ऊष्मागतिकी के सिद्धान्त

19वीं शताब्दी के मध्य में ऊष्मागतिकी के दो सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया था, जिन्हें 'उष्मागतिकी का प्रथम नियम' तथा 'उष्मागतिकी का द्वितीय नियम' कहते हैं। आगे चलकर, 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में दो अन्य सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया जिन्हें 'उष्मागतिकी का शून्यवाँ नियम' तथा 'उष्मागतिकी का तृतीय नियम' कहते हैं।

ऊष्मागतिकी का शून्यवाँ नियम

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हम ऐसी दीवारों की कल्पना करेंगे जो विभिन्न द्रवों को एक दूसरे से अलग करती हैं। ये दीवारें इतनी सूक्ष्म होंगी कि इन द्रवों की पारस्परिक अंतरक्रिया को निश्चित करने के अतिरिक्त उन द्रवों के गुणधर्म के ऊपर उनका अन्य कोई प्रभाव नहीं होगा। द्रव इन दीवारों के एक ओर से दूसरी ओर न जा सकेगा। हम यह भी कल्पना करेंगे कि ये दीवारें दो तरह की हैं। एक ऐसी दीवारें जिनसे आवृत द्रव में बिना उन दीवारों अथवा उनके किसी भाग को हटाए हम कोई परिवर्तन नहीं कर सकते और उन द्रवों में हम विद्युतीय या चुंबकीय बलों द्वारा परिवर्तन कर सकते हैं क्योंकि ये बल दूर से भी अपना प्रभाव डाल सकते हैं। ऐसी दीवारों को हम "स्थिरोष्म" दीवारें कहेंगे।

दूसरे प्रकार की दीवारों को हम "उष्मागम्य" (डायाथर्मानस) दीवारें कहेंगे। ये दीवारें ऐसी होंगी कि साम्यावस्था में इनके द्वारा अलग किए गए द्रवों की दाब तथा आयतन के मान स्वेच्छ नहीं होंगे, अर्थात् यदि एक द्रव की दाब एवं आयतन और दूसरे द्रव की दाब निश्चित कर दी जाए तो दूसरे द्रव का आयतन भी निश्चित हो जाएगा। ऐसी अवस्था में पहले द्रव की दाब एवं आयतन P1 और V1 तथा दूसरे द्रव की दाब एवं आयतन P2 और V2 में एक संबंध होगा जिसे हम निम्नांकित समीकरण द्वारा प्रकट कर सकते हैं :

F (P1, V1, P2, V2) = 0 --- (1)

यह समीकरण उन द्रवों के तापीय संबंध का द्योतक है। दीवार का उपयोग केवल इतना है कि पदार्थ एक ओर से दूसरी ओर नहीं जा सकता। अनुभव द्वारा हम यह भी जानते हैं कि यदि एक द्रव के साथ अन्य द्रवों की तापीय साम्यावस्था हो तो स्वयं इन द्रवों में आपस में तापीय साम्यावस्था होगी। इसी को उष्मागतिकी का शून्यवाँ सिद्धांत कहते हैं।

यदि तापीय साम्यवस्थावाले तीन द्रवों के दबाव तथा आयतन क्रमश: (P1, V1), (P2, V2), तथा (P3,V3) हों तो इनमें समीकरण (1) की भाँति निम्नलिखित समीकरण होंगे :

f1 (p1, V1, p2, V2) = 0 ;
f2 (p2, V2, p3, V3) = 0 ;
f3 (p3, V3, p1, V1,)=0 --- (2)

परंतु उष्मागतिकी के शून्यवें सिद्धांत के अनुसार इन समीकरणों इन समीकरणों में केवल दो ही स्वतंत्र हैं, अर्थात् पहले दोनों समीकरणों की तुष्टि के फलस्वरूप तीसरे की तुष्टि भी अवश्यंभावी है। यह तभी संभव है जब इन समीकरणों का रूप इस प्रकार हो :

f1 (p1, V1) = f2 (p2, V2) = f3 (p3,V3) --- (3)

इनमें से किसी एक द्रव का उपयोग तापमापी के रूप में किया जा सकता है और उस द्रव के फलन के मान को हम प्रायोगिक ताप की भाँति प्रयुक्त कर सकते हैं। यदि पहले द्रव को तापमापी माना जाए तथा उसके फलन का मान t हो तो दूसरे द्रव के लिए हमें जो समीकरण मिलेगा अर्थात् f2 (p2 V2) = t वह दूसरे द्रव का दशासमीकरण (इक्वेशन ऑव स्टेट) कहा जाएगा।

यों तो द्रव के किसी भी गुण का उपयोग तापमापी के लिए किया जा सकता है परंतु p तथा V के जिस संबंध का उपयोग किया जाए वह जितना ही सरल होगा उतना ही ताप नापने में सुगमता होगी। हम जानते हैं कि समतापीय अवस्था में अल्प दाबवाली गैस की दाब एवं आयतन का गुणनफल अचर होता है। अतएव pV = R0 को ताप नापने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है और इस संबंध का उपयोग किया भी जाता है। परंतु यदि (दाब x अयातन) अचर हो तो (दाब x आयतन) का वर्गमूल अथवा (दाब x आयतन) का वर्ग भी अचर होगा। किंतु इनका उपयोग नहीं किया जाता। pV = R0 का उपयोग करने में क्या लाभ है यह आगे चलकर प्रकट होगा।

∆Q निकाय को दी गई ऊष्मा, ∆U निकाय के आंतरिक ऊर्जा में वृद्धि, एवं ∆W निकाय द्वारा किया गया कार्य है।

यदि निकाय ∆Q ऊष्मा लेती है तो धनात्मक और यदि ∆Q ऊर्जा निकाय द्वारा दी जाती है तो ऋणात्मक होती है। यदि निकाय द्वारा ∆W कार्य किया जाता है तो कार्य धनात्मक, यदि निकाय आयतन पर गैस के ताप को 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा एवं स्थिर दाब पर गैस के ताप को 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा में अन्तर रहता है। इस प्रकार गैस की दो विशिष्ट ऊष्माएँ होती हैं।

ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम

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जूल के नियमानुसार ऊष्मा गतिकी का प्रथम नियम ऊर्जा संरक्षण का नियम ही है। W=JHA निकाय को दी गर्इ ऊष्मा सम्पूर्ण रूप से कार्य में परिवर्तित नहीं होता। इसका कुछ भाग आन्तरिक ऊर्जा वृद्धि में व्यय होता है एवं बाकी कार्य में बदलता है अत: प्रथम नियम इस प्रकार होगा -

dQ = ∆U + dW
लेकिन रसायन ऊष्मगतिकी से dekta U=Q+dW होता है

स्थिर आयतन पर गैस की विशिष्ट ऊष्मा (Cu)- स्थिर आयतन पर गैस के इकार्इ द्रव्यमान का ताप 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा केा स्थिर आयतन पर गैस की विशिष्ट ऊष्मा कहते हैं एवं इसे से Cu प्रदर्शित करते हैं।

स्थिर दाब पर गैस की विशिष्ट ऊष्मा (Cp) - स्थिर दाब पर गैस के इकार्इ द्रव्यमान का ताप 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा को स्थिर दाब पर गैस की विशिष्ट ऊष्मा कहते हैं। इसे Cp से प्रदर्शित करते हैं। Cp, Cu से बडा़ होता है - जब स्थिर आयतन पर किसी गैस को ऊष्मा दी जाती है तो सम्पूर्ण ऊष्मा उसके ताप बढ़ाने में व्यय होती है। परन्तु जब स्थिर दाब पर किसी गैस को ऊष्मा दी जाती तो उसका कुछ भाग आयतन बढ़ाने में व्यय होता है एवं बाकी भाग उसके ताप वृद्धि में व्यय होता है। अत: Cp, Cu से बडा़ होता है। अत: Cp – Cu = R यह मेयर का संबंध है। यहां R सार्वत्रिक गैस नियतांक है।

ऊष्मा गतिकी का दूसरा नियम

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ऊष्मा गतिकी का प्रथम नियम ऊर्जा संरक्षण पर जोर देता है। यह सभी महसूस करते हैं कि ऊष्मा गर्म वस्तु से ठंडे वस्तु की ओर प्रवाहित होती है। परन्तु प्रथम नियम यह स्पष्ट नहीं कर पाता कि वह ठंडी वस्तु से गर्म वस्तु की ओर प्रवाहित क्यों नहीं हो पाती। अर्थात् यह नियम ऊष्मा के प्रवाह की दिशा को बताने में असमर्थ है।

जब कोई गोली लक्ष्य को बेधती है तो वह लक्ष्य के ताप में वृद्धि करती हे अर्थात् ऊष्मा उत्पन्न हो जाता है। परन्तु उस ऊष्मा के द्वारा जो लक्ष्य में उत्पन्न हुआ है, गोली को यांत्रिक ऊर्जा प्रदान नहीं की जा सकती है जिससे गोली अन्यत्र चली जाय। इससे यह भी स्पष्ट नहीं होता कि किस सीमा तक ऊष्मा कार्य में परिवर्तित हो सकती है। इन सभी प्रश्नों का समाधान ऊष्मा गतिकी के दूसरे नियम में मिलता है। वैज्ञानिक केल्विन प्लांक एवं क्लासियस के कथन से स्पष्ट होगा।

केल्विन प्लांक के कथन- यदि ऊष्मा इंजन की क्षमताओं पर आधारित है। किसी निकाय के लिए नियत ताप पर किसी स्रोत से ऊष्मा अवशोषित कर सम्पूर्ण मात्रा को कार्य में रूपांतरित करना संभव नहीं है।

क्लासियस का कथन - किसी निकाय में बाह्य कार्य किये बिना, ठंडी वस्तु से ऊष्मा लेकर उसे गर्म वस्तु को लौटाना असम्भव है।

इन्हें भी देखें

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