अरब का दर्शन
अरबी दर्शन का विकास चार मंजिलों से होकर गुजरा है:
(1) यूनानी ग्रंथों का सामी तथा मुसलमानों द्वारा किया अनुवाद तथा विवेचन, यह युग अनुवादों का है;
(2) बुद्धिपरक हेतुवादी युग;
(3) धर्मपरक हेतुवादी युग;
(4) शुद्ध दार्शनिक युग
अनुवाद युग
संपादित करेंजब अरबों का साम पर अधिकार हो गया तब उन्हें उन यूनानी ग्रंथों के अध्ययन का अवकाश मिला जिनका सामियों द्वारा सामी अथवा अरबी भाषा में अनुवाद हो चुका था। प्रसिद्ध सामी टीकाकार निम्निलिखित हैं:
(अ) प्रोबस (5वीं शताब्दी के आरंभ में) जिन्हें सबसे पहला टीकाकार माना गया है। इन्होंने अरस्तु के तार्किक ग्रंथों तथा पारफरे के 'इसागाग' की व्याख्या की।
(आ) रैसेन के निवासी सर्गियस (मृत्यु 536) जिन्होंने धर्म, नीतिशास्त्र, स्थूल-पदार्थ-विज्ञान, चिकित्सा तथा दर्शन संबंधी यूनानी ग्रंथों का अनुवाद किया।
(इ) एदीसा के निवासी याकोब (660-708), यह मुस्लिम शासन के पश्चात् भी यूनानी धार्मिक तथा दार्शनिक ग्रंथों का अनुवाद करने में व्यस्त रहे। विशेषत: मंसूर के शासन में मुसलमानों ने भी अरबी भाषा में उन यूनानीशास्त्रों का अनुवाद करना आरंभ किया जिनका मुख्यत: संबंध पदार्थविज्ञान तथा तर्क अथवा चिकित्साशास्त्र से था।
9वीं शताब्दी में अधिकतर चिकित्सा संबंधी ग्रंथों के अनुवाद हुए परंतु दार्शनिक ग्रंथों के अनुवाद भी होते रहे। याहिया इब्ने वितृया ने अफलातून की 'तीयास' तथा अरस्तू के 'प्राणिग्रंथ', 'मनोविज्ञान', 'संसार' का अरबी भाषा में अनुवाद किया। अब्दुल्ला नईमा अलहिमाा ने अरस्तू के 'आभासात्मक' का तथा 'फिज़िक्स' और 'थियालॉजी' पर जान फियोयोनस कृत व्याख्या का अनुवाद किया। कोस्ता इब्ने लूक़ा (835) ने अरस्तू की 'फिज़िक्स' पर सिकंदरिया के अफरोदियस तथा फ़िलोपोनस लिखित व्याख्या का अनुवाद किया। इस समय के सर्वोत्तम अनुवादक अबूज़ैद हुसेन इब्ने, उनके पुत्र इसहाक़ बिन हुसेन (910) और उनके भतीजे हुवैश इब्नुल हसन थे। ये सब लोग वैज्ञानिक तथा दार्शनिक ग्रंथों का अनुवाद करने में व्यस्त थे।
10वी शताब्दी में भी यूनानी ग्रंथों के अनुवाद का काम गतिशील रहा। इस समय के प्रसिद्ध अनुवादक अबू बिश्र मत्ता (970), अबू ज़करिया याहिया इब्ने अलगंतिक़ी (974), अबू अली ईसा इब्ने इसहाक इब्ने जूरा (1008), अबुलखैर अल हसन इब्नुल खंमार (जन्म 942) आदि हैं। संक्षेप में, मुसलमानों ने ग्रीक शास्त्रों का सामी अथवा अरबी भाषा में अध्ययन किया अथवा स्वयं इन ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया। यूनानी विचारधारा और दार्शनिक दृष्टि सामियों द्वारा सिकंदरिया तथा अंतिओक से पूरब की ओर एदीसा, निसिबिस, हर्रान तथा गांदेशपुर में विकासमान हुई थी और मुसलमान जब विजेताधिकार से वहाँ पहुँचे तब उन्होंने, जो कुछ यूनानी दर्शन तथा शास्त्रज्ञान उपलब्ध था, उसको ग्रहण किया और धीरे धीरे भिझ भिझ समस्याओं के प्रभाव से दार्शनिक चिंतन का आरंभ हुआ।
मोतज़ेला अर्थात् बुद्धिपरक हेतुवाद युग
संपादित करेंइस्लाम में सबसे प्रथम विचारविमर्श पारमार्थिक स्वच्छंदता का था। बसरा में, जो उस समय विद्याभ्यास तथा पांडित्य का एक विशिष्ट केंद्र था, एक दिन उस युग के महान् विद्वान् इमाम हसन बसरी एक मस्जिद में विद्यादान कर रहे थे कि उनसे किसी ने पूछा कि वह व्यक्ति (उमयया शासकों की ओर संकेत था), जो घोर अपराध करे, मुस्लिम है अथवा नास्तिक। इमाम हसन बसरी कोई उत्तर देने को ही थे कि उनका एक शिष्य वासिल बिन अता बोल उठा कि ऐसा व्यक्ति न मुस्लिम है और न इस्लाम के विरुद्ध है। यह कहकर वह मस्जिद के एक दूसरे भाग में जा बैठा और अपने विचार की व्याख्या करने लगा जिसपर गुरु ने लोगों को बताया कि शिष्य ने 'हमें छोड़ दिया है' (एतज़ि ला अन्ना)। इस वाक्य पर इस विचारशाखा की स्थापना हुई।
चूँकि उमरय्या शासक घोर पाप कर रहे थे और अपने आपको यह कहकर कि हम कुछ नहीं करते, सब कुछ खुदा करता है, निर्दोष बताते थे, इससे स्वच्छंदता का प्रश्न इस्लाम में बड़े वेग से उठा। हेतुवादियों ने इस प्रश्न तथा इसी प्रश्न की सन्निकट शाखाओं का विशेष अनुसंधान किया।
अबुल हुज़ैल की मृत्यु नवीं शताब्दी के मध्य हुई। इन्होंने एक ओर मनुष्य को स्वच्छंदता प्रदान की ओर दूसरी ओर खुदा को भी सर्वशक्ति (तथा गुण) संपन्न सिद्ध किया। मनुष्य की स्वेच्छा तो इसी बात से सिद्ध है कि सब धर्म कुछ विधिनिषेध बताते हैं, जो बिना स्वच्छंदता के संभव नहीं। दूसरी दलील है कि प्रत्येक धर्म स्वर्ग को प्राप्य तथा नरक को त्जाज्य बताते हैं जिससे प्रमाणित है कि मुनष्य को स्वेच्छा प्राप्त है। तीसरी दलील है कि मनुष्य की स्वच्छंदता खुदा के सर्वशक्तिमान और सर्वगुणसंपन्न होने में किसी प्रकार से बाधक नहीं हैं।
खुदा और उसके गुणों में विशेषण-विशेष्य-भाव नहीं है बल्कि सामरूपत्व है। उदाहरणार्थ, खुदा सर्वज्ञ है; तो इसका अर्थ यह है कि वह ज्ञानस्वरूप है। ज्ञान अथवा शक्ति अथवा अन्य गुण उससे भिन्न नहीं हैं। वह सर्वगुणासंपन्न है, परंतु खुदा की अपेक्षा यह अनेकानेक गुणों का संबंध गुण तथा गुणी जैसा नहीं हो सकता, क्योंकि खुदा सर्वव्यापी है और उससे कोई वस्तु, गुण या विशेषण बाहर नहीं है। इसके अतिरिक्त दैवी गुणों का साधारण अर्थ नहीं लिया जा सकता तथा उन्हें मनुष्यारोपित नहीं कह सकते। अत: ईश्वरेच्छा मानुषिक स्वच्छंदता के विरुद्ध नहीं हैं ईश्वरेच्छा तो सृष्टि के लिए संकेत मात्र है। इसका किंचित् यह अर्थ नहीं है कि संसार अथवा मनुष्य सर्वश: ईश्वराधीन है। चरित्रनिर्माण के लिए मानुषिक स्वतंत्रता ही आवश्यक है परंतु जीवनोद्धार के प्रति ईश्वरप्रत्यादेश निस्संदेह उपयोगी है।
अल नज्ज़ाम (मृत्यु 845) अबुल हुज़ैल के शिष्य थे, एमपीदाक्लिज़ तथा अनक्सागोरस की विचारधारा से प्रभावित। इनके मतानुसार खुदा कोई अशुभ कर्म नहीं कर सकता। वह वही करता है जो उसके दास तथा भक्तों के लिए अत्यंत शुभ है। खुदा के संबंध में 'इच्छा' शब्द को विशेष अर्थ में लेना आवश्यक है। इस संबंध में इस शब्द से कोई कमी अथवा आवश्यकता प्रदर्शित नहीं होती, बल्कि 'इच्छा' खुदा के सर्वकर्तृत्व का ही एक पर्याय है। सृष्टि की क्रिया आदिकाल में संपूर्णतया समाप्त हो चुकी है और अब कालानुसार अन्य पदार्थ, वृक्ष तथा पशु अथवा मनुष्य आदि उत्पन्न होते रहते हैं।
नज्ज़ाम दृश्य अणु की सत्ता न मानकर दृश्य पदार्थों को एक अप्राकृतिक गुणसमूह ख्याल करते हैं। सब द्रव्य पदार्थ दैवगतिक गुणसमूह होने के कारण भूतात्मक नहीं हैं परंतु अनात्म्यता प्रधान विषय है।
ज़ाहिज़ के कथनानुसार यद्यपि विषय प्रकृतिशील है तथापि ईश्वरीय प्रभाव से कोई भी विहीन नहीं है।
मुअम्मर का कथन है कि खुदा सत्तास्वरूप होने के कारण गुणविहीन है। उसको निराकार समझना ही उचित है। उसको गुणविशिष्ट समझने से विपरीत धर्मत्व का आक्षेप इसलिए आता है कि विपरीत गुण भी उससे किसी प्रकार बहिर्गत नहीं समझे जा सकते।
आशारिया अर्थात् धर्मपरक हेतुवादी युग
संपादित करेंनवीं शताब्दी में बुद्धिपरक हेतुवादियों के विरुद्ध कई विचारधाराएँ उत्पन्न हुईं। इन्हीं में एक अशरी चलन है जिसके संचालक अलअशरी (872-934 ई.) हैं, जिनकी विचारधारा धीरे-धीरे सब इस्लामी देशों में शास्त्रवत् समझी गई। इन्होंने मंदबुद्धि सत्यधर्मानुयायियों की साकार उपासना का विरोधी होते हुए भी एक ओर तो खुदा को संपूर्ण ऐश्वर्य प्रदान किया और दूसरी ओर उपासना की स्वच्छंदता (जो उसके मनुष्यत्व का सर्वोत्तम आधार है) स्थापित की। उनके कथनानुसार प्रकृति का बिना खुदा के प्रभाव के स्वत: सामर्थ्य नहीं है। सामान्यत: मनुष्य भी सर्वथा खुदा पर ही आश्रित है। परंतु ऐसा होते हुए भी यह सर्वथा स्वच्छंद है।
धर्मज्ञान का मूल विषय खुदा चूँकि परोक्ष है अत: पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए कुरान अथवा कोई अन्य ईश्वरीय प्रत्यादेश मनुष्य जाति के लिए अनिवार्य है।
दार्शनिक युग
संपादित करेंअबू याकूब बिन इसहाक अलकिंदी (मृ. 875) को अरब होने से सर्वोत्तम अरब दार्शनिक माना गया है। ये दार्शनिक होने के अतिरिक्त अत्यंत सुयोग्य व्यक्ति और अन्यान्य कलाओं में भी सिद्धहस्त थे। यूनानी दार्शनिकों के महत्वपूर्ण ग्रंथों के टीकाकार के रूप में अत्यंत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने या तो स्वयं अरबी भाषा में यूनानी ग्रंथों के अनुवाद किए हैं अथवा अपनी अध्यक्षता में और लोगों से अनुवाद कराए हैं, फिर इन्हें स्वयं संशोधित किया है। अरस्तू के धर्मतत्व का अरबी अनुवाद उन्हीं की अध्यक्षता में तैयार हुआ था। किंदी ने अन्य धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया था और इस अध्ययन के अनुसार उनका विश्वास था कि सब धर्म एक पारमार्थिक सत्ता को स्वीकार करते हैं जो सृष्टि का मूल कारण है और सब धर्मज्ञाताओं ने उसी को पूज्य तथा माननीय बताया है।
सृष्टिकर्ता होने के कारण अल्लाह का प्रभाव संसार में व्याप्त है, परंतु उसका प्रभाव तथा प्रकाश संसार में वस्तुत: अधोगति से पहुँचता है और प्रथम उद्भव का प्रभाव अग्राम्य उत्पत्ति और उसका उससे अगली स्थिति पर उद्भावित होता है। प्रथम उद्भव बुद्धि है और प्रकृति उसी के अनुसार नियुक्त है। अल्लाह (ईश्वर) तथा प्रकृति उसी के अनुसार नियुक्त है। अल्लाह (ईश्वर) तथा प्रकृति के मध्य में विश्वात्मा है जिससे जीवात्मा निर्गत हुआ है।
किंदी संभवत: विश्व का सबसे प्रथम दार्शनिक है जिसने यह बताया कि उद्दीपन तथा वेदना एक दूसरे के प्रमाणानुसार कल्पित हैं। इस सिद्धांत का प्रवर्तन करने के कारण काफडन किंदी की गणना विश्व के सर्वोत्तम बारह दार्शनिकों में करता है।
फ़राबी (मृ. 950) ने अरस्तू का विशेष अध्ययन किया था और इसी लिए उन्हें एशिया में लोग गुरु नंबर दो के नाम से याद करते हैं। फ़राबी के कथनानुसार तर्कशास्त्र के दो मुख्य भाग हैं। प्रथम भाग में संकल्प तथा मनोगत पदों का विवेचन करना आवश्यक है। द्वितीय भाग में अनुमान तथा प्रमाणों का वर्णन आता है। इंद्रिग्राह्म उत्तमोत्तम साधारण चेतना भी संकल्पों के अंतर्गत गिनी जानी चाहिए। इसी प्रकार स्वभावजन्य भाव भी संकल्पों के अंतर्गत गिनी जानी चाहिए। इसी प्रकार स्वभावजन्य भाव भी संकल्पों के ही अंतर्गत आते हैं। उन संकल्पों के मिलान से निर्णय की उत्पत्ति होती है जो सदसत् होते हैं। इस सदसत्-निर्णय-क्रिया की उत्पत्ति के लिए यह अनिवार्य है कि बुद्धि में कुछ भाव अथवा विचार स्वजात हों जिनकी अग्रतर सत्याकृति अनावश्यक हो। इस प्रकार की मूल प्रतिज्ञाएँ गणित, आत्मविद्या तथा नीतिशास्त्र में विद्यमान हैं।
तर्कशास्त्र में जो सिद्धांत निर्दिष्ट हैं वे ही आत्मविद्या में भी सर्वश: प्रत्यक्ष हैं। जो कुछ विद्यमान है वह या तो संभावित है अथवा अन्यथासिद्ध है। संसार चूँकि स्वयंसिद्ध नहीं है, अत: इसका हम खुदा अथवा अल्लाह (किंवा ईश्वर) के नाम से संकेत कर सकते हैं। यह परम सत्ता जिसे अल्लाह कहते हैं, इतरेतर भावों से पुकारे जाने के कारण भिन्न-भिन्न नामों से अनुचिंतित होता है। उनमें से कुछ नाम उसकी आत्मसत्ता को निर्दिष्ट करते हैं अथवा कुछ उसकी संसार-समासक्ति-विषयक हैं। परंतु यह बात स्वयंसिद्ध है कि उसकी पारमार्थिक सत्ता इन नामों तथा उपाधियों द्वारा अगम्य है।
इब्ने मसकवे (मृ. 1030) के कथनानुसार जीवात्मा एक शरीरी द्रव्य है जिसे अपनी सत्ता तथा ज्ञान का बोध रहता है। अत: जीवात्मा का ज्ञान तथा आत्मिक उद्योग प्रच्छन्न शरीर की सीमा से परे है। यही कारण है कि उसकी इंद्रियग्राह्मता संसार के विषयभोगों से लेशमात्र भी तृपत नहीं होती। मनुष्य अपने अंतर्जात ज्ञान के द्वारा अधर्म से बचता हुआ हित की ओर प्रोत्साहित है। हित दो प्रकार का होता है : सामान्य और विशेष। सामान्य हित सबके लिए पुरुषार्थ है जो परमज्ञान के द्वारा प्राप्त होता है। साधारणत: मनुष्य प्रीतिपरक जरूर है परंतु यह व्यक्तिगत हित मनुष्यत्व के विरुद्ध होने से पुरुषार्थ का बाधक है। वास्तविक सुख तो मनुष्यत्व के अनुसार काम करने में है और मनुष्यत्व के आदर्श की प्राप्ति संसर्ग में ही संभव है अन्यथा नहीं। इस संलापप्रियता की हज्ज तथा नमाज से भी पुष्टि होती है। यही प्रतिभावना सब धर्मों का आदेश है।
इब्नेसिना (मृ. 1037) की राय में संसार संभावी होने के हेतु अवश्यप्राप्य नहीं है। अवश्यप्राप्य की खोज अंत में हक़ (ब्रह्म) को सिद्ध करती है जिसको यद्यपि बहुत से नाम तथा विशेषण दिए जाते हैं, परंतु उसकी पारमार्थिक सत्ता इन सबके द्वारा अगम्य है। ऐसा भी नहीं कि वह केवल निर्गुणी है। उसे तो सब गुणों तथा विषयों का आधार होने के कारण निर्गुणी कहना ही उपयुक्त है।
उस पारमार्थिक सत्ता से विश्वात्मा (वैश्वानर) का उद्भव होता है और यह अनेकत्व का आश्रय है। विश्वात्मा जब अपने कारण का चिंतन करती है तब आकाशमंडल चैतन्य विकृत होता है जिससे परिच्छन्न आत्मा का स्पष्टीकरण होकर अन्य स्थूल विकार तथा शरीर विकसित होते हैं। शरीर या आत्मा से वस्तुत: कोई संपर्क नहीं है। शरीर की उत्पत्ति तो चार सूक्ष्म तत्वों (पृथ्वी, आप, तेजस्, वायु) के सम्मिश्रण से है, परंतु शरीर की उत्पत्ति चतुर्विध गुणों से नहीं है, वह तो विश्वात्मा से विकसित होने के कारण स्वत: परममूलक है। आदि से ही शरीरी एक स्वत: सिद्ध सूक्ष्म द्रव्य है जो अन्य शरीरों में स्थित होकर अहमत्व के भान का कारण है।
इब्ने अल-हशीम के कथनानुसार दृश्य पदार्थ कुछ विशेष गुणों का समूह है और इन सब सामूहिक गुणों के हेतु से ही कोई पदार्थ अपनी विशेष संज्ञा से पुकारा जाता है। अब ब्राह्म प्रत्यक्ष स्वयं अन्य क्षणों का समूह है जिनके द्वारा अमुक पदार्थ के अमुक-अमुक गुण प्रदीप्त होते हैं। अत: एक साधारण प्रत्यक्ष के अंतर्गत अनेकानेक गुण प्रत्यक्ष प्रतीत होते हैं। प्रत्येक प्रत्यक्ष स्थूलभूत पदार्थ के किसी एक गुण अथवा भाव को प्रकाशित करता है जिन्हें स्मृतिभाव से कुछ क्षण पश्चात् सामूहिक प्रतिज्ञा से स्थूल पदार्थ की संज्ञा दी जाती है।
अलगिज़ाली (मृत्यु 1111) के समय तक मुस्लिम दार्शनिकों द्वारा दर्शनशास्त्र की विशेष उन्नति हो चुकी थी परंतु वह दर्शनविकास मनुष्य (मुस्लिम) की हार्दिक (धार्मिक) तृष्णा की तृप्ति कर सकता था अथवा नहीं, यह कोई भी नहीं समझ सका था।
गिजाली प्रथम व्यक्ति है जिन्होंने इस प्रश्न पर गंभीर विचार किया। इनको कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि वह सब तत्च-विचार-धारा जो इस्लाम में किंदी से आरंभ हुई और फ़राबी द्वारा इब्नेसिना तक पहुँची थी और जिसका आश्रय मुख्यत: ग्रीक तत्व-विचार-धारा थी, सर्वथा धार्मिक चेष्टाओं और हार्दिक रसिकता के विरुद्ध है। इनके लिए एक ओर तो हृदयग्राही धार्मिक भावनाएँ थीं, जिनकी तृप्ति ईश्वरप्रत्यादेश से होती है, परंतु दूसरी ओर बुद्धिपरक विचार थे जो इसके प्रतिकूल हैं। यही बुद्धिपरक विचार अन्य दर्शनों (यहाँ ग्रीक तथा मुस्लिम) का मूल आधार है, उदाहरणार्थ कारणकार्य का विचार।
अपने आपको इस संकल्प विकल्प में अनुभव करके ग़्ज़ाािली कुछ समय के लिए संशयकारी हो गए। वह किसी बात को सत्य स्वीकार करने के लिए राजी न हो सके। उन्होंने सब विचारधाराओं तथा सत्यप्राप्ति के अन्य मार्गों का विश्लेषण किया। दार्शनिकों के वाक्यघात के लिए उन्होंने विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ 'दर्शनखंडन' लिखा जिसमें सब दार्शनिक रीतियों का खंडन किया। इस अवस्था में उन्होंने एक स्वयंसिद्ध यथार्थ विकार की चेष्टा की। ईश्वर, संसार, धर्म, तत्वज्ञान तथा परंपरागत विचारधारा सब असत्य हो सकते हैं, परंतु संशय पर आश्रय होना आवश्यक है। अत: संशयकारक स्वत:--सिद्ध है। अहम् संशयं करोमि अत: अहमस्मि यह निश्चय भी संशयात्मक हो सकता है। क्योंकि संशय से संशयकर्ता के वास्तविक अस्तित्व की सिद्धि नहीं है, केवल तार्किक सत्ता सिद्ध है। अत: अहमत्व की प्राप्ति विचारशक्ति से नहीं, केवल निश्चयात्मक शक्ति से इस प्रकार होती है कि मैं करता हूँ अत: मैं हूँ (अहम् करोमि अतोऽहमस्मि)।
अहमत्व की सिद्धि के पश्चात् अहमत्व के मूलाधार की खोज अनिवार्य है। यहाँ पर कारण-कार्य-भाव का समझना जरूरी है। वैज्ञानिक तथा दार्शनिक दृष्टि से कारण की परिभाषा सर्वदा दूषित ही रही है। कारण-कार्य-भाव केवल अनुक्रम को नहीं कह सकते। कारण का महत्त्व तो व्यक्तिगत रूप से ही स्पष्ट होता है। किसी की सिद्धि में जो प्रयत्न किया जाता है उसके अंतर्गत ही कारण का विकास होता है। आत्मा का कारण भी एक सर्वशील सर्वोत्तम परमपुरुष (खुदा, ईश्वर) ही हो सकता है जिसमें निश्चयात्मक शक्ति का बाहुल्य हो, अन्यथा नहीं। इस प्रकार धर्म (इस्लाम) सिद्ध होता है और परंपरागत धार्मिक विचारधारा तत्वज्ञान की सहायक बनती है।
साम में उमय्या शासन के क्षीण होने के पश्चात् मुस्लिम शासन की अब्दुर्रहमान द्वारा स्पेन में स्थापना हुई। विद्यासेवन तथा सभ्यता की दृष्टि से स्पेन को 10वीं शताब्दी में वही महत्त्व प्राप्त था जो इससे पहले 9वीं शताब्दी में पूर्वी देशों को प्राप्त था। स्पेन में कई विश्वख्यात दार्शनिक हुए जिनमें से यहाँ केवल तीन-इब्नेबाजा, इब्नेतुफैल, इब्नेरुब्द का वर्णन किया जाता है :
इब्नेबाजा - इनका विशेष दार्शनिक उद्गार आत्मा, जीवात्मा के प्रकरण में है। सत्ता दो भागों में विभाजित है। प्रथम वह जो निश्चल है, द्वितीय वह जो गतिशील है। जो गतिशील है वह साकार होने के कारण सीमित है। परंतु गतिशील होने के लिए एक निराकार सत्ता की आवश्यकता है। यह निराकार सत्ता खुदा (परमात्मा) है जो सब देहधारियों के लिए संचालक है।
इब्नेतुफ़ैल की 'हयि इब्ने यक़जान' एक दार्शनिक उपाख्यान है जिसके द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि धर्म तथा दर्शन परस्पर संबद्ध हैं। जो पारमार्थिक ज्ञान कठोर दार्शनिक अध्ययन से प्राप्त होता है वही परमज्ञान धर्ममूलक स्वाभाविक अनुभव से ही स्वत: ग्रहण हो सकता है। चूँकि प्रत्येक मनुष्य अज्ञानी होने के कारण स्वयं स्वानुभव में शक्त नहीं है, अत: धर्म, जो साधारण जनता के लिए श्रद्धा तथा परविश्वास पर आधारित है, सर्वदा लाभदायक रहेगा। दार्शनिक अध्ययन तथा पारमार्थिक सूक्ष्म दृष्टि साधारण लोगों के लिए अप्राप्य है, अत: सामान्य मनुष्य दर्शनपरक होने की अपेक्षा धर्मपरक ही रहेगा।
इब्नेरुब्द (मृत्यु 1198) ने अरस्तू की वह व्याख्या की जो अभी तक कोई न कर सका था। अतएव उन्हें 'प्रवक्ता' कहते हैं। उनकी दृष्टि में संसार गतिशील है और क्रमानुसार जो होना शक्य है वह होकर रहता है। आधिभौतिक शक्तियाँ अनेकानेक परिणामों का कारण हैं और संसार कारण-कार्य-भाव से विशिष्ट होने से सामान्य रूप से कभी भी नष्ट नहीं हो सकता, परंतु पृथक्-पृथक् व्यक्ति होते रहेंगे। सारांशत: इनके यहाँ तीन नास्तिक विचार हैं : प्रथम यह कि संसार अनादि अनंत है, द्वितीय यह कि कारण-कार्य-भाव से विशिष्ट होने से संसार में दैवी चमत्कार संभव नहीं, तृतीय यह कि व्यक्तिगत के लिए अवकाश नहीं।
संदर्भ ग्रंथ
संपादित करें- डी. बोर : हिस्ट्री ऑव फ़िलासफ़ी इन इस्लाम;
- ओलोरी : अरैबिक थाट ऐंड इट्स प्लेस इन हिस्ट्री;
- इक़बाल : डेवलपमेंट ऑव मेटाफ़िज़िक्स इन परशिया;
- डोज़ी : स्पैनिश इस्लाम;
- शुस्त्री : आउटलाइन ऑव इस्लामिक कल्चर;
- मैकडानल्ड : डेवलपमेंट ऑव मुस्लिम थियोलॉजी, जूरिसप्रूडेंस ऐंड कांस्टिट्यूशनल थियरी;
- लैबी : सोशियोलॉजी ऑव इस्लाम।
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- Philosophy in Oxford Islamic Studies Online
- Islamic Ethics and Philosophy Dictionary
- Islamic Philosophy Online
- In the Footsteps of Averroes - The Reformist Islamic Thinker Muhammad Shahrur by Loay Mudhoon
- History of Philosophy in Islam by T. J. De Boer(1903)
- The Study of Islamic Philosophy
- Islamic Philosophy From the Routledge Encyclopedia of Philosophy
- Can the Islamic Intellectual Heritage Be Recovered?
- History of Islamic philosophy by Henry Corbin, part one
- History of Islamic philosophy by Henry Corbin, part two
- The Parables of Sophism - Islam Redefined Through Western Philosophy