आलोक धन्वा
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आलोक धन्वा का जन्म 2 जुलाई 1948 ई० में मुंगेर (बिहार) में हुआ। वे हिंदी के उन बड़े कवियों में हैं, जिन्होंने 70 के दशक में कविता को एक नई पहचान दी। उनका पहला संग्रह है- दुनिया रोज बनती है। ’जनता का आदमी’, ’गोली दागो पोस्टर’, ’कपड़े के जूते’ और ’ब्रूनों की बेटियाँ’ हिन्दी की प्रसिद्ध कविताएँ हैं। अंग्रेज़ी और रूसी में कविताओं के अनुवाद हुए हैं। उन्हें पहल सम्मान, नागार्जुन सम्मान, फ़िराक गोरखपुरी सम्मान, गिरिजा कुमार माथुर सम्मान, भवानी प्रसाद मिश्र स्मृति सम्मान मिले हैं। पटना निवासी आलोक धन्वा महात्मागांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में कार्यरत थे।
जीवन परिचय
संपादित करेंआलोक धन्वा सातवें-आठवें दशक के कवि हैं। इनका नाम नई कविता से जुड़ा हुआ है। इनका जन्म सन् 1948 में बिहार के मुंगेर जनपद के एक साधारण परिवार में हुआ। बहुत छोटी अवस्था में अपनी कुछ गिनी-चुनी कविताओं के फलस्वरूप इन्होंने अपार लोकप्रियता अर्जित की। इनकी मूल विधा कुंवर नारायण की तरह कविता ही रही है, इसके बावजूद उन्होंने अन्य लेखों को लिखा। 1972-73 में इनकी जो आरम्भिक कविताएँ प्रकाशित हुईं, उन्होंने काव्य-प्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। कुछ आलोचकों का तो यह भी दावा है, कि इन कविताओं का अभी तक सही मूल्यांकन ही नहीं हुआ। इसका प्रमुख कारण यह है कि आलोक धन्वा ने लीक से हटकर एक नवीन शिल्प द्वारा भावाभिव्यक्ति की है। भले ही उनको अल्पकाल ही में ख्याति प्राप्त हो गई है, लेकिन उन्होंने अधिक काव्य रचना नहीं की। पिछले दो दशकों से वे देश के विभिन्न भागों में सामाजिक तथा सांस्कृतिक कार्यकर्त्ता के रूप में काम करते रहे हैं। काव्य रचना की अपेक्षा उनकी रुचि सामाजिक कार्यक्रमों में अधिक रही है। जमशेदपुर में उन्होंने अध्ययन मंडलियों का संचालन किया। यही नहीं, उन्होंने अनेक राष्ट्रीय संस्थानों तथा विश्वविद्यालयों में अतिथि व्याख्याता की भूमिका भी निभाई है।
साहित्यिक जीवन
संपादित करेंआलोक धन्वा समकालीन कविता के एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उनके काव्य में लगभग वे सभी प्रवृत्तियाँ देखी जा सकती हैं, जो समकालीन कवियों की काव्य रचनाओं में हैं। आलोक धन्वा की काव्य रचनाओं में सामाजिक चेतना के प्रति सरोकार है। आरंभ में तो वे समाज के शोषितों के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त करते हुए दिखाई देते हैं। इनकी कविताएँ वर्तमान समाज के ढाँचे की विडम्बनाओं को उद्घाटित करती हैं, और मानवीय संबंधों पर भी प्रकाश डालती हैं। कुछ स्थलों पर वे आज की राजनीति पर करारा व्यंग्य भी करती हैं, और बुनियादी मानसिकताओं पर चोट भी करती हैं। उनकी काव्य रचनाओं में बार-बार आम आदमी का स्वरूप भी उभरकर आता है। इसके साथ-साथ कवि ने युगीन रुचियों, आवेगों तथा वर्ग-संघर्ष का भी वर्णन किया है। ईश्वर के प्रति उनकी कविता में कोई खास स्थिरता नहीं है। मार्क्सवाद के प्रति आस्था होने के कारण ईश्वर के प्रति उनका विश्वास उठ गया है। हाँ, मानव के प्रति वे निरन्तर अपना सरोकार दिखाते हैं।
आज दिन-प्रतिदिन की निराशा, खटास, दुःख, पीड़ा आदि के फलस्वरूप मानव-जीवन अलगावबोध का शिकार बनता जा रहा। है। आलोक धन्वा सच्चाई से पूर्णतया अवगत रहे हैं। वे मानव जीवन की इस त्रासदी को उकेरने में भी सफल रहे हैं। इसके अतिरिक्त उनकी काव्य रचनाओं में आधुनिक युग की विसंगतियों का वर्णन भी देखा जा सकता है। कहीं-कहीं वे महानगरीय बोध से जुड़ी हुई भावनाएँ व्यक्त करते हैं। लेकिन सच्चाई तो यह है, कि आलोक धन्वा ने आम आदमी के जीवन से जुड़ी समस्याओं का अधिक वर्णन किया है। 'पतंग' नामक लम्बी कविता में उन्होंने पतंग जैसी साधारण वस्तु को काव्य का विषय बनाया है, और उसके माध्यम से बच्चों में उमंग और उल्लास का मनोहारी वर्णन किया है।
कविता संग्रह
दुनिया रोज बनती
कविताएँ
संपादित करें- आम का पेड़
- नदियाँ
- बकरियाँ
- पतंग
- कपड़े के जूते
- नींद
- शरीर
- एक ज़माने की कविता
- गोली दागो पोस्टर
- जनता का आदमी
- भूखा बच्चा
- शंख के बाहर
- भागी हुई लड़कियाँ
- जिलाधीश
- फ़र्क़
- छतों पर लड़कियाँ
- चौक
- पानी
- ब्रूनो की बेटियाँ
- मैटिनी शो
- पहली फ़िल्म की रोशनी
- क़ीमत
- आसमान जैसी हवाएँ
- रेल
- जंक्शन
- शरद की रातें
- रास्ते
- सूर्यास्त के आसमान
- विस्मय तरबूज़ की तरह
- थियेटर
- पक्षी और तारे
- रंगरेज़
- सात सौ साल पुराना छन्द
- समुद्र और चाँद
- पगडंडी
- मीर
- हसरत
- किसने बचाया मेरी आत्मा को
- कारवाँ
- अपनी बात
- सफ़ेद रात