किसी वस्तु की उपपत्ति के लिए जो अपेक्षणीय है, वह उपजीव्य है तथा जो अपेक्षा करे वह उपजीवक है। अर्थात् जिस पर निर्भर रहा जाए वह उपजीव्य है और जो निर्भर रहे वह उपजीवक है। जैसे, प्रत्यक्ष के बिना अनुमान नहीं हो सकता, इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण अनुमान प्रमाण का उपजीव्य है और अनुमान प्रमाण प्रत्यक्ष प्रमाण का उपजीवक है।

संस्कृत साहित्य में दो आदिकाव्य रामायण और महाभारत परवर्ती रचनाओं के लिये उपजीव्य काव्य हैं।

काव्य में उपजीव्य-उपजीवक भाव संपादित करें

साहित्य के विकास में ‘आदान-प्रदान’ प्रक्रिया का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। यह एक गतिशील जीवन्त प्रक्रिया है। उसमें पूर्ववर्ती से आधार रूप में कवि को जो कुछ भी उपलब्ध होता है उस पर खड़ा होकर ही आगे के लिए अपना कदम उठाता है। इसी तथ्य को नीति वाक्य में कहा गया है कि बुद्धिमान व्यक्ति एक पैर से खड़ा रहता है और दूसरे से चलता है। यह केवल 'व्यक्ति सत्य' ही नहीं, साहित्यिक सन्दर्भ में भी सत्य है। खड़े पैर का आधार पूर्ववर्ती उपजीव्य साहित्य होता है। इसी उपजीव्य परम्परागत साहित्य भूमि पर कवि का एक पैर स्थित रहता है यही उसका आदान है और जो पैर चलता रहता है- वह कवि का पैर प्रदान है। पूर्ववर्ती काव्यों का प्रभाव परवर्ती कृतियों में अवश्य दिखाई देती है, यही पूर्ववर्ती प्रभाव ही उपजीव्य-उपजीवक भाव होता है।