ऊष्मायित्र (अंडा)

दिविस्स सिमुलतिङ अविअन इन्क्येबशेन्

अण्ड ऊष्मायित्र या डिंबौषक (Incubator) एक प्रकार का उपकरण है जिसके द्वारा कृत्रिम विधि से अंडों को सेआ जाता है और उनसे बच्चे उत्पन्न कराए जाते हैं।

डिंबौषक का सिद्धांत संपादित करें

जीवन की जागृति और निर्वाह दोनों ही भौतिक तथा रासायनिक स्थितियों पर निर्भर करते हैं, जिनमें ताप, आर्द्रता तथा वायु प्रमुख हैं। डिंब के पोषण और विकास के लिए यह अति आवश्यक है कि अंडे को समुचित मात्रा में ताप, वायु तथा आर्द्रता प्राप्त होती रहे। प्राणियों का शरीर इस प्रकार का बना होता है कि यदि उनके प्राकृतिक वातावरण में किसी प्रकार का परिवर्तन होता है तो प्राणी की शारीरिक क्रियाएँ भी उसके अनुकूल स्वयं व्यवस्थित हो जाती है, किंतु इस व्यवस्था की भी एक न्यूनतम और एक अधिकतम सीमा निर्धारित होती है। इस सीमा के बाहर कम अथवा अधिक परिवर्तन होने पर प्राणी का जीना असंभव हो जाता है। अत: सर्वोत्तम सफल परिणाम के लिए यह आवश्यक है कि डिंबौषण की अवधि में ताप तथा आर्द्रता सदैव स्थिर (constant) बनी रहे और हवा का संचार होता रहे। इन परिस्थितयों को उपकरण द्वारा उपलब्ध कराना सरल नहीं है, क्योंकि इन्हें छिन्न भिन्न करनेवाले अनेक कारक हैं। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं :

वायुमंडल के ताप में परिवर्तन संपादित करें

यह तो साधारण अनुभव है कि जाड़े में हवा ठंडी, और गरमी में बहुत ही गरम, हो जाती है। अतएव वायुमंडल में जब परिवर्तन होता है तब उसका प्रभाव हर वस्तु पर पड़ता है। उदाहरणार्थ, लकड़ी या लोहा हवा के ताप में घट बढ़ के अनुसार ठंडा अथवा गरम हो जाता है। प्राणी भी जाड़े में ठिठुरने लगते हैं और गरमी में व्याकुल हो उठते हैं। इसलिए यह एक समस्या है कि डिंबौषक का निर्माण करते समय उसमें इस प्रकार की व्यवस्था रखी जाए कि वह मौसम के अनुसार बाह्य वायुमंडल में होने वाले परिवर्तन से अप्रभावित रहे और डिंबौषक के अंदर ताप स्थिर अवस्था में बना रहे।

ताप संबंधी दूसरी समस्या यह है कि यदि डिंबौषक को गरम रखने के लिए गैस का प्रयोग करते हैं तो यह आवश्यक है कि गैस का दबाव हमेशा एक समान रहे, अन्यथा अधिक दबाव से बत्ती तेज जलेगी और ताप बढ़ जाएगा तथा कम दबाव होने पर मंद जलेगी और ताप घट जाएगा। यदि गैस के बदले तेल से जलने वाली बत्ती का उपयोग करते हैं तो उसके साथ भी यह समस्या उठ खड़ी होती है कि बत्ती हमेशा एक समान जले। तेल की बत्ती का भी एक समान जलना असंभव है, क्योंकि बत्ती के जलते रहने पर उसमें गुल पड़ जाता है।

तीसरी कठिनाई यह है कि डिंबौषक कोष्ठ में वायु का संचार करने अथवा आवश्यकतानुसार अंडों पर जल का छिड़काव करने के लिये छिद्रों की जो व्यवस्था रहती है, वह भी ताप के परिमाण को प्रभावित कर सकती है। इसके अतिरिक्त एक दूसरा भी उतना ही प्रभावकारी, यद्यपि कम उद्विग्न करनेवाला कारक, डिंबौषक में रखे अंडे में ही विद्यमान होता है। सेने के नवें अथवा दसवें दिन से अंडे के भ्रूण में महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं। १४वें दिन तक भ्रूण पहले की अपेक्षा अधिक बड़ा और स्थूल हो जाता है तथा अस्थायी अपरापोषिका (allantois) और इसकी शिराओं का विस्तार तथा माप बहुत बढ़ जाती है। फलत:, श्वासोच्छ्वास की क्रिया अधिक तीव्र हो जाती है और इस प्रकार ऑक्सीजन की रासायनिक प्रक्रिया बढ़ जाने के कारण स्वंय भ्रूण भी ताप की अधिक उत्पति करता है। अतएव डिंबौषक की सफलता इस पर निर्भर करती है कि इस प्रकार से बढ़े हुए ताप को उपकरण स्वंय नियंत्रित कर ले। अत: उपकरण में इस प्रकार की व्यवस्था रहनी चाहिए कि कोष्ठ के अंदर ताप कम होने लगे तो ताप बढ़ जाए, और यदि अधिक ऊपर बढ़ रहा हो तो कम हो जाए। इस भाँति हमेशा ताप एक निश्चित अंश पर टिका रहे।

वायु संपादित करें

उपर्युक्त कठिनाइयों के अतिरिक्त एक दूसरी कठिनाई यह है कि डिंबौषक के अंदर स्थान सीमित होता है और उसके भीतर अधिक से अधिक, जितना संभव होता है, अंडे रखे जाते हैं। चूँकि अंडे जीवित पिंड होते हैं, अतएव उन्हें स्वच्छ और ताजी हवा की आवश्यकता होती है। किंतु हवा के आवागमन के फलस्वरूप अंडों की सतह से जल का वाष्पीकरण अधिक होने लगता है, अतएव इस प्रकार के वाष्पीकरण को रोकने की व्यवस्था यदि न होगी, तो नवें या दसवें दिन या इसके उपरांत, अंडे बहुत शुष्क हो जाएँगे, जबकि उन्हें पहले की अपेक्षा अधिक आर्द्रता चाहिए। कुछ कुवकुटोत्पादक विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसा विश्वास करने का भी कारण है कि अंडों पर बैठनेवाली मुर्गियाँ अपने शरीर से एक प्रकार के तैलीय द्रव का स्राव करती हैं, जो अंडों की सतह पर चारों तरफ फैलकर अंडों के अंदर से होनेवाले वाष्पीकरण को रोकता अथवा कम करता है। अनुमान है कि यह तैल ऑक्सीजन के लिए अभेद्य होता है। प्राकृतिक ढंग से अंडों के सेने में तथा 'ममाल' (मिस्त्र निवासियों के कृत्रिम डिंबौषक व्यवसाय) में जिसका डिंबौषककोष्ठ बड़ा होता है, सीधी (direct) वायवीय धारा का अभाव होता है। इसमें यह प्रतीत होता है कि आर्द्रता की व्यवस्था रहे बिना भी डिंबौषण सफल हो सकता है।

डिंबौषण का इतिहास और प्रगति संपादित करें

मिस्र तथा चीनवासियों को प्राचीन काल से कृत्रिम डिंबौषण की कला मालूम रही है। मिस्त्र में मुहाने पर स्थित बरमी (Berme) नामक स्थान में कृत्रिम डिंबौषण का कार्य 'ममाल' द्वारा होता है। वहाँ 'ममाल' व्यवसाय की परंपरा क्रमश: पिता से पुत्र और पुत्र से पौत्र इत्यादि द्वारा चली आ रही है और यह कुछ विशष्ट परिवारों को ही ज्ञात है। इस क्रिया के गुप्त रहस्य की रक्षा धार्मिक उत्साह के साथ होती है और जिस व्यक्ति को इसकी दीक्षा दी जाती है उसे एक प्रकार की शपथ लेनी होती है कि वह किसी अन्य पर यह गुप्त ज्ञान प्रकट नहीं करेगा। यात्रियों द्वारा पता लगा है कि 'ममाल' ईटं का मकान प्रतीत होता है, जिसमें चार बड़े बड़े चूल्हे होते हैं। प्रत्येक ममाल में ४०,००० से लेकर ८०,००० तक अंडे आ सकते हैं। संपूर्ण मिस्त्र में ३८६ ममाल हैं, जो साल में छह महीने चालू रहते हैं और इस अवधि में आठ बार चूजे तैयार कर लिए जाते हैं।

डिंबौषण की एक दूसरी विधि से फ्रांस में कूवर्ज़ (Couvers), अथवा पेशेवर कुक्कुट उत्पादकों, द्वारा कार्य होता रहा है। इस कार्य के लिए वे मादा टर्की का प्रयोग करते हैं और प्रत्येक चिड़िया तीन महीने तक अंडे सेवन का कार्य करती है। कार्य करने की विधि निम्नलिखित है :

एक अँधेरे कमरे में, जिसका ताप सदा एक समान रहता है, ऐसे अनेक बक्स होते हैं जिनमें से प्रत्येक में एक टर्की चिड़िया आ सके। बक्स के अंदर कुछ घास पात, पुआल या नारियल की जटा रखी रहती है। प्रत्येक बक्स तार की जाली से इस प्रकार घिरा होता है कि उसमें बैठनेवाली चिड़िया की स्वतंत्रता सीमित रहे, पर वह बाहर न निकल सके। खाली अंडे के छिलके के अंदर प्लैस्टर ऑव पैरिस भरकर नकली (dummy) अंडे घोसले में रख दिए जाते हैं और चिड़िया उसमें बैठा दी जाती है। पहले तो चिड़िया उसमें से निकलने का प्रयत्न करती है, किंतु कुछ दिनों के बाद अभ्यस्त और शांत हो जाती है। तब नकली अंडों को हटाकर उनकी जगह पर असली और ताजे अंडे रख दिए जाते हैं। इन अंडों से ज्योंही चूजे निकलते हैं, उन्हें बाक्स से बाहर निकालकर दूसरे अंडे रख दिए जाते हैं। मादा टर्की का उपयोग विमाता के लिए भी सफलतापूर्वक किया जाता है। प्रत्येक चिड़िया लगभग दो दर्जन अंडों को भली भाँति से सकती है।

इसके पूर्व अनेक रोचक प्रयास हुए थे। १८२४ ई० के लगभग वालथ्यू (Walthew) ने किसान गृहिणियों के लिए घरेलू साधनों की सहायता से काम करनेवाले डिंबौषकों का निर्माण किया था। १८२७ ई० में जे. एच. बारलो (J. H. Barlow) ने मुर्गियों तथा अन्य चिड़ियों के अंडों से बच्चे उत्पन्न कराने में सफलता प्राप्त की। बरविक-ऑन-ट्वीड (Berwick-on-Tweed) निवासी जॉन चैंपेनियन (John Champanion) ने १८७० ई० में एक बड़े कमरे का प्रयोग किया। इस कमरे के मध्य भाग में एक टेबुल होता था, जिसपर अंडे रखे जाते थे। कमरे के अंदर उष्ण वायु के दो मार्ग जाते थे, जो बगलवाले स्थान में खुलते थे। कमरे का ताप एवं अग्नि की देखभाल का कार्य मनुष्य द्वारा व्यवस्थित होता था। यह विधि बड़े पैमाने तथा संशोधित एवं उन्नत ढंग से अब अमरीका के कुछ भागों में प्रचलित है।

इन्हें भी देखें संपादित करें