अर्हत् (संस्कृत) और अरिहंत (प्राकृत) पर्यायवाची शब्द हैं। अतिशय पूजा-सत्कार के योग्य होने से इन्हें (अर्ह योग्य होना) कहा गया है। मोहरूपी शत्रु (अरि) का अथवा आठ कर्मों का नाश करने के कारण ये 'अरिहंत' (अरि=शत्रु का नाश करनेवाला) कहे जाते हैं। अर्हत, सिद्ध से एक चरण पूर्व की स्थिति है।

जैनों के नवकार महामंत्र [1]में पंचपरमेष्ठियों में सर्वप्रथम अरिहंतो को नमस्कार किया गया है। सिद्ध परमात्मा हैं लेकिन अरिहंत भगवान लोक के परम उपकारक हैं, इसलिए इन्हें सर्वोत्तम कहा गया है। एक में एक ही अरिहंत जन्म लेते हैं। जैन आगमों को अर्हत् द्वारा भाषित कहा गया है। अरिहन्त तीर्थंकर, केवली और सर्वज्ञ होते हैं। महावीर जैन धर्म के चौबीसवें (अंतिम) तीर्थकर माने जाते हैं। बुरे कर्मों का नाश होने पर केवल ज्ञान द्वारा वे समस्त पदार्थों को जानते हैं इसलिए उन्हें 'केवली' कहा है। सर्वज्ञ भी उसे ही कहते हैं।[1]

अरिहंत परमात्मा का स्वरूप

अरिहंत प्रभु चरम भवी जीवों मे उतामोतम होते है। इनका जन्म राजकुल मे होता हैं। जन्म से ही 3 प्रकार के निर्मल ज्ञान से युक्त होते हैं। जन्म से ही अति विशिष्टकोटि का वैराग्य होता है। [2]

अरिहन्त निम्नलिखित १८ अपूर्णताओं से रहित होते हैं-

  1. जन्म
  2. जरा (वृद्धावस्था)
  3. तृषा (प्यास)
  4. क्षुधा (भूख)
  5. विस्मय (आश्चर्य)
  6. आरती
  7. खेद
  8. रोग
  9. शोक
  10. मद (घमण्ड)
  11. मोह
  12. भय
  13. निद्रा
  14. चिन्ता
  15. स्वेद
  16. राग
  17. द्वेष
  18. मरण
  1. जैन साध्वी, प्रशमिता श्री जी (2012). सूत्र संवेदना. अहमदावाद: सन्मार्ग प्रकाशन.
  2. राणा, जगमहेंद्रसिंह (1995). जैन दर्शन में पंच परमेष्ठि. दिल्ली: निर्मल प्रकाशन. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 8186400257.