अहंमात्रवाद
अहंवाद (सॉलिप्सिज्म) उस दार्शनिक सिद्धांत को कहते है जिसके अनुसार केवल ज्ञाता एवं उसकी मनोदशाओं की ही सत्ता है, दूसरी किसी वस्तु की नहीं।
दर्शन के इतिहास में अहंवाद के किसी विशुद्ध प्रतिनिधि को पाना कठिन है, यद्यपि अनेक दार्शनिक सिद्धांत इस सीमा की ओर बढ़ते दिखाई देते हैं। इस मंतव्य का तत्वदर्शन तथा ज्ञानमीमांसा दोनों से संबंध है। तत्वदर्शन संबंधी मान्यता का उल्लेख ऊपर की परिभाषा में हुआ है। संक्षेप में वह मान्यता यही है कि केवल ज्ञाता अथवा आत्मा का ही अस्तित्व है। ज्ञानमीमांसा इस मंतव्य का प्रमाण उपस्थित करती है। दार्शनिक एफ.एच. ब्रैडले ने अहंवाद की पोषक युक्ति को इस प्रकार प्रकट किया है :
- मैं अनुभव का अतिक्रमण नहीं कर सकता और अनुभव मेरा अनुभव है। इससे यह अनुमान होता है कि मुझसे परे किसी चीज का अस्तित्व नहीं है, क्योंकि जो अनुभव है वह इस आत्म की दशाएँ ही हैं।
अहंवाद का बीजारोपण आधुनिक दर्शन के पिता देकार्त की विचारपद्धति में ही हो गया था। देकार्त मानते हैं कि आत्म का ज्ञान ही निश्चित सत्य है, ब्राह्म विश्व तथा ईश्वर केवल अनुमान के विषय हैं। जान लाक का अनुभववाद भी यह मानकर चलता है कि आत्म या आत्मा के ज्ञान का साक्षात् विषय केवल उसके प्रत्यय होते हैं, जिनके कारण भूत पदार्थों की कल्पना की जाती है। बर्कले का आत्मनिष्ठ प्रत्ययवाद अहंवाद में परिणत हो जाता है।
संदर्भ ग्रंथ
संपादित करें- बाल्डविन : डिक्शनरी आम्व फिलॉसफी ऐंड साइकॉलॉजी;
- अप्पय दीक्षित : सिद्धांतलेशसंग्रह (दृष्टिसृष्टिवाद प्रकरण)