अविरत यात्रा
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[अविरत यात्रा] [1] नई दिल्ली में धार्मिक और आध्यात्मिक युवाऒं द्वारा शुरू किया गया एक अभियान है। इस यात्रा का मकसद खुद की बेचैनी को दूर करना है। किस लिए बेचैन हैं हम? पूर्णता हासिल करने के लिए। इस सृष्टि के सूक्ष्म रज कण से लेकर विशालकाय पर्वत और क्षुद्र एक कोशकीय जीव से लेकर सर्वाधिक बुद्धिमान समझे जाने वाली मनुष्य जाति तक सभी सिर्फ और सिर्फ पूर्णता हासिल करने के लिए ही संघर्ष कर रहे हैं। अरबों वर्षों से एक अविरत यात्रा जारी है। चाहें वो मयखाने में बैठा शराबी हो या किसी मंदिर में बैठा पुजारी। सभी की जद्दोजहद का मकसद एक है। सिर्फ अवस्था विशेष का अंतर है। कोई आगे हैं और कोई पीछे। अब सवाल यह है कि क्या हम अधूरे हैं? अरबों अरब मनुष्यों की बेचैनी बताती है कि 'हां हम अपूर्ण हैं। अधूरे हैं।' मृत्यु जो हमारे जीवन का अटल सत्य है, हमें बार-बार याद दिलाती है कि 'हमारा बस तो खुद हमारे जीवन पर भी नहीं है।' हम तय नहीं कर सकते हैं कि ठीक अगले छण हमारे जीवन की दिशा क्या होगी। तो क्या नियति के दास के अतिरिक्त हम कुछ भी नहीं हैं? क्या हममें और कीट पर्यन्त क्षुद्र जीव में कोई अंतर नहीं है? और तभी हमारी चेतन बगावत कर उठती है। वैदिक मनीषियों से लेकर आधुनिक युग में स्वामी विवेकानंद तक की आवाज हमारे दिलो-दिमाग को झकझोर कर रख देती है। नहीं, मृत्यु हमारी नियति नहीं हो सकती है। सिर्फ श्वेताश्वर उपनिषद ही नहीं बल्कि हमारे अंतरमन से निकली आवाज भी हमसे कहती है कि वयमं अमृतस्य पुत्राः। हम अमृत के पुत्र हैं। अहमं ब्रहमास्मि। मैं स्वयं साक्षात ब्रहम हूं। और यकीन जानिए कि जब तक पूर्णता न मिल जाए, हममें से कोई भी चैन से नहीं बैठने वाला है। अब एक सवाल और है। ये पूर्ण अवस्था है क्या? आखिर इस पूर्णता के मायने क्या हैं? इसका जवाब आसान हैं। जब हमें उस अवस्था का प्रत्यक्ष ग्यान हो जाए, जिसका उल्लेख आदि जगत गुरु शंकराचार्य ने निर्वाण षटकम् में किया है। जरा देखिए तो आदि जगत गुरु निर्वाण षटकम् में क्या कह रहे हैं- मनोबुध्यहंकार चिताने नाहं। न च श्रोतजिव्हे न च घ्राणनेत्रे। न च व्योमभूमी न तेजू न वायु। चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ १ ॥
इस श्लोक की पहली तीन पंक्तियों में हम क्या नहीं है यह बताया गया है। शंकराचार्य जी कहते हैं कि मैं मन, बुद्धि, अहंकार, नाक, कान, जुबान, त्वचा, आंखे, पृथ्वी, आप, तेज, वायू, आकाश इन में से कुछ भी नहीं। बाकी रहा प्राण, आत्मा वही मैं हूं। और यह आत्मा कैसा है? तो वह भगवंतरूप शिवरूप, सत चित आनंदरूप, शिवरूप है। अविरत यात्रा