उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का सिद्धान्त जैन धर्म का एक प्रमुख सिद्धान्त है। इसके अनुसार इस जगत में कोई अपेक्षा से नवीन घटनाएँ जन्म लेती है, कोई अपेक्षा से पुरानी घटनाओं का नाश होता है, और कोई अपेक्षा से सभी घटनाओं में एकरूपता बनी रहती है। प्राणियों के लिये इसका अर्थ है - कर्म और विपाक (कर्म के परिणाम) के अनुसार अनादि से संसार है, फिर भी आत्मा की शुद्ध चैतन्य शक्ति का ध्रुवत्व के कारण कभी भी नाश नहीं हुआ है और ना कभी भविष्य में नाश होगा। हर एक घटना का काल मूलतः एक समय का ही होता है। मानव यदि यथार्थ पुरुषार्थ करे और इस ध्रुव चैतन्य शक्ति पर अपना ध्यान एकाग्रता के साथ केंद्रित करे तो वह अपने वर्तमान दुःख और अपूर्ण ज्ञान की अवस्था को नाश या व्यय कर के अव्याबाध सुख और ज्ञान रूपी निर्वाण या मोक्ष कर्म रहित अवस्था का अपने में उत्पाद कर सकता है।[1][2]

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