सुपरिचित हिन्दी लेखिका चित्रा मुद्गल का बृहद उपन्यास 'आवां' स्त्री-विमर्श का बृहद आख्यान है। जिसका देश-काल तो उनके पहले उपन्यास 'एक ज़मीन अपनी' की तरह साठ के बाद का मुंबई ही है, लेकिन इसके सरोकार उससे कहीं ज़्यादा बड़े हैं, श्रमिकों के जीवन और श्रमिक राजनीति के ढेर सारे उजले-काले कारनामों तक फैले हुए, जिसकी ज़मीन भी मुंबई से लेकर हैदराबाद तक फैल गई है। उसमें दलित जीवन और दलित-विमर्श के भी कई कथानक अनायास ही आ गए हैं। 'आवां' का बीज चाहे मुंबई ने रोपा, लेकिन खाद-पानी उसे हैदराबाद से मिला और श्रमिकों के शहर कोलकाता में बैठकर वह लिखा गया तो दिल्ली ने आधार कैंप का काम किया। इस रूप में यह लगभग पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करने वाला हिन्दी उपन्यास है। सही अर्थों में एक बड़ा उपन्यास, जिसमें लेखिका की अकूत अनुभव-संपदा काम आई है।

आवां  

मुखपृष्ठ आवां
लेखक चित्रा मुद्गल
देश भारत
भाषा हिन्दी
विषय उपन्यास (साहित्य)
प्रकाशक सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रकाशन तिथि 1999
पृष्ठ 544
आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 8171380220

ऊपरी तौर पर वह श्रमिक राजनीति पर लिखा गया उपन्यास लगता है, लेकिन गहराई में जाएँ तो हर जगह स्त्री-विमर्श की छायाएँ ही छायाएँ मंडराती नज़र आती हैं। 'आवां' की नायिका नमिता पांडे कामगार अघाड़ी में ट्रेड यूनियन का काम करने वाले मज़दूर नेता देवीशंकर पांडे की बेटी है, जो एक श्रमिक आंदोलन के दौरान हुए जानलेवा हमले में बच तो गए, लेकिन पक्षाघात के शिकार हो गए, चलने-फिरने तक से महरूम। उनकी पत्नी क्रूर और कर्कशा है, जो उन्हें ही नहीं, अपनी बड़ी बेटी नमिता को भी हमेशा जली-कटी सुनाती रहती है। माँ-बेटी पापड़ बेलने का काम करके किसी तरह गृहस्थी की गाड़ी को चलाने की कोशिश करती हैं। फिर अन्ना साहब उसे अपने पिता की जगह कामगार अघाड़ी की नौकरी दे देते हैं। बेटी जैसा मानते और कहते हुए भी एक दिन अन्ना साहब उसका यौन शोषण करने का प्रयास करते हैं तो नमिता का मोहभंग हो जाता है और वह कामगार अघाड़ी छोड़कर अन्यत्र नौकरी ढूँढ़ती है और एक मैडम अंजना बासवानी उसे संजय कनोई जैसे धनपति के स्वर्णिम जाल में फँसा देती है। उधर कामगार अघाड़ी में अन्ना साहब जो करते हैं, सो करते हैं, एक दलित श्रमिक और उभरता नेता पवार नमिता से विवाह कर खुद को अन्ना साहब के समानांतर बड़ा नेता बनने के सपने पालने लगता है। नमिता उसे पसंद भी करती है, लेकिन पवार के जातिवादी जाल में फँसना उसे मंजूर नहीं। संजय कनोई का जाल लेकिन बहुत बड़ा है और महीन भी, जिसे काफी समय तक नमिता समझ ही नहीं पाती। समझ तब पाती है, जब संजय कनोई की औलाद की बिनब्याही माँ बनने जा रही होती है। अन्ना साहब की हत्या का समाचार पाकर वह सन्न रह जाती है और सदमे से गर्भपात हो जाता है। नमिता खुद भी माँ बनने की बहुत इच्छुक नहीं थी। गर्भ गिरने को संजय कनोई नमिता के ही किसी प्रयास का कारण समझ कर फट पड़ता है : 'जानती हो, बाप बनने के लिए मैंने तुम्हारे ऊपर कितना खर्च किया? उस मामूली औरत अंजना बासवानी की क्या औक़ात कि तुम्हारे ऊपर पैसा पानी की तरह बहा सके? उसका जिम्मा सिर्फ़ इतना भर था कि वह मेरे पिता बनने में मेरी मदद करे और सौदे के मुताबिक अपना कमीशन खाए।' लेकिन इसके बाद नमिता नहीं रुकी। संजय कनोई की ऐशगाह में। उसने उसे छोड़ दिया, हमेशा-हमेशा के लिए। संक्षेप में यह आवां की कहानी है।[1]

दृष्टिकोण

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बीसवीं सदी के अंतिम प्रहर में एक मज़दूर की बेटी के मोहभंग, पलायन और वापसी के माध्यम से उपभोक्तावादी वर्तमान समाज को कई स्तरों पर अनुसंधानित करता, निर्ममता से उधेड़ता, तहें खोलता, चित्रा मुदगल का सुविचारित उपन्यास 'आवां' अपनी तरल, गहरी संवेदनात्मक पकड़ और भेदी पड़ताल के अंतर्व्याप्त रचना-कौशल से जिन बिंदुओं पर पाठकों को आत्मालोचन के कटघरे में ले, जिस विवेक की माँग करता है- वह चुनौती झेलना आज की अनिर्वायता है।

पुरस्कार व सम्मान

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इस उपन्यास को २००० में यू के कथा सम्मान तथा २००३ में व्यास सम्मान से अलंकृत किया गया है।

  1. "आवां". अभिव्यक्ति. मूल से 12 मई 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 9 मई 2008.