1. मतंग ऋषि के शिष्य। यह अत्यंत ईश्वरभक्त थे। मतंग ऋषि इन्हें आदेश दिया था कि त्रेतायुग में यह तब तक तपस्या करे जब तक इन्हें राम के दर्शन न हो जाएँ। तदानुसार यह दंडकारण्य में तब तक तप करते रहे जब तक इन्हें वहाँ भगवान्‌ राम के दर्शन नहीं हो गए।

2. गौतम ऋषि के एक शिष्य का नाम भी उत्तंक अथवा उत्तंग था। इनकी गुरुभक्ति असामान्य थी। गुरुपत्नी अहिल्या को गुरुदक्षिणा में इसने अत्यंत भयंकर तथा मनुष्य भक्षक राजा सौदास की पत्नी के कुंडल लाकर दिए थे। इनका विवाह गौतम ऋषि की कन्या के साथ हुआ था। गुरु प्रेम में यह अपना घर द्वार भूलकर बहुत समय तक आश्रम में ही रहे। एक बार जंगल से लकड़ी लाने पर जैसे ही यह उन्हें जमीन पर रखने लगे, तो इनके सिर के कुछ बाल टूटकर सामने गिर पड़े। अपने सफेद बाल देखकर इन्हें अपनी वृद्धावस्था का पता चला और यह रोने लगे। कारण जानकर गुरु ने इसे अपने घर जाने की आज्ञा दी।

3. उत्तंक नाम के एक वेदमुनि के शिष्य का नाम भी पौराणिक साहित्य में मिलता है। यह जितेंद्रिय, धर्मपरायण तथा गुरुभक्त थे। एक बार गुरु प्रवास पर गए थे तो गुरुपत्नी ने इनसे कामेच्छा प्रकट की जिसे इसने अस्वीकार कर दिया। गुरु वापस आए और इसकी चारित्रिक दृढ़ता के बारे में उन्हें मालूम हुआ तो उन्होंने इसे मनोकामनापूर्ति का आर्शीर्वाद दिया। गुरुदक्षिणा में गुरुपत्नी ने इनसे पोष्यराज की पत्नी के कुंडलों की कामना की। पोष्यराज से इन्होंने कुंडल ले लिए लेकिन वापस लौटते समय जब एक सरोवर के किनारे यह स्नान तर्पणादि करने लगे तो नागराज तक्षक उन कुंडलों को लेकर पाताल चला गया। बड़ी कठिनाई से इंद्र को प्रसन्न कर उत्तंक ने वज्र प्राप्त किया और उसकी सहायता से पाताल लोक पहुँचकर पुन: कुंडल प्राप्त किए। तक्षक को मरवाने की कामना से ही, बाद में, इसने जनमेजय को प्रेरणा देकर सर्पयज्ञ करवाया था।