उत्तरविहारकथांय

उत्तरविहारकथांय एक पुस्तक का नाम है। जिसे अशोक मौर्य महान के पुत्र महेन्द्र मौर्य ने आज से 2000 साल पहले श्रीलंका में लिखी था। इस पुस्तक मे सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के पिता के बारे में बताया गया है।[1][2]

सन्दर्भ संपादित करें

  1. Divya Dwivedi. Vishakhdatta Praniit Mudraraakshash, Ek Alochnatmak Adhyan. पृ॰ 72. नन्दवंश के उन्मूलन तथा चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा मौर्य साम्राज्य की स्थापना से सम्बन्धित अनेक तथ्य बौद्ध साहित्य में उपलब्ध होते है। इस दृष्टि से प्रथम शती ईस्वी मे रचित सिंहली अट्टकथा तथा उत्तर विहार अट्टकथा अधिक महत्त्वपूर्ण थी। यद्यपि ये दोनों ग्रन्थ अब नहीं मिलते, किन्तु इन्हे ही आधार बनाकर चौथी शताब्दी ईस्वी मे पालिभाषा में दीपवंश नामक काव्यग्रन्थ तथा अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत पालिभाषा में पॉचवीं-छठी शती ईस्वी में महानाम नामक विद्वान्‌ के द्वारा रचित महावंश इन दोनो ग्रन्थो का नन्द-मौर्य वंशों के इतिहास के निर्माण में बहुत बड़ा योगदान है। महावंश की ही सामग्री का पल्‍लवन महावंशटीका मे किया गया हे। इसे “वंसत्थप्पकासिनी' भी कहा जाता है।
  2. Satyaketu Vidyalankar. प्राचीन भारत (Satyaketu Vidyalankar). पृ॰ 29. विजेषतया, मौयं-सम्राट श्रश्योक तथा उसके बंश के सम्बन्ध में इन ग्रन्थों से बहुत-सी महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं । प्राचीन समय मे लंका में अनुरुद्धपुर नाम का एक प्रसिद्ध तगर था। इसमें महाविहार और उत्तर-विहार नामक दो प्रसिद्ध बौद्ध-मठ थे । ये दोनो विहार बौद्ध अ्रध्ययन के बड़े केन्द्र थे । पालि-भाषा में लिखी हुई अनेक बौद्ध-धर्म-विषयक पुस्तकें पहले-पहन इन्ही' मे विकसित हुई । यहाँ इनका निरन्तर अनुशीलन होता रहा । सिहली-भाषा में इनपर टीकाएँ भी लिखी गई । इस प्रकार धीरे-धीरे इन विहारो मे बहुत बडा बौद्ध-साहित्य विकसित हो गया । स्वाभाविक रूप से इस साहित्य में अनेक अंश इस प्रकार के भी थे, जिनका लंका के इतिहास से सम्बन्ध था। चौथी सदी ई० में किसी अज्ञातनामा विद्वान ने इन भागों को एकत्र करके लंका का एक क्रमबद्ध इतिहास तैयार किया , इसी का नाम दीपवंश पड़ा ।