आली मज्याडी, आदिबद्री तहसील, उत्तराखण्ड
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आली मज्याडी उत्तराखण्ड के चमोली जिले के आदिबद्री तहसील का एक गाँव है।
आली आसौं आली | |
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उत्तराखण्ड राज्य का एक गाँव | |
आली बुग्याल, खैयुधार | |
तहसील | आदिबद्री |
जिला | चमोली |
राज्य | उत्तराखण्ड |
शासन | |
• ग्राम प्रधान | श्रीमती सुनीता देवी |
• विधायक | श्री अनिल नौटियाल |
• सांसद | श्री तीरथ सिंह रावत |
क्षेत्रफल | |
• कुल | 1.5 वर्गमील (4.0 किमी2) |
ऊँचाई | 3,150 फीट (960 मी) |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | 1.000 लगभग |
पिनकोड | 246440 |
वेबसाइट | www.uttara.gov.in |
परिचय
संपादित करेंआली, (पूर्व नाम आसौं आली) आदिबद्री तहसील में आदिबद्री एन एच 109 सड़क पर हनुमान मंदिर से नोटी नंदासैण वाली सड़क पर 22 कि.मी की दूरी पर बसा है। यह सड़क जंगलों के बीच से होकर जाती है यह गाँव चारों तरफ से जंगल और ऊपर से आली बुग्याल जिसको यहाँ के ग्रामवासी खैयुधार नाम से जानते हैं यह 1500 मीटर क्षेत्र मैं फैला बुग्याल प्राकृतिक अहसास दिलाता है, इस बुग्याल के बीच मैं एक छोटा सा तालाब (खैयी) है, जिस तालाब मैं यहाँ के ग्राम वासीयो के गाय और जंगली जानवर पानी पीते है, यह तालाब लगभग 50 मीटर लम्बा और 10 मीटर चौड़ा है, इस बुग्याल से 2,500 मीटर खड़ी चडाई पर शिव का मंदिर है।
आली शब्द का अर्थ
संपादित करेंकहा जाता है कि यहाँ आली नाम से सम्बधित जाति रहती थी जिस कारण इस छोटे से क्षेत्र को इन्ही के नाम से जाना जाता होगा और आधुनिक समय में यह शब्द अर्थ बदल चुका हैं आज के परिपेक्ष में आली शब्द के दो सुन्दर अर्थ सामने आते हैं 1 सखी अर्थात् मित्र 2 भवरा अर्थात् प्यार का प्रतिक। इस प्रकार आली के दो अर्थ स्पष्ट होते हैं
- दोस्ती ता प्रतीक
- प्यार का प्रतीक!
पुराने दस्तावेजो में आली और मज्याडी एक ही गाँव समझा जाता हैं, लेकिन अब ये दोनों गाँव अलग-अलग है।
आली की राजनीति
संपादित करेंआली गाँव का राजनीतिक इतिहास पूर्ण रूप से उपलब्ध ना होने के कारण लिखा नहीं जा सकता। वर्तमान में आली मज्याडी और देवलकोट एक ग्राम पंचायत है (कही -कही सरकारी दस्तावेज में आली और मज्याडी को एक ही गाँव बताया गया है लेकिन असल में आली और मज्याडी दो अलग-अलग गाँव है) आली मज्याडी और देवलकोट ग्राम पंचायत से वर्तमान प्रधान श्रीमती सुनीता देवी जी हैं।
"आली आलीशान हो" कुदरत ने आली को प्रकृतिक सम्पदा से परिपूर्ण किया है आली हुनर बाजो का गाँव है जब यहाँ बर्फ गिरती है तो यह गाँव कुछ दिनो के लिये कश्मीर और मसूरी बन जाता है। चुनाव के दिनो में ये छोटा सा गाँव तीन-चार भागोँ में बट जाता है जैसे- भाजपायी, काग्रेसी, आप और क्षेत्रिया दल। यह गाँव कि राजनीतिक स्वतत्रता को दर्शाता हैं ! जीवन यापन के साधन में खेती, गाँय, भैस, बकरी और आदि सम्मलित हैं गाँव के कुछ युवा प्रशासनिक कार्यो व क्षेत्र से प्रेरित है तो कोई फौज कि भर्ती के प्रति अति उत्साहित होते हैं! अगर खेल सम्बधी बाते करे तो पूर्ण जानकारी ना देने के कारण हम क्षमा प्रार्थी हैं लेकिन आधुनिक समय में आली गाँव में क्रिकेट अत्यधिक खासा लोकप्रिया है इस बात का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरे चाँदपुरपट्टी, नागपुरपट्टी, बदाणपट्टी, और पूरे क्षेत्रों में आली गाँव के खिलाड़ी जाने जाते हैं। आली गाँव हुनरबाजो का गाँव हैं सबके बारे में लिखना सम्भव नहीं हैं!
स्थानीय संस्कृति
संपादित करेंअब बात करते हैं गाँव कि रीति रिवाज कि सभ्यता कि जब यहाँ अष्टबली (अठवाड्) या राम लीला(रामजिला)]] का आयोजन होता है तो पूरा गाँव धार्मिक रंग में रंग जाता हैं आली गाँव कि होली पूरे क्षेत्र में जानी जाती थी लेकिन आज छोटे-छोटे त्योहार लुप्त होने के कगार पर हैं जैसे-अंगयारपूज्ये आदि! और बड़े-बड़े त्योहारो के प्रति भी लोगो का रवैया उदासी होता जा रहा है।
आर्थिक स्थिति
संपादित करेंविकास के मामले में आली गाँव अपनी रफ़्तार को धीमी गति से विकसित होने की और बड़ रहा है। "तुम्हारा लक तुम्हारा सडक" विकास वजनदार, लम्बा, चौडा और तेजस्वी होता हैं विकास के आने से गाँव चकाचौध हो जाता है विकास एक बार आता है तो आता ही रहता है लेकिन विकास का एक गुण होता है विकास गाँव में सडक के रास्ते आता है झाडियो और टुटे रास्तो द्वारा नहीं,
आली मित्र मंडली
हम चाहे कितने भी दूर रहे लेकिन एकता में रहें, एकता के लिए हमें ग्रुप बनाना चाहिये। जिसका नाम "आली मित्र मंडली" होगा।
इस मंडली में गाँव का प्रत्येक व्यक्ति जुड़ सकता है इस मंडली के माध्यम से गाँव कि प्रत्येक गतिविधि पर हम नज़र रख सकते हैं और कुछ सुधाव दे सकते हैं मिलकर काम कर सकते हैं और जरूरत के समय मदत भी कर सकते हैं जैसे -गाँव में रामलीला करानी हो, क्रिकेट कराना हो और कुछ काम होँ, हम सबका एक ही सपना आली आलीशान हो।
आली का इतिहास
संपादित करेंक्यो ना हम पूर्ण और स्पष्ट जानकारी संकलित करे जिससे कि हमारी भावी पीढ़ी (जनरेशन) को आली गाँव से सम्बधित हर जानकारी स्पष्ट हो पाये !
निकटवर्ती स्थान
संपादित करेंचाँदपुरगढ़ी
संपादित करेंचाँदपुरगढ़ी उत्तराखण्ड के 52 गढोँ में एक प्रसिद्ध गढ था, आली गाँव इसी गढ़ के अन्तर्गत आता है। आज चाँदपुरगढ़ी एक अलग स्थान है जो हमेशा से और आज भी प्राकृतिक सौन्दर्य तथा पर्यटक स्थल के लिये आकर्षण का केद्र बना हुआ हैं और नजाने कितने असुलझे रहस्य अपने गर्भ में समाये हुए हैं यह कर्णप्रयाग का निकटवर्ती आकर्षण है। यह उत्तराखंड राज्य में पड़ता है। गढ़वाल का प्रारंभिक इतिहास कत्यूरी राजाओं का है, जिन्होंने जोशीमठ से शासन किया और वहां से 11वीं सदी में अल्मोड़ा चले गये। गढ़वाल से उनके हटने से कई छोटे गढ़पतियों का उदय हुआ, जिनमें पंवार वंश सबसे अधिक शक्तिशाली था जिसने चाँदपुरगढ़ी (किला) से शासन किया। कनक पाल को इस वंश का संस्थापक माना जाता है। उसने चांदपुर भानु प्रताप की पुत्री से विवाह किया और स्वयं यहां का गढ़पती बन गया। इस विषय पर इतिहासकारों के बीच विवाद है कि वह कब और कहां से गढ़वाल आया।
कुछ लोगों के अनुसार वह वर्ष 688 में मालवा के धारा नगरी से यहां आया। कुछ अन्य मतानुसार वह गुज्जर देश से वर्ष 888 में आया जबकि कुछ अन्य बताते है कि उसने वर्ष 1159 में चांदपुर गढ़ी की स्थापना की। उनके एवं 37वें वंशज अजय पाल के शासन के बीच के समय का कोई अधिकृत रिकार्ड नहीं है। अजय पाल ने चांदपुरगढ़ी से राजधानी हटाकर 14वीं सदी में देवलगढ़ वर्ष 1506 से पहले ले गया और फिर श्रीनगर (वर्ष 1506 से 1519)।
यह एक तथ्य है कि पहाड़ी के ऊपर, किले के अवशेष गांव से एक किलोमीटर खड़ी चढ़ाई पर हैं जो गढ़वाल में सबसे पुराने हैं तथा देखने योग्य भी हैं। अवशेष के आगे एक विष्णु मंदिर है, जहां से कुछ वर्ष पहले मूर्ति चुरा ली गयी। दीवारें मोटे पत्थरों से बनी है तथा कई में आलाएं या काटकर दिया रखने की जगह बनी है। फर्श पर कुछ चक्राकार छिद्र हैं जो संभवत: ओखलियों के अवशेष हो सकते हैं। एटकिंसन के अनुसार किले का क्षेत्र 1.5 एकड़ में है। वह यह भी बताता है कि किले से 500 फीट नीचे झरने पर उतरने के लिये जमीन के नीचे एक रास्ता है। इसी रास्ते से दैनिक उपयोग के लिये पानी लाया जाता होगा। एटकिंसन बताता है कि पत्थरों से कटे विशाल टुकड़ों का इस्तेमाल किले की दीवारों के निर्माण में हुआ जिसे कुछ दूर दूध-की-टोली की खुले खानों से निकाला गया होगा। कहा जाता है कि इन पत्थरों को पहाड़ी पर ले जाने के लिये दो विशाल बकरों का इस्तेमाल किया गया जो शिखर पर पहुंचकर मर गये।
यह स्मारक अभी भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण की देख-रेख में है।