ऊँची-नीची, पर्वतीय अथवा पंकिल भूमि को पार कर नियत स्थान पर सामग्री पहुँचाने के लिए आकाशीय रज्जुमार्ग (एईरियल रोपवेज़) अद्वितीय साधन है। कारखानों तथा बनते हुए बाँधों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर कच्चा सामान ले जाने के लिए इनका बहुत उपयोग होता है।

एक रज्जुमार्ग का बिहंगम दृष्य
आकाशीय रज्जुमार्ग की व्यवस्था

रज्जुमार्ग दो प्रकार के होते हैं : एकल रज्जु (मोनो केबुल) तथा द्विरज्जु (बाइकेबुल)।

एकल रज्जु (मोनो केबुल)

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एकल रज्जु में एक ही अछोर रज्जु होती है जो अनवरत चलती रहती है। यह अपने साथ खाली या भरे हुए डोलों (बाल्टियों) को अपने गंतव्य स्थान पर ले जाती है। ए डोल रज्जु में अपने वाहक के साथ बँधे रहते हैं।

इस्पात के एक कंकाल या अट्टालक पर रज्जु टिकी रहती है, जिसमें डोल अपने वाहक सहित काठी के फाँसों (सैडिल क्लिप्स) द्वारा बंधा रहता है। रज्जु निरंतर चलती रहती है और अपने साथ डोलों को भी लिए चलती है।

रज्जुमार्ग के दोनों छोरों पर घूमती हुई घिरनियाँ रहती हैं, जिनपर रज्जु चढ़ी रहती है। चित्र ख में लादने का स्थान दिखाया गया है। प्रत्येक छोर पर एक अपनयन पटरी (शंट रेल) रहती है, जिसपर भार लादने या खाली करने के लिए डोल चढ़ जाता है। काम पूरा हो जाने पर डोल को फिर रज्जु पर ठेल दिया जाता है। अपनयन पटरी तथा रज्जु की स्थिति में इस प्रकार का प्रबंध रहता है कि डोल को एक से दूसरे पर भेजने में बड़ी सुगमता होती है और रज्जु पर रंच मात्र भी झटका नहीं पड़ता; यह रज्जु के टिकाऊ (दीर्घजीवी) होने के लिए बहुत आवश्यक है।

यदि रज्जुमार्ग अधिक लंबा होता है तो प्रत्येक तीन या चार मील पर विभाजक स्टेशन बना दिया जाता है, जहाँ डोल पहली रज्जुप्रणाली को छोड़ देते हैं और उनके पहिए स्थिर पटरियों पर चढ़ जाते हैं। तब वे दूसरे भाग की रज्जु पर चढ़ने के लिए आगे की ओर ठेल दिए जाते हैं।

यदि रज्जुमार्ग में दिशापरिवर्तन की आवश्यकता पड़ती है तो परिवर्तन के स्थान पर एक प्लैटफार्म बना दिया जाता है जिसमें दो क्षैतिज (हॉरिजॉन्टल) घिरनियाँ रहती हैं। रज्जु इन घिरनियों पर से होकर जाती है और सरलता से उसकी दिशा बदल जाती है।

रज्जु का चुनाव

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रज्जु इस्पात के तारों को बटकर बनी रहती है। उसके चुनाव में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक है :

(1) एक-एक डोल में कितना बोझ लदेगा।

(2) बोझ लादने तथा उतारने के लिए कितना समय मिलेगा और

(3) रज्जुमार्ग का वेग कितना रहेगा।

इन्हीं बातों पर विचार करके रज्जुमार्ग की कार्यक्षमता नियत की जाती है, अर्थात्‌ यह स्थिर किया जाता है कि प्रति घंटा कितना बोझ वहन हो सकेगा। प्राय: बोझ लादने का समय बीस से तीस सेकंड तक ही होता है। आवश्यकतानुसार एक या इससे अधिक डोल एक साथ भरे जा सकते हैं। रज्जु का वेग रज्जुमार्ग की ढाल पर भी निर्भर रहता है। साधारणतया इसकी चाल दो से पाँच मील प्रति घंटा रखी जाती है, किंतु यह सात मील प्रति घंटा तक भी की जा सकती है। परंतु स्मरण रखना चाहिए कि गति में जितनी तीव्रता होगी उतनी ही अधिक इसमें परिवर्तन के झटके लगने की भी संभावना रहेगी। अतएव अधिक दूरी तथा अधिक क्षमता के लिए द्विरज्जुप्रणाली का ही उपयोग उचित होता है।

इस प्रकार रज्जु की मोटाई क्रमागत अट्टालकों के बीच की दूरी, उनके बीच की रज्जु पर एक साथ होनेवाले अधिकतम बोझ की मात्रा और प्रति इंच मोटाई के अनुसार रज्जु की मजबूती पर निर्भर है। मोटाई में रज्जु ½ इंच' से 1½ ईंच तक के व्यास की होती है। रज्जु पहले इतनी ही तानी जाती है कि वितस्ति (स्पैन, अर्थात्‌ एक अट्टालिका से क्रमागत अट्टालिका तक की दूरी) के केंद्र पर उसकी नति अधिक से अधिक वितस्ति की 1/20 हो। इसलिए अचल बोझ, वायु की दाब, झटकों और कंपनों के प्रभाव आदि, को ध्यान में रखकर ही रज्जुमार्ग का अंतिम रूप निश्चित किया जाता है। अचल भार, दाब आदि को कुल भार का 25 प्रतिशत मान लिया जा सकता है।

आवश्यक शक्ति

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रज्जु को पूर्वनिश्चित गति के अनुसार चलाने के लिए इंजन की आवश्यकता होती है और उसकी शक्ति रज्जु की ढाल (ग्रडिएँट) पर निर्भर है। कभी-कभी माल लादने का स्टेशन उतारनेवाले स्टेशन की अपेक्षा इतनी अधिक ऊँचाई पर होता है कि गुरुत्वाकर्षण के कारण लदे हुए डोल न केवल स्वयं नीचे उतरते हैं, वरन्‌ उनसे उत्पन्न फालतू शक्ति अन्य कार्यों में भी सहायक हो सकती है। साधारण अनुमान के लिए इतना कहा जा सकता है कि बोझ लादने और उतारने के स्टेशनों पर घर्षण के कारण चार से पाँच अश्वसामर्थ्य (हॉर्स पावर) तक की आवश्यकता हो सकती है। अट्टालिकों पर और रज्जु पर के घर्षण के लिए सा´ल/12 अश्वसामर्थ्य चाहिए, जहाँ सा प्रति घंटा प्रति टन में रज्जुमार्ग की क्षमता है और ल मार्ग की लंबाई मीलों में है। संचालक चक्रों में भी कुछ शक्ति का ह्रास होता है, जो पूर्वोंक्त घर्षण के 25 प्रतिशत के लगभग हो सकता है।

अट्टालिकाओं के निर्माण में इनकी क्रमिक दूरी के साथ अन्य बातों का ध्यान रख्ना पड़ता है, जैसे

  • (1) स्थायी भार,
  • (2) अट्टालिका, रज्जू और डोल पर वायु की दाब,
  • (3) नीचे की दिशा में रज्जु के तनाव का विघटित अंश (रिज़ॉल्व्ड पार्ट),
  • (4) अट्टालिका की घिरनी के फँस जाने पर, एक ओर की रज्जु पर बोझ और दूसरी ओर कुछ न रहने से, दोनों ओर की रज्जुओं के क्षैतिज तनावों में अंतर ओर
  • (5) एक ओर की रज्जु टूट जाने पर अटृटालिका पर क्षैतिज तनाव और ऐंठन घूर्ण (टार्शनलमोमेंट)।

द्विरज्जुप्रणाली

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दोहरी रज्जुप्रणाली में एक मार्गदर्शी रज्जु (ट्रैक रोप) रहती है, जो डोलवाहकों का बोझ सँभालती है और उन्हें ठीक मार्ग से विचलित नहीं होने देती। दूसरी रज्जु चलती रहती है और वही डोलों को घसीट ले चलती है, जैसा चित्र ङ में दिखाया गया है।

घसीटनेवाली रज्जु ठीक उसी प्रकार की होती है जैसी एकल-रज्जु-प्रणाली में। इन दोनों प्रणालियों में कौन सी प्रणाली चुननी चाहिए, यह बताना बहुत कठिन है। द्विरज्जुप्रणाली में आरंभ में अधिक खर्च अवश्य बैठता है, पर अधिक दूरी तक तथा अधिक ढाल पर अधिक बोझ के यातायात के लिए यही प्रणाली अधिक उपयुक्त ठहरती है। एकल-रज्जु-प्रणाली अधिक सरल है और हल्के तथा अस्थायी कामों के लिए अवश्य ही अपेक्षाकृत सस्ती है।

रेलमार्ग की अपेक्षा सुविधाएँ

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पर्वतीय प्रदेशों में रेलमार्गों में अधिक से अधिक तीन प्रतिशत ढाल रखी जा सकती है, परंतु रज्जुमार्ग 40 प्रतिशत ढाल तक पर काम कर सकता है। यदि किसी पर्वतीय प्रदेश में दो बिंदुओं के तलों का अंतर 2,640 फुट है और वे एक दूसरे से दो मील पर हैं तो दो मील के ही रज्जुमार्ग से काम चल जाएगा; परंतु 2 प्रतिशत की ढाल के रेलमार्ग की लंबाई 20 मील रखनी पड़ेगी। फिर, रेल के लिए मार्ग के बीहड़ नालों को पार करने और स्थान-स्थान पर पुल, तटबंध तथा पुश्तवान बनाने की कठिनाइयाँ भी अत्यधिक हो सकती हैं।


इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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