सबसे पहले डेविड ह्यूम द्वारा सूत्रपात की गई, आगमन की समस्या (Problem of Induction) भविष्य अतीत जैसा होगा मानने के हमारे कारणों पर सवाल उठाती है , या अधिक मोटे तौर पर यह पिछली प्रेक्षणों के आधार पर अप्रक्षित चीजों के बारे में भविष्यवाणियों पर सवाल उठाती है। देखे गए से न देखे गए इस अनुमिति (inference) को "आगमनात्मक अनुमान" के रूप में जाना जाता है, और ह्यूम ने यह स्वीकार करते हुए कि हर कोई ऐसे अनुमान लगाता है और लगाना चाहिए, तर्क दिया कि उन्हें उचित ठहराने का कोई गैर-चक्रक (non-circular) तरीका नहीं है। इस समस्या से तर्कसंगतता के प्रबुद्ध (ज्ञानोदय) स्तंभों में से एक कमजोर हो जाता है। [1]

दुहराए गए अवलोकनों से आमतौर पर यह अनुमान लगाया जाता: "सूरज हमेशा पूर्व में उगता है।"
दुहराए गए अवलोकनों से आम तौर पर यह अनुमान नहीं लगाया जाता: "जब कोई मरता है, तो कभी भी वह मैं नहीं होता।"

जबकि डेविड ह्यूम को 18वीं शताब्दी में पश्चिमी विश्लेषणात्मक दर्शन में इस मुद्दे को उठाने का श्रेय दिया जाता है, हेलेनाई दर्शन के पायरोवादी स्कूल और प्राचीन भारतीय दर्शन के चार्वाक स्कूल ने उससे बहुत पहले आगमनात्मक औचित्य के बारे में संदेह व्यक्त किया था।

पारंपरिक आगमनवादी दृष्टिकोण यह है कि सभी दावा किए गए अनुभवजन्य नियम, या तो रोजमर्रा की जिंदगी में या वैज्ञानिक पद्धति के माध्यम से, किसी न किसी रूप में तर्कणा के माध्यम से उचित ठहराए जा सकते हैं। समस्या यह है कि कई दार्शनिकों ने ऐसा औचित्य (justification) खोजने की कोशिश की लेकिन उनके प्रस्तावों को दूसरों ने स्वीकार नहीं किया। आगमनवादी दृष्टिकोण को वैज्ञानिक दृष्टिकोण के रूप में मानते हुए, सी. डी. ब्रॉड ने एक बार कहा था कि आगमन "विज्ञान की महिमा और दर्शन का कलंक" है। इसके विपरीत, कार्ल पॉपर के समालोचनात्मक तर्कवाद ने दावा किया कि विज्ञान में आगमनात्मक औचित्य का कभी भी उपयोग नहीं किया जाता है और इसके बजाय प्रस्तावित किया गया है कि विज्ञान परिकल्पनाओं का अटकल लगाने, परिणामों की निगनात्मक रूप से गणना करने और फिर अनुभवजन्य रूप से उन्हें मिथ्याकृत (falsify) करने की प्रक्रिया पर आधारित है।

  1. Hume, David (January 2006). An Enquiry Concerning Human Understanding. Gutenberg Press.#9662: Most recently updated in 16 October 2007