ऐतरेय ऋषि ऋग्वेद की ऐतरेय नामक शाखा के प्रवर्तक हैं। इस शाखा के ऐतरेय ब्राह्मण, ऐतरेय आरण्यक तथा ऐतरेय उपनिषद् इत्यादि ग्रंथ उपलब्ध हैं। सायण के अनुसार इतरा नामक स्त्री से उत्पन्न होने के कारण इनका ऐतरेय नाम पड़ा। महिदास इनका मूल नाम था और ये हारीत वंश में उत्पन्न मांडूकि ऋषि के पुत्र थे। बचपन से ही ये चुपचाप रहते थे और "नमो भगवते वासुदेवाय" मंत्र का जाप किया करते थे। इनके पिता मांडूकि ने पिंगा नाम की एक अन्य स्त्री से विवाह कर लिया जिससे उन्हें चार पुत्र हुए। बड़े होने पर उक्त चारों ही पुत्र विद्वान् बने और सब उनका अत्यधिक सम्मान करने लगे। इससे इतरा को दु:ख हुआ और उसने ऐतरेय से कहा, "तेरे विद्वान् न होने से तेरे पिता मेरा अपमान करते हैं, अत: मैं अब देहत्याग करूँगी।" इसपर ऐतरेय ने अपनी माता को धर्मज्ञान देकर देहत्याग के विचार से विरत किया।

कालांतर में विष्णु ने ऐतरेय और उनकी माता को साक्षात् दर्शन दिए और ऐतरेय को अप्रतिम विद्वान् होने का वर दिया। हरिमेध्य द्वारा कोटितीर्थ नामक स्थान पर आयोजित यज्ञ में भगवान विष्णु के निर्देशानुसार ऐतरेय ने वेदार्थ पर प्रभावशाली व्याख्यान दिया। इससे प्रसन्न हो हरिमेध्य ने न केवल उनकी पूजा की अपितु अपनी कन्या से उनका विवाह भी कर दिया।