आसव एक पालि शब्द हैं (संस्कृत:आश्रव) जो बौद्ध शास्त्र, दर्शन, और मनोविज्ञान में प्रयोग किया जाता है, जिसका अर्थ हैं "अन्तर्वाह" या "नासूर"। यह कामुक सुख, अस्तित्व के लिए तरसना, और अज्ञानता के मानसिक कलंक को संदर्भित करता हैं, जो संसार - पुनर्जन्म, दुःख, और फिर मरने के अनादि चक्र - को कायम रखता हैं। बौद्ध धर्म में, आसव का अनुवाद "कर्म-संबंधी पूर्वाभिरुचि का पकना" या "कर्म-संबंधी झुकाव" भी होता हैं।[1] यह शब्द जैन साहित्य में भी आम हैं, और कभी कभी "आश्रव" के रूप में प्रकट होता हैं।[2] हालांकि, बौद्ध धर्म जैन धर्म की कर्म और आश्रव के वाद को नकारता हैं, और एक अन्य संस्करण प्रस्तुत करता हैं।[1]

  1. Lusthaus, Dan (2002). Buddhist phenomenology: A philosophical investigation of Yogācāra Buddhism and the Chʼeng Wei-shih lun (अंग्रेज़ी में). पपृ॰ ७३-७४. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9781317973423. मूल से 22 दिसंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 7 सितम्बर 2016.
  2. पाण्डे, गोविंद चन्द्र (1995). Studies in the Origins of Buddhism (अंग्रेज़ी में). Motilal Banarsidass. पपृ॰ ३६१-३६२. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-208-1016-7. अभिगमन तिथि 7 सितम्बर 2016.