अलंकार सिद्धान्त से तात्पर्य काव्य-सौन्दर्य निरूपक वह सिद्धान्त है जिसमें अलंकार की व्यापक परिकल्पना करते हुए समस्त काव्य-सौन्दर्य के मूल में उसे प्रतिष्ठित किया जाता है तथा रीति, गुण, रस, ध्वनि आदि काव्य के अन्य शोभादायक तत्त्वों को उसके अंगभूत रूप में (गौण रूप में) प्रस्तुत किया जाता है।

अलंकार सिद्धान्त या सम्प्रदाय के प्रवर्तक भामह माने जाते हैं। इन्होंने चारूता (सौन्दर्य) को सर्वप्रमुख तत्व माना। अलंकार मत के अनुसार काव्य यदि सौन्दर्य युक्त है तो स्वाभाविक रूप से वह रसयुक्त होगा ही । इस प्रकार रस और अलंकार परस्पर पोषक सिद्धान्त के रूप में विकसित हुए । अलंकारवादी आचार्यों की दृष्टि में काव्योचित सौन्दर्य का जो भी स्रोत ( रस, रीति, गुण, ध्वनि) है, वह अलंकार है तथा रस की अपेक्षा चारूता या सौन्दर्य काव्य के व्यापक तत्व हैं।

अलंकार सम्प्रदाय की विकास यात्रा के तीन चरण दिखाई देते हैं, जो इस प्रकार है:

  • (१) अलंकार ही सौन्दर्य ( भामह, दण्डी, वामन के मतानुसार),
  • (२) अलंकार और अलंकार्य में भेद है ( रुद्रट का मत), और
  • (३) अलंकार काव्य की बाह्य सज्जा का उपकरण (ध्वनिवादी और रसवादी आचार्यों के अनुसार ) ।

आचार्यों द्वारा स्वीकृत अलंकार के पाँच मूल हेतु हैं जिसके कारण अलंकार उत्पन्न होता है (१) स्वाभावोक्ति (२) वक्रोक्ति (३) सादृश्य (४) अतिशयता (५) गुणीभूत व्यंग्य। शब्द और अर्थ की वक्रता, व्यंजकता के आधार पर अलंकार के तीन भेद माने गए हैं – (1) शब्दांलकार (2) अर्थालंकार (3) उभयालंकर । आचार्यों ने इन अलंकारो के आधार पर उपभेद किए तथा उनका वर्गीकरण किया।

भामह शब्द और अर्थ दोनों के सहित भाव को काव्य मानते हुए शब्द और अर्थ की वक्रता को काव्यसौंदर्य का मूल मानते है । शब्द और अर्थ को विभामय करने वाली वक्रोक्ति ही उसके अनुसार अलंकार है । तत्पश्चात काव्य के समस्त शोभाकारक धर्मों को अलंकार की संज्ञा देते हुए दण्डी कहते हैं कि- काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते । आचार्य रुद्रट के अनुसार कथन के प्रकार विशेष अलंकार हैं- अभिधानप्रकार विशेषा एव चालंकाराः । आचार्य वामन ने अलंकार को व्यापक तथा सीमित दो रूपों में प्रयुक्त किया। व्यापक रूप में सौंदर्य मात्र को अलंकार मानते हुए कहा- सौंदर्यमलङ्कारः। लेकिन इसी के साथ वे अलंकार को काव्य का अनित्य धर्म और गुण को नित्य धर्म मानते हुए कहते हैं- काव्य शोभायाः कर्तारौ धर्माः गुणाः । तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः (काव्य का शोभाकारक धर्म गुण है और उसकी अतिशयता का हेतु अलंकार है)। इस परिभाषा से अलंकारों की तुलना में गुण की महत्ता बढ़ गयी ।

इन्हें भी देखें

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