ऊर्जा (वैशेशिक दर्शन के अनुसार)

वैशेषिक दर्शनके अनुसार

  1. 'ऊर्जा' (तेज) एक तीव्र चाकचक्य (चमक) युक्त पदार्थ है। प्रकृति से यह आणविक होती है। ऊर्जा का एक महत्त्वपूर्ण गुण ऊष्ण उत्तेजना प्रदान करना है, अत: कोई भी पिण्ड जो इसके साथ संयोग करता है उच्चतापमान प्रदर्शित करता है। तेज का संयोग कर्म (Motion) में परिवर्तन ले आता है।
  2. रासायनिक अभिक्रियाएँ, ऊर्जा (तेज) की मात्रा के संयोग के कारण होती है।
  3. द्रव्य अवरोध दो प्रकार (material obstructions) के होते हैं- १. शोषण व २. आवर्तन जैसे लकड़ी शोषण के द्वारा इसके मार्ग को अवरुद्ध कर देती है। उसी प्रकार काँच जैसे द्रव्य आवर्तन के द्वारा अपने अन्दर से तेज गुजर जाने की अनुमति प्रदान करते हैं। पिण्ड में तेज के संयोगिक प्रभाव के कारण जो रंग का प्रत्यक्ष होता है, वह उसके छितराए हुए (scattering) तेजोघन (photon) के कारण दिखाई देता है। अंशुबोधिनी के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में वर्ण-क्रम-मापन-विज्ञान (spectroscopy) का अस्तित्व रहा है। हम इस विषय पर अलग से अष्टादश अध्याय में विचार करेंगे।

तेज के स्रोत (sources of energy)

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भाष्यकार प्रशस्तपाद ने तेज 4 के व्याख्यान प्रसंग में 'तेज' के चार प्रकार प्रतिपादित किये हैं। ये चार प्रकार उस तेज के ही स्वरूपान्तर हैं। वे इस प्रकार हैं- (१) भौम (२) दिव्य (३) उदर्य (४) आकरज

वैशेषिक दर्शन 'भौम' (terrestrial) और 'दिव्य' (celestial) को इसके स्रोत के रूप में निरुपित करता है। काष्ठादि ईधन से उत्पन्न और ऊर्ध्व ज्वलन स्वभाव (लपट के साथ जलने वाला) वाले 'तेज' को भौम कहते हैं और सूर्य, विद्युत आदि से प्राप्त 'तेज' को दिव्य कहते हैं। अन्य दो 'उदर्य' (abdominal) और 'आकरज' आधिभौतिक एवं पराभौतिक राशियों से सम्बन्धित हैं। तेज के बिना शरीर क्रिया कदापि संभव नहीं हो सकती, भोजनादि पाचनक्रिया का कारण रूप 'तेज' उदर्य कहा जाता है तथा सुवर्ण (gold) प्लेटिनम (platinum) धातुएँ 'आकरज' तेज कहलाती हैं।

भौतिकी में ऊर्जा

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किसी वस्तु या तंत्र में निहित कार्य करने की क्षमता को उर्जा कहते हैं। भौतिक विज्ञान में ऊर्जा की व्याख्या ऊष्मा क्रमश: तापमान (temperature) और रंग (colour) हैं। लोहे की शलाका (छड़) की चुम्बक की ओर गति (motion) का अदृष्ट कारण, विद्युत (electricity) का प्रभाव आदि भी ऊर्जा के अलग-अलग रूप हैं।

उर्जा का विस्तृत अध्ययन ही आधुनिक भौतिक विज्ञान के विकास का प्रमुख कारण है। ऊष्मा, प्रकाश, स्थिति, स्थापकता और चुम्बकत्व (magnetism) के विश्लेषणात्मक विवरण को पृथक् कर उनके अध्ययन का प्रबन्ध करना संभव है।

यदि भौतिक विज्ञान और वैशेषिक दर्शन के साथ-साथ अंशुबोधिनी के आधार पर 'शब्द' (तरंग वृत्ति: wave aspect) का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाय तो यह निश्चित ही अणुविखण्डन प्रक्रिया (disintegration of the atom) को समझने में अत्यन्त सहायक हो सकता है। पुरातन भारतीय साहित्य में शब्द के अन्य दो प्रकार और भी वर्णित हैं- (१) आहतनाद (द्रव्य माध्यम में तरंग) और (२) अनाहतनाद (पदार्थ की तरंग वृत्ति)।

तुलनात्मक अध्ययन का अभिप्राय वैशेषिक सम्मत भौतिक राशियों और आधुनिक भौतिक विज्ञान की राशियों के मध्य साम्य भी प्रदर्शित करना है। अत: शेष चार पदार्थों (सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव) का विश्लेषण अवशिष्ट है उनका विवेचन अग्रिम परिच्छेद में किया जायेगा।

1 प्रशस्तपाद, -भाष्य (६०० ई. पू.), "तत्रशुक्लं भास्वरं च रूपम्। ऊष्ण एव स्पर्श: तदपि द्विधमणु कार्यभावात्।"

2 प्रशस्तपाद, -भाष्य (६०० ई. पू.), "घटादेरामद्रव्यस्याग्निना सम्बन्धस्याभिधानान्तोदनाद्वा तदारम्भकेष्वणुषु कर्मण्युत्पादयन्ते।"

3 प्रशस्तपाद, -भाष्य (६०० ई. पू.), "पुनरन्यस्मादग्नि संयोगादौष्ण्यापेक्षात् पाकजा जायन्ते।"

4 प्रशस्तपाद, -भाष्य (६०० ई. पू.), "भौमं दिव्यमुदर्यमाकरजं च। तत्र भौमं काष्ठेन्धन प्रभवमूर्ध्वज्वलनस्वभावं, पचन, दहन, स्वेदनादि समर्थ, दिव्यमविन्धनं, सौर, विद्युदादि।"

5 महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र ५-१-१५ (६०० ई. पू.), "मणि गमनं सुच्याभिसर्पणमदृष्टकारणम्।" महर्षि गौतम, न्यायसूत्र ३-१-२३ (६०० ई. पू.), "अयसो अयस्कान्ताभिगमनवत्दुपसर्पणम्।"

6 अगस्त्य, -संहिता, शिल्पशास्त्रसार (११०० ई.) "संस्थाप्यमृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुशोभितम्। छादयोच्छिखिग्रिवेण चार्द्राभि: काष्ठपांसुभि:।। १।। दस्तालोष्ठो निधातव्य: पारदाच्छादितस्तत:। संयोगाज्जायते तेजो मैत्रावरुण संज्ञितम्।। २।। अनेन जल भंगोऽस्ति प्राणोदानेषु वायुषु। एवं शतानां कुम्भानां संयोग: कार्यकृत् स्मृत:।। ३।। वायुबंधक वस्त्रेण निबद्धो यान मस्तके। उदान: स्वलघुत्वेन विभर्त्याकाश यानकम्।। ४।।"