एडवर्ड बर्नेट टाइलर

अंग्रेज़ी मानवविज्ञानी

सर एडवर्ड बर्नेट टाइलर (2 अक्टूबर 1832 – 2 जनवरी 1917) एक अंग्रेज़ मानव विज्ञानी थे।

एडवर्ड बर्नेट टाइलर

एडवर्ड बर्नेट टाइलर
जन्म 2 अक्टूबर 1832
लंदन
मृत्यु 2 जनवरी 1917
राष्ट्रीयता ब्रिटिश
क्षेत्र मानवविज्ञानी
प्रसिद्धि सांस्कृतिक विकासवाद

टाइलर सांस्कृतिक विकासवाद के प्रतिनिधि हैं। टाइलर ने प्राचीन संस्कृति और मानवविज्ञान में, चार्ल्स लिएल के विकासवाद के सिद्धान्त पर आधारित मानव विज्ञान के वैज्ञानिक अध्ययन के संदर्भ का वर्णन किया है। उनका विश्वास था कि समाज और धर्म के विकास के पीछे एक कार्यात्मक आधार होता है, इनका दृढ़ विश्वास था कि वो आधार सार्वभौमिक होता है। ई. बी. टाइलर को कई लोग सामाजिक मानव विज्ञान का संस्थापक मानते हैं और इस क्षेत्र में उनके द्वारा किया गया कार्य बहुत ही महत्तवपूर्ण और मानवविज्ञान विषय के लिए सदैव सराहा जाने वाला योगदान माना जाता है। मानवविज्ञान 19वीं शताब्दी की शुरूआत में अपना आकार लेने लगा था।[1] उनका यह विश्वास था कि मानव इतिहास और प्रागैतिहासिक काल पर किया गया शोध ब्रिटिश समाज में सुधार की नींव डालने में सहायक होगा। [2]

उन्होनें साधारण रूप में प्रयोग होने वाले शब्द जीववाद (प्राणी की आत्मा पर विश्वास, सभी में जीवात्मा का होना और प्राकृतिक आविर्भाव) से दोबारा परिचय कराया.[3] उन्होंने जीववाद को धर्म के विकास का पहला चरण माना.

प्रारंभिक जीवन

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ई.बी. टाइलर का जन्म 1832 में लंदन के कैंबरवेल में हुआ था। वह जोसेफ टाइलर और हैरिएट टाइलर की संतान थे जो आर्थिक रूप से धनी थे और क्वेकर समुदाय से संबंध रखते थे। वे लंदन ब्रास फैक्ट्री के मालिक थे।

उनका शिक्षण कार्य टोटेनहैम के ग्रोव हाउस स्कूल में हुआ, लेकिन कच्ची उम्र में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने और अपनी रूढ़िवादी क्वेकर पृष्ठभूमि के चलते वे कभी कोई डिग्री हासिल नहीं कर पाए.[4] अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने स्वयं को अपने परिवार का व्यापार संभालने के लिए तैयार किया, लेकिन तपेदिक के शुरूआती लक्षणों के कारण यह योजना बीच में ही छोड़नी पड़ी. गरम स्थानों पर समय बिताने की सलाह को मानते हुए टाइलर ने 1855 में इंग्लैंड छोड़ दिया और मध्य अमेरिका चले गए। यह अनुभव उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण और रचनात्मक साबित हुआ और इसने उनमें जीवन भर अनजानी संस्कृतियों का अध्ययन करने की रुचि पैदा की।

अपनी यात्राओं के दौरान टाइलर हेनरी क्रिस्टी से भी मिले, जो उन्हीं की तरह एक क्वेकर और मानवविज्ञानी और पुरातत्वविद थे। क्रिस्टी से जुड़ने के बाद टाइलर में मानव शास्त्र के प्रति गहरी रूची जगी और इससे प्रागैतिहासिक अध्ययनों को शामिल करने के लिए उनकी जांचों को व्यापक बनाने में मदद मिली। [5]

पेशेवर करियर

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टाइलर का पहला प्रकाशन 1856 में उनकी क्रिस्टी के साथ मैक्सिको की यात्रा का परिणाम था। टाइलर ने लोगों से मिलने पर उनमें धर्म पर विश्वास एवं उनकी धार्मिक प्रथाओं को जाना और उसी आधार पर अपने लेख तैयार किए। इंगलैंड वापस लौटने पर उन्होंने इसे एनाहॉक: या मैक्सिको और मैक्सिकन, पौराणिक और आधुनिक नाम से अपनी कृति को प्रकाशित किया। फिर उन्होंने दोबारा यात्रा नहीं की और पिछड़ी जनजातियों के समकालीन एवं प्रागैतिहासिक काल के (पुरातात्विक नतीजों के आधार पर) विश्वासों और प्रथाओं का अध्ययन करते रहे और फिर इन्होंने अपनी कृति "मानव जाति का प्रारंभिक इतिहास और सभ्यता के विकास पर शोध " को 1865 में प्रकाशित किया। इसके बाद उनकी सबसे ज्यादा प्रभावी कृति मानव संस्कृति (1871) प्रकाशित हुई। इसके बाद भी उन्होने लेखन कार्य जारी रखा और प्रथम विश्वयुद्ध की शुरूआत तक लिखते रहे। उनकी सभी कृतियों में उनका सबसे महत्तवपूर्ण कार्य मानव संस्कृति रहा। यह केवल इसलिए महत्तवपूर्ण नहीं था कि इसमें मानव सभ्यता का गहन अध्ययन और विज्ञान जैसे उभरते हुए क्षेत्र में इसका योगदान था बल्कि यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण था क्योंकि इसका प्रभाव कुछ नौजवान शिक्षार्थियों पर भी पड़ा था, जैसे कि जे.जी. फ्रेजर. फ्रेजर, टाइलर द्वारा विकसित इस नये विषय को समझना चाहते थे और उनकी इच्छा थी कि वे भी आने वाले सालों में मानव विज्ञान के वैज्ञानिक अध्ययन की दिशा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दें।

1871 में टाइलर को शाही समाज के विद्वान के रूप में चुना गया और 1875 में इन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से सिविल कानून के डॉक्टर की मानद उपाधि प्राप्त की। 1883 में इनको ऑक्सफोर्ड में विश्वविद्यालय के संग्रहालय में कीपर के रूप में नियुक्त किया गया था। इन्होने यहां पर व्याख्याता के रूप में भी कार्य किया। 1884-1895 की समयावधि में इन्हे पहले मानवविज्ञान के रीडर की भी उपाधि मिली। वे पिट रिवर म्यूजीयम के आंरभिक इतिहास में भी संलग्न थे, हालांकि इसमें इनकी भागीदारी का होना विवाद का विषय है।[6]

1896 में वे ऑक्सफोर्ड में पहले मानव विज्ञान के प्रोफेसर बने उन्हें 1912 में नाइट की उपाधि दी गई।

विचारधारा और "आदिम संस्कृति "

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टाइलर की विचारधारा का उनके सबसे प्रसिद्ध कार्य, आदिम संस्कृति में अच्छा वर्णन किया गया है, जो दो खंडों में है। प्रथम खंड, संस्कृति का ऊदय नृवंशविज्ञान के विभिन्न पहलुओं को संबोधित करता है जिसमें सामाजिक विकास, भाषा विज्ञान और मिथक भी शामिल हैं। दूसरा खंड, जिसका शीर्षक आदिम संस्कृति में धर्म है, मुख्य रूप से "जीववाद" की व्याख्या करता है। टाइलर की विचारधारा की वास्तविकता ये हैं कि उन्हें 'धर्म का ज़िम्मेदार' समझा जाता है। बल्कि टाइलर धर्म के प्रति स्पष्ट नकारात्मक भावना रखते है और विशेष रूप से ईसाई धर्म के प्रति.

आदिम संस्कृति के पहले पृष्ठ पर, टाइलर ने एक अखिल समावेशी परिभाषा, जो उनके एक नृविज्ञान और धर्म के अध्ययन के लिए सबसे व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त है, लिखी है: "संस्कृति या सभ्यता, इसकी व्यापकता, नृवंशविज्ञान के अर्थ में ले लिया जाये तो यह पूरी तरह जटिल है जिसमे की ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, कानून, रीती रिवाज और अन्य किसी भी तरह की क्षमता जो आदमी ने समाज के एक सदस्य के रूप में ग्रहण की है।"[7]

अपने कई पूर्ववर्तियों और समकालीन के विपरीत, टाइलर ने कहा कि मनुष्य का मन और उसकी क्षमताये विश्व स्तर पर सामाजिक विकास में एक विशेष समाज के स्तर के विपरीत एक ही हैं।[8] इसका अनिवार्य रूप से मतलब है कि एक शिकारी समाज में भी उतना ही ज्ञान होगा जितना की एक उन्नत औद्योगिक समाज में. इसमें टाइलर ने यह अंतर पाया कि शिक्षा का ही फर्क होता है, ज्ञान और पद्धति प्राप्त करने के लिए हजारों साल लगते हैं। यही कारण है कि टाइलर आदिम संस्कृति को एक बच्चे कि तरह समझते हैं और यह देखतें हैं कि संस्कृति और मानव मस्तिष्क विकास के मामले में प्रगति शील हैं। इसकी एक वजह जो उन्होंने लिखी वो पतन के सिद्धांत का खंडन करना है, यह उस समय बहुत लोकप्रिय था।[9] आदिम संस्कृति के अंत में, टाइलर ने दावा किया है कि. "संस्कृति का विज्ञान अनिवार्य रूप से एक 'सुधारकों का विज्ञान है।"[7]

एक और शब्द जिसका श्रेय टाइलर को जाता है वह है उनके "उत्तरजीविता" का सिद्धांत. टाइलर का दावा किया था कि जब एक समाज विकसित होता है, तो कुछ रीति रिवाज़ जो कि अब समाज में अनावश्यक हैं उन्हें पहले के जैसा ही रहने दिया जाता है जैसे कि घर में पड़ा बेकार का सामान होता है।[10] उनके लिए उत्तरजीवीता का सिद्धांत "प्रक्रिया, रिवाज और विचार, हैं। जो कि हमारी आदत के जोर पर ही नये समाज की ओर बढ़ता है। यह नया समाज अपने पुराने घर से बिल्कुल अलग है और इस तरह से यह पुराने संस्कारों के सबूत की तरह रहता है जिनमें से अब नये संस्कारों ने जन्म ले लिया है।[11] इसमें कुछ पुरानी प्रथायें भी शामिल हैं जैसे कि यूरोपियिन रक्तपात. जो कि लंबे समय तक चली चिकित्सा पद्यतियों जिनपर यह आधारित था बाद में आधुनिक तकनीकों से बदल दिया गया।[12] उत्तरजीविता को लेकर बहुत अधिक आलोचना के बावजूद (आलोचकों ने यह तर्क दिया कि उन्होंने इस शब्द की पहचान की है लेकिन इसके लिए अपर्याप्त कारण दिए हैं जैसे कि उत्तरजीवियों कि उत्तरजीविता कैसे बनी रही) इस शब्द को गढने में उनकी मौलिकता आज भी मानी जाती है।

उत्तरजीविता

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टाइलर के जीवन की अवधारणा (मेमे के समान) उस संस्कृति के लक्षण को परिभाषित करती है जो कि मानव सभ्यता के पहले चरण का प्रतिबिंब है।[13] टाइलर के अनुसार जीवन से मतलब "प्रक्रियाओं, सीमा शुल्क, विचारों और इससे भी कहीं ज्यादा है। ये समाज की वो स्थितियां हैं जो हमारी आदत की मजबूरी से संचालित होती हैं और ये अपने पहले के घर से बदली हुई होती हैं तथा ये हमेशा हमारी पुरानी संस्कृति की स्थिति के सबूत एवं उदारहरण के रूप में रहती है। यह संस्कृति अब नये रूप में विकसित हो रही है".[14] जीवन का अध्ययन करने से मानवजाति के विवरणकारों को पहले से स्थापित सांस्कृतिक लक्षणों का दोबारा से निर्माण करने में मदद मिलती है और संभवत: संस्कृति के विकास कार्य में भी मदद मिलती है।[15] उत्तरजीविता के रूप में धर्म ई. बी टाइलर का यह तर्क था कि भूतकाल में धर्म को लोगों द्वारा संसार की घटनाओं का विवरण करने में प्रयोग किया जाता था।[16] उन्होनें यह पाया कि यह बहुत आवश्यक है कि धर्म में संसार में घटित होने वाली सभी घटनाओं का तर्क सहित विवरण करने की क्षमता हो। [17] उदाहरण के तौर पर भगवान (दैवीय शक्ति) ने हमें सूरज इसलिए दिया ताकि हमें गर्माहट और रोशनी मिलती रहे। टाइलर ने यह तर्क दिया कि जीवात्मा ही वास्तव में धर्म है जो हर धर्म की आवश्यकता है, यही इसका जवाब दे सकती है कि कौन सा धर्म पहले आया और कौन सा धर्म सभी ध्रर्मों का आधार है।[17] उनके लिए तो जीवात्मा ही इन सभी सवालों का जवाब है, इसीलिए यह इन सभी धर्मों का सही आधार होना चाहिये। जीवात्मा का वर्णन करते हुए कहा जाता है कि इसका मतलब सभी प्राणियों में आत्मा होने पर विश्वास करना है।[17] टाइलर ने जिस सत्य को जाना कि समकालीन आधुनिक धर्मपरायण लोग भी आत्मा पर विश्वास करते हैं। यह सत्य इस बात को दर्शाता है कि ये लोग आदिम समाज से ज्यादा प्रगतिशील नहीं थे।[18] उनके लिए इस बात से यह अर्थ निकलता है कि समकालीन आधुनिक धर्मपरायण लोग विश्व की राहों को नहीं जानते हैं और इन लोगों को यह भी नहीं पता है कि जीवन कैसे चलता है क्यों कि उनका ज्ञान को विश्व के बारे में उनकी समझ पर निर्भर करता है।[18] अगर घटनाओं के होने के बारे में इन लोगों की समझ से वैज्ञानिक विवरण हटा दिया जाये तो आज भी ये धर्मपरायण लोग अर्ध विकसित हैं। सबसे आवश्यक बात यह कि टाइलर आधुनिक लोगों की धर्मपरायणता को रूढ़ियों से बंधा अज्ञान मानते हैं।[18] दूसरे शब्दों में इन लोगों का इश्वर में विश्वास जीवित रहने के लिए ही है, क्यों कि विज्ञान अब जिन चीज़ों को परिभाषित करता है वो सब पहले से ही धर्म द्वारा तर्कसंगत बताई जा चुकी हैं।

कार्याएं

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  • एनाहॉक: और मेक्सिको एंड द मेक्सिकंस, प्राचीन और आधुनिक (1861)
  • रिसर्चेज़ इनटू द अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ मैनकाइंड एंड द डेवलपमेंट ऑफ़ सिवीलाइजेशन (1865)
  • आदिम संस्कृति (1871) (कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा पुनःनिर्गमित, 2010. ISBN 978-1-108-01752-7)
  • नृविज्ञान (1881)
  • ऑन अ मेथड ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन द डेवलपमेंट ऑफ़ इंस्टिट्यूशन, एप्लाइड टू लॉज़ ऑफ़ मैरेज एंड डिसेंट (1889)

संबंधित अध्ययन

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जोन लियोपोल्ड, 1980. तुलनात्मक और विकासवादी परिप्रेक्ष्य में संस्कृति: ई. बी. टाइलर और आदिम संस्कृति का निर्माण. बर्लिन: डिट्रीच रिमर वर्लग (अंग्रेज़ी में)

  1. पॉल बोहैनन, सामाजिक नृविज्ञान (न्यूयॉर्क: होल्ट राइनहार्ट और विंस्टन, 1969)
  2. लेविस, हर्बर्ट एस. (1998) मानवविज्ञान और उसके परिणाम के गलत बयानी अमेरिकी मानवविज्ञानी 100:" 716-731
  3. ऑनलाइन व्युत्पत्ति शब्दकोश पर जीववाद की परिभाषा Archived 2017-07-11 at the वेबैक मशीन, 2 अक्टूबर 2007 को अभिगम.
  4. लोरी, रॉबर्ट एच. (1917). एडवर्ड बी टाइलर. अमेरिकी मानवविज्ञानी, नई सीरीज खंड 19, संख्या 2. (अप्रैल - जून, 1917), पीपी 262-268.
  5. आर. आर. मरेट, टाइलर (लंदन: चैपमैन और हॉल, 1936)
  6. "संग्रहीत प्रति". मूल से 22 अक्तूबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 7 अप्रैल 2011.
  7. टाइलर, एडवर्ड. 1920 [1871]. आदिम संस्कृति . न्यूयॉर्क: जे.पी. पटनम संस.1.
  8. स्ट्रिंगर, मार्टिन डी. (1999). पुनर्विचार जीववाद: हमारे अनुशासन की आरम्भिक अवस्था से विचार. रॉयल मानवविज्ञान संस्थान के जर्नल, खंड 5, संख्या 4. (दिसंबर 1999), पीपी 541-555.
  9. "संग्रहीत प्रति". मूल से 6 मई 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 7 अप्रैल 2011.
  10. वैलिस, विल्सन डी. (1936).समीक्षित कार्य (ओं): मार्गरेट टी. हॉजेन द्वारा अवशेष का सिद्धांत. अमेरिकी लोकगीत के जर्नल, खंड 49, संख्या 193. (जुलाई - सितंबर, 1936), पीपी. 273-274.
  11. टाइलर, एडवर्ड. 1920 [1871]. आदिम संस्कृति . न्यूयॉर्क: जे.पी. पटनम संस.1. 16.
  12. ब्राउन, विल्ली और रसेल टी. मैक कचिओन, एड्स. 2000. धर्म के अध्ययन के लिए गाइड. लंदन: कंटीनम. 160.
  13. मूर, जैरी डी. "एडवर्ड टाइलर: संस्कृति का विकास." संस्कृति के दर्शन: मानव विज्ञान सिद्धांतों और सिद्धांतकारों का एक परिचय. वॉलनट क्रीक: एल्टामिरा, 1997. 23.
  14. टाइलर, एडवर्ड. "आदिम संस्कृति." न्यूयॉर्क: हार्पर एंड रो. 1958 [1871]. 16.
  15. मूर, जैरी डी. "एडवर्ड टाइलर: संस्कृति का विकास." संस्कृति के दर्शन: मानव विज्ञान सिद्धांतों और सिद्धांतकारों का एक परिचय. वॉलनट क्रीक: एल्टामिरा, 1997. 24.
  16. स्ट्रेंसकी, इवान. "'द शॉक ऑफ़ द 'सैवेज': एडवर्ड बर्नेट टाइलर, एव्ल्युशन, एंड स्पिरिट्स." धर्म पर सोंचना: धर्म के सिद्धांतों का ऐतिहासिक परिचय. ऑक्सफोर्ड: ब्लैकवेल प्रकाशन लिमिटेड, 2006. 93.
  17. स्ट्रेंसकी, इवान. "'द शॉक ऑफ़ द 'सैवेज': एडवर्ड बर्नेट टाइलर, एव्ल्युशन, एंड स्पिरिट्स." धर्म पर सोंचना: धर्म के सिद्धांतों का ऐतिहासिक परिचय. ऑक्सफोर्ड: ब्लैकवेल प्रकाशन लिमिटेड, 2006. 94.
  18. स्ट्रेंसकी, इवान. "'द शॉक ऑफ़ द 'सैवेज': एडवर्ड बर्नेट टाइलर, एव्ल्युशन, एंड स्पिरिट्स." धर्म पर सोंचना: धर्म के सिद्धांतों का ऐतिहासिक परिचय. ऑक्सफोर्ड: ब्लैकवेल प्रकाशन लिमिटेड, 2006. 99.

बाहरी कड़ियाँ

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