उत्पत्तिवाद भारतीय काव्यशास्त्र में रस निष्पत्ति से संबन्धित एक विचारधारा अथवा मत है जिसके प्रणेता भट्ट लोल्लट हैं। भरत मुनि के प्रख्यात ग्रंथ नाट्यशास्त्र में वर्णित रस की निष्पत्ति से संबन्धित पाँच परवर्ती प्रमुख मतों में से यह एक है। इस मत के अनुसार निष्पत्ति से भरत मुनि का आशय उत्पत्ति और संयोग से सम्बन्ध था; विभाव कारण थे और रस उनके कार्य। इस मत का मानना है कि रस नायक इत्यादि में रहता है।[1] अर्थात् रस की वास्तविक अनुभूति तो मूल नायक इत्यादि को होती है, नाटक में हिस्सा लेने वाले पात्र तो मात्र उसका अभिनय करते हैं।[2] इसे आरोपवाद अथवा उपचितवाद के नाम से भी जाना जाता है।

इन्हें भी देखें

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  1. श्यामसुन्दर दास (1967). रूपक रहस्य.
  2. Purnima Dwivedi (20 July 2018). Tathya Parakh Hindi Sahitya Sanklan: Net Tatha Pradhyapak Pariksha Me Puchhe Jane Wale Prashno Ka Vishaywar Tatha Advitiya Sanklan. Educreation Publishing. पपृ॰ 271–. GGKEY:TLGJJC961C3.