इरावती ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखित जयशंकर प्रसाद का तीसरा और अपूर्ण उपन्यास है, जिसका प्रकाशन सन् १९३८ ई॰ में भारती भंडार, इलाहाबाद से हुआ था।[1]

परिचय संपादित करें

'इरावती' 'कामायनी' के बाद की कृति है। इस अपूर्ण उपन्यास का प्रकाशन प्रसाद जी के निधन के बाद हुआ। पुष्यमित्र शुंग के काल की कथावस्तु को आधार बनाकर प्रसाद जी ने इस उपन्यास में पाप-पुण्य के बजाय अच्छे और बुरे का विचार करते हुए 'कंकाल' की ही तरह इसमें भी प्रयोग करने वाले व्यक्ति की दृष्टि को निर्णायक माना है।

जिस ऐतिहासिक पद्धति पर प्रसाद जी ने नाटकों की रचना की थी उसी पद्धति पर उपन्यास के रूप में 'इरावती' की रचना का आरम्भ किया गया था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में "इसी पद्धति पर उपन्यास लिखने का अनुरोध हमने उनसे कई बार किया था जिसके अनुसार शुंगकाल (पुष्यमित्र, अग्निमित्र का समय) का चित्र उपस्थित करने वाला एक बड़ा मनोहर उपन्यास लिखने में उन्होंने हाथ भी लगाया था, पर साहित्य के दुर्भाग्य से उसे अधूरा छोड़कर ही चल बसे।"[2]

इस उपन्यास के सन्दर्भ में डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र ने लिखा है :

"इस उपन्यास में प्रसाद के नाटकों की तरह अतीत से वर्तमान की ओर प्रक्षेपन नहीं है बल्कि इसमें वर्तमान मनुष्य की दशा के आधार पर अतीत को उदाहरण या आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया है।... 'इरावती' में विवेकवाद को क्षुद्र और संकुचित दृष्टि का कारण माना गया है। संसार से विच्छिन्न करने वाले विराग और दर्शन की निंदा इस उपन्यास में एक प्रकार से संघर्ष और युद्ध के उद्घोष के रूप में प्रयुक्त हुई है। इसलिए इरावती यदि पूरी हो गई होती तो गद्यात्मक कामायनी होती।"[3]

इन्हें भी देखें संपादित करें

सन्दर्भ संपादित करें

  1. जयशंकर प्रसाद (विनिबंध), रमेशचन्द्र शाह, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली, पुनर्मुद्रित संस्करण-२०१५, पृष्ठ-९४.
  2. हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण- विक्रमसंवत् २०५८ (२००१ ई॰) पृष्ठ-२९४.
  3. प्रसाद के सम्पूर्ण उपन्यास, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पंचम संस्करण-२०१५, पृष्ठ-२४.

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें