अवधूत, साधुओं का एक भेद (प्रकार) है। जो कि अवधूत सम्प्रदाय से होते हैं। यर सम्प्रदाय सबसे पुरानी मानी जाती हैं। स्वयं भगवान शंकर भी इसी सम्प्रदाय से थे। उसके पश्चात आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय जी भी इसी सम्प्रदाय से थे।

उदाहरण

खेवरा, सेवरा, पारधी, सिवसाधक, अवधूत।
आसन मारे बैठ सब पाँच आत्मा भूत।। - जायसी

परिचय संपादित करें

अवधूतोपनिषद् के आरंभ में 'अवधूत' शब्द की जो व्याख्या दी गई है, उससे इस पद से संकेतित व्यक्ति के वैशिष्ट्य का विवरण हो जाता है। इस उपनिषद् के अनुसार इस शब्द में आए का अक्षरत्व अथवा अक्षरपद, का अर्थ वरेण्य का सर्वश्रेष्ठ पद, धू का अर्थ धूत संसारवर्धन अथवा सांसारिक वासनाओं का उच्छेद और का अर्थ है तत्वमस्यादिलक्ष्यत्व। इस पद से विशिष्ट व्यक्ति का व्याख्यान इस उपनिषद् के अतिरिक्त अवधूतगीता, गोरक्षनाथरचित सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति, गोरक्ष-सिद्धांत-संग्रह आदि ग्रंथों में उपलब्ध है।

"महानिर्वाणतंत्र" में प्रधानत: चार प्रकार के अवधूत कहे गए हैं :

(1) "ब्रह्मावधूत" जो किसी भी वर्ण का ब्रह्मेपासक हो और किसी भी आश्रम में हो;

(2) "शैवावधूत" जो विधिपूर्वक संन्यास ले चुका हो:

(3) "बीरावधूत" जिसके सिर के बाल दीर्घ तथा बिखरे हों, गले में हाड़ या रुद्राक्ष की माला पड़ी हो, कटि में कौपीन हो, शरीर पर भस्म या रक्तचंदन हो, हाथ में काष्ठदंड, परशु एवं डम डिग्री हो और साथ में मृगचर्म हो;

(4) "कुलावधूत" जो कुलाचार में अभिषिक होकर भी गृहस्थाश्रम में रहे।

वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत रामानंद के शिष्यों में भी अवधूत कहलानेवाले साधु पाए जाते हैं। इनके सिर पर बड़े-बड़े बाल रहते हैं, गले में स्फटिक की माला रहती है और शरीर पर कंथा एवं हाथ में दरियाई खप्पर दीख पड़ते हैं। बंगाल में इनके पृथक्-पृथक् अखाड़े हैं और इनमें सभी जातियों के लोग समाविष्ट होते हैं। भिक्षा के लिए जब ये गृहस्थों के द्वार पर जाते हैं तब "बीर अवधूत" नाम का स्मरण करके एकतारा या अन्य वाद्ययंत्र बजाकर गाने लग जाते हैं। ये लोग प्राय: अव्यवस्थित रूप में ही रहा करते हैं। इन्हें बंगाल में कभी-कभी 'बाउल' नाम से भी अभिहित करते हैं जो सर्वथा इनसे भिन्न वर्ग के कुछ अन्य लागों की ही वास्तविक संज्ञा है। नागपंथ में अवधूत की स्थिति अत्यंत उच्च मानी जाती है और "गोरक्ष-सिद्धांत-संग्रह" के अनुसार वह सभी प्रकार के प्रकृतिविकारों से रहित हुआ करता है। वह कैवल्य की उपलब्धि के लिए आत्मस्वरूप के अनुसंधान में निरत रहा करता है और उसकी अनुभूति निर्गुण एवं सगुण से परे होती है। गुरु दत्तात्रेय को भी अवधूत कहा जाता है और दत्तसंप्रदाय (अवधूत मत) में इसका पूर्ण विवेचन है। पश्चिमोत्तर प्रदेश में उन स्त्रियों को "अवधूती" कहते हैं जो पुरुष संन्यासी के वेश में रहकर भस्म, रुद्राक्षादि धारण करती हैं तथा साधारणत: किसी गंगागिरि नाम की वैसी ही संन्यासिन या अवधूतनी की परंपरा की समझी जाती हैं।

तांत्रिक बौद्ध साधना में ललना, रसना और अवधूती नामक तीन नाड़ियाँ प्रमुख मानी गई हैं। अवधूती सुषुम्नास्थानीय है। यह मध्यदेशीया एवं मध्य ग्राह्य-ग्राहक-विवर्जिता होती है। (ललना पज्ञा स्वभावेन रसनोपायसंस्थिता। अवधूती मध्यदेशे तु ग्राह्यग्राहकवर्जता। - अद्वयवज्रसंगह) यह धर्ममुद्रा तथा महामुद्रा की अभेदता का हेतु है। यह महासुखाश्रयसहजांनदप्रदायिका है और अद्वयस्वभावा है। बोधिचित् के मध्यवर्गीया अवधूतिका में ऊर्ध्वसंचार से भिन्न-भिन्न प्रकार के आनंदों का आस्वाद बताया जाता है।

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