ओज
ओज
संपादित करेंसप्त धातुओं के सार को ओज कहते हैं। शास्त्रों में इसे बल कहते हैं।
महर्षि चरक नें लिखा हैं कि हृदय में पीले रंग का शुद्ध रूधिर के दर्शन होतें हैं, उसी को ओज कहते हैं। इसका नाश होनें से शरीर का भी नाश हो जाता है।
महर्षि सुश्रुत नें लिखा है कि ओज रूपी बल से मांस का संचय और स्थिरता होती है। इसी से सब चेष्टाओं में स्वच्छन्दता, समस्त इंद्रियों के कार्य सम्पन्न होते हैं। शरीर के प्रत्येक अंग और अवयवों में ओज व्याप्त होता है।
ओज क्षय होनें से रोगी अनावश्यक बिना किसी कारण के भयभीत होता है, कमजोर हो जाता है, बराबर चिन्ता करता रहता है। समस्त इंद्रियां पीड़ायुक्त होती हैं। शरीर कमजोर होता है, रूखा और कान्तिहीन होता है। मानसिक और शारीरिक विकारों से हमेंशा त्रस्त रहता है।