आरसी प्रसाद सिंह
इस लेख में विकिपीडिया के गुणवत्ता मापदंडों पर खरे उतरने के लिए सफ़ाई की आवश्यकता है। इसमें मुख्य समस्या है कि: copyedit। कृपया इस लेख को सुधारने में यदि आप सहकार्य कर सकते है तो अवश्य करें। इसके संवाद पृष्ठ पर कुछ सलाह मिल सकती है। (मार्च 2012) |
इस लेख में सन्दर्भ या स्रोत नहीं दिया गया है। कृपया विश्वसनीय सन्दर्भ या स्रोत जोड़कर इस लेख में सुधार करें। स्रोतहीन सामग्री ज्ञानकोश के उपयुक्त नहीं है। इसे हटाया जा सकता है। (मार्च 2012) स्रोत खोजें: "आरसी प्रसाद सिंह" – समाचार · अखबार पुरालेख · किताबें · विद्वान · जेस्टोर (JSTOR) |
मैथिली और हिन्दी के महाकवि आरसी प्रसाद सिंह (१९ अगस्त १९११ - नवम्बर १९९६) रूप, यौवन और प्रेम के कवि के रूप में विख्यात थे। बिहार के चार नक्षत्रों में वियोगी के साथ प्रभात और दिनकर के साथ आरसी सदैव याद किये जायेंगे।
आरसी बाबू का जन्म बिहार के समस्तीपुर जिले के एरौत गाँव में १९ अगस्त १९११ में हुआ था।
रचित कवितायेँ
संपादित करें•माटिक दीप (mETilIमैथिली काव्य संग्रह)
•पूजाक फूल (मैथिली काव्य संग्रह)
•सूर्यमुखी (मैथिली काव्य संग्रह) (साहित्य अकादमी पुरस्कार सन् 1984 में प्रदान किया गया।
•कागज की नाव (hiहिन्दी)
अनमोल वचन: (हिन्दी)
- Kalapi (Hindi)
“चलना है, केवल चलना है| जीवन चलता ही रहता है| रुक जाना है, मर जाना ही, निर्झर यह झड़ कर कहता है|” आरसी प्रसाद सिंह
जीवन का झरना आरसी प्रसाद सिंह के द्वारा रचित
यह जीवन क्या है? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है। सुख-दुःख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है। कब फूटा गिरि के अंतर से? किस अंचल से उतरा नीचे? किस घाटी से बह कर आया समतल में अपने को खींचे? निर्झर में गति है, जीवन है, वह आगे बढ़ता जाता है! धुन एक सिर्फ है चलने की, अपनी मस्ती में गाता है। बाधा के रोडों से लड़ता, वन के पेडो से टकराता, बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता|
लहरें उठती हैं, गिरती हैं; नाविक तट पर पछताता है। तब यौवन बढ़ता है आगे, निर्झर बढ़ता ही जाता है।
निर्झर कहता है, बढे चलो! देखो मत पीछे मुड़ कर! यौवन कहता है, बढे चलो! सोचो मत होगा क्या चल कर?
चलना है, केवल चलना है! जीवन चलता ही रहता है! रुक जाना है मर जाना ही, निर्झर यह झड़ कर कहता है!
जीवन और यौवन आरसी प्रसाद सिंह के द्वारा रचित
मै आया हूँ जीवन लेकर, मै यौवन लेकर आया हूँ!
आतुर कण कण से मिलने को फड़क रही हैं मेरी बाहें! निकल गया मैं जिधर, उधर ही टूटे शिखर, गयीं बन राहें! मुझमे जादू है, मिट्टी को छू दूँ, बन जाये सोना! मेरे हृदय-कमल से सुरभित है पृथ्वी का कोना-कोना!
दिन में चमका प्रखर सूर्य-सा, निशि में शशि बन मुस्काया हूँ! मैं आया हूँ जीवन लेकर, मैं यौवन लेकर आया हूँ!
सावन की घनघोर घटा-सा मैं बरसूँगा, मैं लरजूंगा! और वज्र-सा भीम व्योम के वक्षस्थल पर मैं गरजूंगा! चूमा करती है बिजली को बादल में हँस मेरी हस्ती रज-रज के जर्जर प्राणों में भर दूँगा मैं अपनी मस्ती!
जगती के सौंदर्य फूल पर! भौंरा बनकर मंडराया हूँ!
............. पैठा हूँ पाताल-गर्भ में, महासिंधु सा लहराया हूँ! मैं आया हूँ जीवन लेकर, मैं यौवन लेकर आया हूँ!
(जीवन और यौवन से)
जय अखण्ड भारत आरसी प्रसाद सिंह के द्वारा रचित
शक्ति ऐसी है नहीं संसार में कोई कहीं पर, जो हमारे देश की राष्ट्रीयता को अस्त कर दे। ध्वान्त कोई है नहीं आकाश में ऐसा विरोधी, जो हमारी एकता के सूर्य को विध्वस्त कर दे!
राष्ट्र की सीमांत रेखाएं नहीं हैं बालकों के खेल का कोई घरौंदा, पाँव से जिसको मिटा दे। देश की स्वाधीनता सीता सुरक्षित है, किसी दश- कंठ का साहस नहीं, ऊँगली कभी उसपर उठा दे।
देश पूरा एक दिन हुंकार भी समवेत कर दे, तो सभी आतंकवादियों का बगुला टूट जाये| किन्तु, ऐसा शील भी क्या, देखता सहता रहे जो आततायी मातृ-मंदिर की धरोहर लूट जाये|
रोग, पावक, पाप, रिपु प्रारंभ में लघु हों भले ही किन्तु, वे ही अंत में दुर्दम्य हो जाते उमड़कर| पूर्व इस भय के की वातावरण में विष फ़ैल जाये, विषधरों के विष उगलते दंश को रख दो कुचलकर
झेलते तूफ़ान ऐसे सैकड़ो आये युगों से, हम इसे भी ऐतिहासिक भूमिका में झेल लेंगे| किन्तु, बर्बर और कायरता कलंकित कारनामों की पुनरावृति को निश्चेष्ट होकर हम सहेंगे|
जन्मभूमि जननी आरसी प्रसाद सिंह के द्वारा रचित
जन्मभूमि जननी! पृथ्वी शिर मौर मुकुट चन्दन सन्तरिणी जन्मभूमि जननी। वन-वनमे मृगशावक, नभमे रवि-शशि दीपक, हिमगिरिसँ सागर तक विपुलायत धरणी, जन्मभूमि जननी। दिक्-दिक् में इन्द्रजाल, नवरसमय आलवाल, पुष्पित अंचल रसाल, नन्दन वन सरणी, जन्मभूमि जननी। शक्ति, ओज, प्राणमयी, देवी वरदानमयी, प्रतिपल कल्याणमयी दिवा अओर रजनी, जन्मभूमि जननी।
बाजि गेल रनडँक आरसी प्रसाद सिंह के द्वारा रचित
बाजि गेल रनडँक, डँक ललकारि रहल अच्छी गरजि—गरजि कै जन जन केँ परचारि रहल अच्छी तरुण स्विदेशक की आबहुँ रहबें तों बैसल आँखि फोल, दुर्मंद दानव कोनटा लग पैसल कोशी—कमला उमडि रहल, कल्लौल करै अच्छी के रोकत ई बाढि, ककर सामर्थ्यल अडै अच्छी स्वीर्ग देवता क्षुब्धँ, राज—सिंहासन गेलै मत्त भेल गजराज, पीठ लागल अच्छी मोलै चलि नहि सकतै आब सवारी हौदा कसि कै ई अरदराक मेघ ने मानत, रहत बरसि कै एक बेरि बस देल जखन कटिबद्ध “चुनौती” फेर आब के घूरि तकै अच्छी साँठक पौती ? आबहुँ की रहतीह मैथिली बनल—बन्दिगनी ? तरुक छाह में बनि उदासिनी जनक—नन्दिनी डँक बाजि गेल, आगि लँक में लागि रहल अच्छी अभिनव विद्यापतिक भवानि जागि रहल अच्छी