कुम्भ मेला

सनातन धर्म के अनुसार भारत मे मनाया जाने वाला (विश्व का सबसे बड़ा) धार्मिक मेला
(अर्ध कुंभ से अनुप्रेषित)

कुम्भ मेला हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुम्भ पर्व स्थल प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में एकत्र होते हैं और नदी में स्नान करते हैं। इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति १२वें वर्ष तथा प्रयाग में दो कुम्भ पर्वों के बीच छह वर्ष के अन्तराल में अर्धकुम्भ भी होता है। २०१३ का कुम्भ प्रयाग में हुआ था। फिर २०१९ में प्रयाग में अर्धकुम्भ मेले का आयोजन हुआ था।

कुम्भ मेला
देशभारत
श्रेणीतीर्थ यात्रा, स्नान, धार्मिक अनुष्ठान
सूत्र01258
यूनेस्को अंचलAsia and the Pacific
इतिहास
अन्तर्भूक्ति2017 (12th अधिवेशन)
तालिकाRepresentative

प्रत्येक चार वर्ष बाद प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में से किसी एक स्थान पर क्रम से आयोजित
हरिद्वार के कुम्भ मेले (2010) के दौरान गंगा किनारे स्नान घाट पर श्रद्धालु
2001 के प्रयाग कुम्भ मेले का दृष्य

जब बृहस्पति ग्रह मृगसिरा नक्षत्र में गोचर करता है, तो उसे कुंभ काल कहा जाता है। कुंभ काल के स्वागत और पूजा के लिए एक आध्यात्मिक मेले का आयोजन किया जाता है, जिसे कुंभ मेला कहा जाता है। बृहस्पति ग्रह हर 12 साल में मृगसिरा नक्षत्र में गोचर करता है, इसलिए कुंभ मेला हर 12 साल में आता है। सभी जीवित प्राणी, मनुष्य और भगवान कुंभ काल में ही वैकुंठ से पृथ्वी पर आते हैं।[1]

खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रान्ति के दिन प्रारम्भ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और वृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रान्ति के होने वाले इस योग को "कुम्भ स्नान-योग" कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलकारी माना जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। यहाँ स्नान करना साक्षात् स्वर्ग दर्शन माना जाता है। इसका हिन्दू धर्म मे बहुत अधिक महत्व है।

'कुम्भ' का शाब्दिक अर्थ “घड़ा, सुराही, बर्तन” है। यह वैदिक ग्रन्थों में पाया जाता है। इसका अर्थ, अक्सर पानी के विषय में या पौराणिक कथाओं में अमरता (अमृत) के बारे में बताया जाता है।[2] मेला शब्द का अर्थ है, किसी एक स्थान पर मिलना, एक साथ चलना, सभा में या फिर विशेष रूप से सामुदायिक उत्सव में उपस्थित होना। यह शब्द ऋग्वेद और अन्य प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में भी पाया जाता है। इस प्रकार, कुम्भ मेले का अर्थ है “अमरत्व का मेला” है।[3]

ज्योतिषीय महत्व

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पौराणिक विश्वास जो कुछ भी हो, ज्योतिषियों के अनुसार कुम्भ का असाधारण महत्व बृहस्पति के कुम्भ राशि में प्रवेश तथा सूर्य के मेष राशि में प्रवेश के साथ जुड़ा है। ग्रहों की स्थिति हरिद्वार से बहती गंगा के किनारे पर स्थित हर की पौड़ी स्थान पर गंगा जल को औषधिकृत करती है तथा उन दिनों यह अमृतमय हो जाती है। यही कारण है ‍कि अपनी अन्तरात्मा की शुद्धि हेतु पवित्र स्नान करने लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से अर्ध कुम्भ के काल में ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है। [4] हालाँकि सभी हिन्दू त्योहार समान श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाए [5] जाते है, पर यहाँ अर्ध कुम्भ तथा कुम्भ मेले के लिए आने वाले पर्यटकों की संख्या सबसे अधिक होती है।[6]

पौराणिक कथाएँ

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सागर मन्थन

कुम्भ पर्व के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मन्थन से प्राप्त अमृत कुम्भ से अमृत बूँदें गिरने को लेकर है।[7] इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इन्द्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हे सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मन्थन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुम्भ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इन्द्रपुत्र जयन्त अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयन्त का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयन्त को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा।

इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। उस समय चन्द्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शान्त करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अन्त किया गया।

अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरन्तर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुम्भ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुम्भ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुम्भ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है।

जिस समय में चन्द्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चन्द्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुम्भ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुम्भ पर्व होता है।

विशेष दिन

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१९९८ के कुम्भ मेले में स्नान के लिए जाते हुए नागा साधु
  • 10,000 ईसापूर्व (ईपू) - इतिहासकार एस बी राय ने अनुष्ठानिक नदी स्नान को स्वसिद्ध किया।
  • 600 ईपू - बौद्ध लेखों में नदी मेलों की उपस्थिति।
  • 400 ईपू - सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी दूत ने एक मेले को प्रतिवेदित किया।
  • ईपू 300 ईस्वी - रॉय मानते हैं कि मेले के वर्तमान स्वरूप ने इसी काल में स्वरूप लिया था। विभिन्न पुराणों और अन्य प्राचीन मौखिक परम्पराओं पर आधारित पाठों में पृथ्वी पर चार विभिन्न स्थानों पर अमृत गिरने का उल्लेख हुआ है। सर्व प्रथम आगम अखाड़े की स्थापना हुई कालान्तर मे विखण्डन होकर अन्य अखाड़े बने
  • 547 - अभान नामक सबसे प्रारम्भिक अखाड़े का लिखित प्रतिवेदन इसी समय का है।
  • 600 - चीनी यात्री ह्यान-सेंग ने प्रयाग (वर्तमान प्रयागराज) पर सम्राट हर्ष द्वारा आयोजित कुम्भ में स्नान किया।
  • 904 - निरंजनी अखाड़े का गठन।
  • 1146 - जूना अखाड़े का गठन।
  • 1300 - कानफटा योगी चरमपन्थी साधु राजस्थान सेना में कार्यरत।
  • 1398 - तैमूर, हिन्दुओं के प्रति सुल्तान की सहिष्णुता के दण्ड स्वरूप दिल्ली को ध्वस्त करता है और फिर हरिद्वार मेले की ओर कूच करता है और हजा़रों श्रद्धालुओं का नरसंहार करता है। विस्तार से - 1398 हरिद्वार महाकुम्भ नरसंहार
  • 1565 - मधुसूदन सरस्वती द्वारा दसनामी व्यव्स्था की लड़ाका इकाइयों का गठन।
  • 1678 - प्रणामी सम्प्रदायके प्रवर्तक, महामति श्री प्राणनाथजीको विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक घोषित ।
  • 1684 - फ़्रांसीसी यात्री तवेर्निए नें भारत में 12 लाख हिन्दू साधुओं के होने का अनुमान लगाया।
  • 1690 - नासिक में शैव और वैष्णव साम्प्रदायों में संघर्ष; 60,000 मरे।
  • 1760 - शैवों और वैष्णवों के बीच हरिद्वार मेलें में संघर्ष; 1,800 मरे।
  • 1780 - ब्रिटिशों द्वारा मठवासी समूहों के शाही स्नान के लिए व्यवस्था की स्थापना।
  • 1820 -हरिद्वार मेले में हुई भगदड़ से 430 लोग मारे गए।
 
अंग्रेज चित्रकार जे एम डब्ल्यू टर्नर द्वारा चित्रित 'हरिद्वार कुम्भ मेला' ; यह चित्र 1850 के दशक में बनाया गया था।
  • 1906- ब्रिटिश कलवारी ने साधुओं के बीच मेला में हुई लड़ाई में बीचबचाव किया।
  • 1954 - चालीस लाख लोगों अर्थात भारत की 1% जनसंख्या ने प्रयागराज में आयोजित कुम्भ में भागीदारी की; भगदड़ में कई सौ लोग मरे।
  • 1989 - गिनिज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने 6 फरवरी के प्रयाग मेले में 1.5 करोड़ लोगों की उपस्थिति प्रमाणित की, जोकी उस समय तक किसी एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी।
  • 1995 - प्रयागराज के “अर्धकुम्भ” के दौरान 30 जनवरी के स्नान दिवस को 2 करोड़ लोगों की उपस्थिति।
  • 1998 - हरिद्वार महाकुम्भ में 5 करोड़ से अधिक श्रद्धालु चार महीनों के दौरान पधारे; १४ अप्रैल के एक दिन में 1 करोड़ लोग उपस्थित।
  • 2001 - प्रयागराज के मेले में छः सप्ताहों के दौरान 7 करोड़ श्रद्धालु, 24 जनवरी के अकेले दिन 3 करोड़ लोग उपस्थित।
  • 2003 - नासिक मेले में मुख्य स्नान दिवस पर 60 लाख लोग उपस्थित।
  • 2004 - उज्जैन मेला; मुख्य दिवस 5 अप्रैल, 19 अप्रैल, 22 अप्रैल, 24 अप्रैल और 4 मई।
  • 2007 - प्रयागराज में अर्धकुम्भ। पवित्र नगरी प्रयागराज में अर्धकुम्भ का आयोजन 3 जनवरी 2007 से 26 फरवरी 2007 तक हुआ।
  • 2010 - हरिद्वार में महाकुम्भ प्रारम्भ। 14 जनवरी 2010 से 28 अप्रैल 2010 तक आयोजित किया जाएगा। विस्तार से - २०१० हरिद्वार महाकुम्भ
  • 2013 - प्रयागराज का कुम्भ 14 जनवरी से 10 मार्च 2013 के बीच आयोजित किया गया। यह कुल 55 दिनों के लिए था, इस दौरान इलाहाबाद (प्रयागराज) सर्वाधिक लोकसंख्या वाला शहर बन जाता है। 5 वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में 8 करोड़ लोगों का उपस्थित होना विश्व की सबसे अद्भुत घटना है।
  • 2014 इस वर्ष सुप्रसिद्ध साहित्य पुस्तक "कुम्भ मेला: एक डॉक्टर की यात्रा" (आईएसबीएन 978 - 93 - 82937 - 11 - 1) प्रकाशित हुई। यह पुस्तक प्रयागराज में आयोजित कुम्भ मेला 2013 का यात्रा वृत्तान्त है। इसके लेखक डॉ वरुण चौधरी अन्तरिक्ष हैं। प्रथम संस्करण (2014) निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स आगरा द्वारा प्रकाशित किया गया था।
  • 2015 - नाशिक और त्रम्बकेश्वर में एक साथ जुलाई 14 ,2015 को प्रातः 6:16 पर वर्ष 2015 का कुम्भ मेला प्रारम्भ हुआ और सितम्बर 25,2015 को कुम्भ मेला समाप्त हो जायेगा। [8]
  • 2016 - उज्जैन में 22 अप्रैल से आरम्भ
  • 2019 - प्रयागराज में अर्धकुम्भ
  • 2021 - हरिद्वार में कुम्भ लगा।
  • "2025 - प्रयागराज में कुम्भ लगेगा।

चित्र प्रदर्शनी

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  1. Ganapati, Kedi (2024-11-28). "Origin Of Kumbha Mela". https://kediganapati.com/ (अंग्रेज़ी में). मूल से |archive-url= दिए जाने पर |archive-date= भी दी जानी चाहिए (मदद) को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2024-11-28. |website= में बाहरी कड़ी (मदद)
  2. "कुंभ मेला के पीछे ये हैं ज्योतिषीय और पौराणिक कारण". Jagran blog. अभिगमन तिथि 2021-12-12.
  3. admin, Manish (2021-01-26). "कुम्भ मेला (Kumbh Mela) इतिहास महत्व और आयोजन". राधे राधे (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2021-01-29.
  4. "संग्रहीत प्रति". मूल से 27 अक्तूबर 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 17 नवंबर 2015.
  5. "संग्रहीत प्रति". मूल से 18 नवंबर 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 17 नवंबर 2015.
  6. "संग्रहीत प्रति". मूल से 30 अक्तूबर 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 17 नवंबर 2015.
  7. Maclean, Kama (2008-08-28). Pilgrimage and Power: The Kumbh Mela in Allahabad, 1765-1954 (अंग्रेज़ी में). OUP USA. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-19-533894-2.
  8. "संग्रहीत प्रति". मूल से 16 जुलाई 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 जुलाई 2015.

*8 [[1]]

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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