। मद्रास राज्य के महाधिवक्ता क० राजा अय्यर ने च०र० पट्टाबी रमन और र० गणपति के साथ मद्रास राज्य का प्रतिनिधित्व किया। म०च० सीतलवाड़ ने भारत संघ का प्रतिनिधित्व किया, जो मामले में एक मध्यस्थ था।

सभी छह न्यायाधीशों ने अलग-अलग राय लिखी। उनमें से बहुमत ने माना कि अधिनियम की धारा १४ जो निरोध के आधारों के प्रकटीकरण को प्रतिबंधित करती है, असंवैधानिक थी। न्यायमूर्ति फजल अली ने एक असहमतिपूर्ण निर्णय लिखा। इस मामले को इस मायने में भी ऐतिहासिक माना जाता है कि इसमें भारतीय संविधान की उद्देशिका पर प्रश्न उठाया गया था। तब उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संविधान की व्याख्या के लिए उद्देशिका का उपयोग नहीं किया जा सकता।[3]

  1. "A.K. Gopalan's Petition Dismissed". The Indian Express (English में) (Madras). Indian Express Limited (IEL). 20 May 1950. पृ॰ 1. अभिगमन तिथि 15 May 2021.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  2. Austin, Granville (1999). Working a Democratic Constitution: The Indian Experience (अंग्रेज़ी में). Oxford University Press. पपृ॰ 58–59. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0195648889.
  3. "A.K. Gopalan vs The State Of Madras". indiankanoon.org. 19 May 1950.