ईरान की इस्लामी क्रांति

(ईरानी क्रान्ति से अनुप्रेषित)

ईरान की इस्लामी क्रांति (फ़ारसी: इन्क़लाब-ए-इस्लामी) सन् 1979 में हुई थी जिसके फलस्वरूप ईरान को एक इस्लामी गणराज्य घोषित कर दिया गया था। इस क्रांति को फ्रांस की राज्यक्रांति और बोल्शेविक क्रांति के बाद विश्व की सबसे महान क्रांति कहा जाता है। इसके कारण पहलवी वंश का अंत हो गया था और अयातोल्लाह ख़ोमैनी ईरान के प्रमुख बने थे।। ईरान का नया शासन एक धर्मतन्त्र है जहाँ सर्वोच्च नेता धार्मिक इमाम (अयातोल्लाह) होता है पर शासन एक निव्राचित राष्ट्रपति चलाता है। ग़ौरतलब है कि ईरान एक शिया बहुल देश है।

तेहरान में कॉलेज ब्रिज पर प्रदर्शन करते क्रांतिकारी

इस क्रांति के प्रमुख कारणों में ईरान के पहलवी शासकों का पश्चिमी देशों के अनुकरण तथा अनुगमन करने की नीति तथा सरकार के असफल आर्थिक प्रबंध थे। इसके तुरत बाद इराक़ के नए शासक सद्दाम हुसैन ने अपने देश में ईरान समर्थित शिया आन्दोलन भड़कने के डर से ईरान पर आक्रमण कर दिया था जो 8 साल तक चला और अनिर्णीत समाप्त हुआ।

पृष्ठभूमि

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ईरानी क्रांति में सड़क पर प्रदर्शन करते लोग, 1979

ऐसा कहा जाता है कि सन् 1941 में अंग्रेज़ों तथा रूसियों ने ईरान पर अधिकार कर लिया था - यद्यपि सैनिक तथा लिखित रूप से ऐसा कुछ नहीं हुआ था। रज़ा शाह खुद जर्मन नाज़ियों को समर्थन करने लगा था। मित्र राष्ट्रों को डर था कि यदि वे आगे न आए तो ईरान जर्मनी के साथ चला जाएगा। सैनिक रूप से ईरान बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि यहाँ न सिर्फ़ तेल का भण्डार था बल्कि यह भौगोलिक रूप से एशियाई सोवियत रूस और ब्रिटिश भारत के बीच पड़ता था। आंल - सोवियत खलल के पहले ईरान में किसी भी जर्मन ने सैनिक आतंक नहीं फैलाया था। कॉकेशस (आज का अज़रबैजान, जॉर्जिया और आसपास के क्षेत्र, फ़ारसी में कूह-ए-क़ाफ़) के तेल-क्षेत्रों पर जर्मनी ने 1942 में ही दबाब बनाना आरंभ किया था। हँलांकि रज़ा शाह ने शुरु (1930 के दशक में) में जर्मनों का समर्थन किया था पर बाद में वो जर्मन अधिपत्य की भावी संभावना को देखकर उनके ख़िलाफ़ हो गया था। इधर हिटलर द्वारा रूस पर आक्रमण (जून 1941) कर देने से रूस तथा ब्रिटेन मित्र हो गए थे अतः दोनों ने मिलकर ईरान की सत्ता पर अगस्त 1941 तक अधिपत्य कायम कर लिया। शाह ने एक तरह से यह सब होने दे दिया।

लगभग इसी समय इराक़ में ब्रिटिश-विरोधी आन्दोलन हुए। जर्मन सेना उत्तरी अफ्रीका में भी आ गई थी। यूरोप में जर्मनी के कब्जे वाली ज़मीन से रूस-ब्रिटेन का सहयोग होना बन्द हो गया तो उन्हें ईरान एक नए रास्ते के रूप में दिखने लगा और उन्होंने ईरान पर अगस्त 1941 तक अधिकार कर लिया। ईरान के शाह ने पहले तो नाज़ियों के आर्यीकरण पर सहयोगी की भूमिका बताई थी पर बाद में वे नाज़ियों या साम्यवादियों (रूस) के शासन के खिलाफ़ हो गया था अतः उन्होंने ब्रिटेन को सहायक जैसा एक विकल्प चुना। शाह ने अपने पुत्र मोहम्मद रज़ा (फ़ारसी में रीज़ा) को वारिस बनाकर गद्दी छोड़ दी और मित्र राष्ट्र युद्ध के खत्म होने तक ईरान में बने रहे।

ईरान में अंग्रेज़ों की उपस्थिति से सम्पूर्ण राष्ट्र अपने को लज्जास्पद दृष्टि से देख रहा था। शर्मावनत राष्ट्र के गुस्से पर था - नए शाह रज़ा का शासन। 1949 में शाह के हत्या की साजिश की गई जो विफल रही। प्रधानमंत्री मोसद्दिक़ को 60 के दशक में सत्तापलट के ज़ुर्म में नज़रकैद की सज़ा सुनाई गई और 1967 में उसकी मृत्यु हो गई। वो एक योग्य व्यक्ति था और उसके इस हश्र के बाद भी लोगों का गुस्सा शाह के खिलाफ़ भड़का। सोवियतों के खिलाफ ईरान में अमेरिकी उपस्थिति 1968 से बढ़ती गई।

रुहोल्ला ख़ुमैनी

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ख़ोमैनी का जन्म सन् 1902 में ख़ुमैन (इस्फ़हान और तेहरान के बीच एक छोटा शहर) में हुआ था। वो सैय्यदों के परिवार से थे जो पैग़म्बर के वंशज माने जाते हैं। उनके बाल्यकाल में ही माता-पिता का वियोग हो गया था और उनकी शिक्षा क़ोम में हुई थी। इसके फ़लस्वरूप उनके मन में उलेमा के प्रति आदर-भाव था जो कि शाह के शासनकाल में कम होता जा रहा था। सन् 1963-64 में वे मोसद्दिक़ के साथ शाह की मुख़ालिफ़त (विरोध) करने वाले प्रमुख नेताओं में से एक हो गए।

वर्ग-अन्तर

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तेल के कारण शहरों (ख़ासकर तेहरान) में जनजीवन विलासिता पूर्ण होता गया और गाँव में ग़रीबी बढ़ती गई। लोगों के शासन से क्षुब्ध होने का यह भी एक कारण था। सन् 1971 में तख्त-ए-जमशैद (पर्सेपोलिस) में प्राचीन ईरान के हख़ामनी शासकों द्वारा स्थापित विश्व के उस समय के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना के 2500 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में शाह ने एक बड़े सम्मेलन का आयोजन किया ता। इसमें सभी बड़े राष्ट्राध्यक्षों तथा उनके प्रतिनिधियों को निमंत्रित किया गया था और इसमें अपार धनव्यय हुआ था। पर गांवों में फैली गरीबी ने शाह के इस खर्च को दिखावे की हद के रूप में देखा। जनता का रोष बढ़ता चला गया।

तेहरान जैसे शहरों में अमेरिकी तथा पश्चिमी पहनावे तथा रिहायश बढ़ गई थी। लोग पश्चिमी वस्त्रों में पेप्सी-कोला पीते हुए दिते थे। दरअसल वहाँ विलासिता इतनी बढ़ गई थी कि उनका रहन-सहन यूरोप के लोगों से कहीं बेहतर हो गया था। सरकार द्वारा निर्वासन मिलने के बाद खुमैनी ने विदेशों से ईरानी जनता को शाह के खिलाफ भड़काना आरंभ किया।

क्रांति की शुरुआत से पहले ईरान पर शाह रज़ा पहलवी की हुकूमत थी। सत्ता उनके क़रीबी रिश्तेदारों और दोस्तों तक ही सीमित थी। सत्तर के दशक में ईरान में अमीरी और ग़रीबी के बीच की खाई अपनी चरमसीमा पर पहुँच गई। शाह की आर्थिक नीतियों से लोगों का अविश्वास बढ़ने लगा और शाही तौर-तरीक़ों से लोगों की नाराज़गी ने आग में घी का काम किया। विरोध करने वाले दल पैरिस में निर्वासन का जीवन बिता रहे शिया धार्मिक नेता आयतुल्लाह ख़ुमैनी के इर्द-गिर्द जमा होने लगे. सामाजिक और आर्थिक सुधारों का वायदा करते हुए आयतुल्लाह ने पारंपरिक इस्लामी मूल्यों को भी अपनाए जाने की बात कही जो आम ईरानी के दिल की ही आवाज़ थी।

सत्तर के दशक के अंत तक पूरे ईरान में बड़े पैमाने पर हिंसा से भरपूर शाह-विरोधी प्रदर्शनों की शुरुआत हो गई। आम हड़तालों का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि देश भर में अस्थिरता की स्थिति पैदा हो गई और ईरान की अर्थव्यवस्था एक तरह से ठप हो गई। जनवरी 1979 में शाह एक 'लंबी छुट्टी' पर ईरान से बाहर चले गए। ईरान से पलायन से तुरंत पहले शाह ने एक काम यह किया कि प्रधानमंत्री शाहपुर बख़्तियार को अपनी ग़ैरमौजूदगी में देश का संचालन करने के लिए रीजेंसी काउंसिल का अध्यक्ष बना दिया. बख़्तियार ने लगातार बढ़ रहे विरोध का मुक़ाबला करने की ठानी। उन्होंने आयतुल्लाह ख़ुमैनी के एक नई सरकार का गठन करने के इरादे पर रोक लगा दी, वह फिर नहीं लौटे। ईरान भर में ख़ुमैनी के समर्थकों ने शाह की प्रतिमाओं को नेस्तनाबूद कर दिया।

पहली फ़रवरी, 1979 को आयतुल्लाह ख़ुमैनी नाटकीय रूप से निर्वासन से वापस लौट आए। तब तक राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता बढ़ चुकी थी। ख़ुमैनी-समर्थक प्रदर्शनकारियों, साम्राज्यवाद के हिमायतियों और पुलिस के बीच गलियों और सड़कों पर मुठभेड़ें एक आम बात हो गई। ग्यारह फ़रवरी को तेहरान की सड़कों पर टैंक नज़र आने लगे और सैन्य तख़्ता पलट की अफ़वाहें तेज़ हो गईं। लेकिन जैसे-जैसे दिन आगे बढ़ा यह साफ़ हो गया कि सेना का सत्ता पर क़ब्ज़ा करने का कोई इरादा नहीं है। क्रांतिकारियों ने तेहरान के मुख्य रेडियो स्टेशन पर धावा बोल दिया और ऐलान किया, "यह ईरानी जनता की क्रांति की आवाज़ है". प्रधानमंत्री बख़्तियार ने इस्तीफ़ा दिया।

दो महीने के बाद आयतुल्लाह ख़ुमैनी ने राष्ट्रीय रायशुमारी में भारी कामयाबी हासिल की. उन्होंने एक इस्लामी गणतंत्र का ऐलान कर दिया और उन्हें ज़िंदगी भर के लिए ईरान का राजनीतिक और धार्मिक नेता नियुक्त कर दिया गया।

1 फ़रवरी 1979 को खुमैनी एयर फ्रांस के यात्री विमान से तेहरान पहुँचे जहाँ उनका ज़ोरदार स्वागत किया गया।

यह ईरान के इतिहास की एक महत्त्व पूर्ण घटना थी